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जनता जनार्दन, न्यायपालिका पर नियंत्रण के इस खेल को समझे 

दीवार क्या गिरी मेरे कच्चे मकान की, 

लोगों ने मेरे सेहन से रस्ते बना लिए।
-सिब्त अली “सबा”
दिल्ली हाई कोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा के घर के आउटहाउस में आग बुझाने के दौरान करोड़ों रुपये के नोटों के बण्डल का मिलना क्या हुआ, सरकार और उसके पक्षकारों ने अपना पुराना राग अलापना शुरू कर दिया. किसी ने जजों की नियुक्ति की शक्ति फिर से वापस सरकार के हाथों में देनी की वकालत शुरू की तो सरकार के रहमोकरम पर संवैधानिक पद पर बैठे कुछ खैरख्वाहों ने 32 साल से चल रहे कॉलेजियम सिस्टम की लानत-मलानत शुरू कर दी और दावा किया कि सरकार द्वारा नियुक्त जज को नियुक्त गंगा में धुले होंगें. 
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इस नए अभियान के पीछे सबसे बड़ा कारण है वर्तमान शीर्ष न्यायपालिका का मोदी सरकार के पूर्ण नियंत्रण में न आना. या यूं कहें कि अगर मोदी के ऑटोक्रेटिक स्टेट में कोई एक संस्था बाधक बन रही है तो वह है शीर्ष न्यायपालिका. कोई 60 साल पहले फिल्म मेरे हुजूर में राजकुमार के डायलाग “लखनऊ में ऐसी कौन सी फिरदौस है जिसमें हम नहीं जानते” वाला गुरूर सत्ता के शीर्ष पर बैठे हुए लोगों में हो तो यही सवाल होता है “ये कौन सी संस्था है जिसकी रीढ़ आज भी बची हुई है. 
क्यों फेल हुई सर्वदलीय बैठकः जस्टिस वर्मा के घर बोरों में नोटों का बण्डल मिलना देश की सामूहिक चेतना को झकझोरने वाला था. आम लोगों से लेकर हर संस्था के शीर्ष पर बैठे किरदारों ने अपने-अपने तरीके से रियेक्ट किया. उपराष्ट्रपति और राज्य-सभा के पदेन सभापति जगदीप धनखड़ ने सीजेआई और एससी की पारदर्शिता और तेज कदम की तारीफ करने के तत्काल बाद सर्वदलीय बैठक बुलाई तो लगा कि महोदय संसद की इस मुद्दे पर पहलकदमी याने जज को हटाने की प्रक्रिया के बारे में राजनीतिक दलों की सहमति बनाना चाहते हैं. और इसका जिक्र भी उन्होंने एक दिन पहले यह कह कर किया कि जज केस के मामले में बात करनी है.
लेकिन उनका इरादा बैठक की शुरुआत में हीं साफ़ हो गया. सभापति जी जज को हटाने की संसदीय पहल पर सबकी राय लेने की जगह अपने चिरपरिचित कॉलेजियम-विरोधी स्टैंड पर भाषण करने लगे. और बताया कि कैसे सुप्रीम कोर्ट ने संविधानेतर संस्था और प्रक्रिया विकसित कर ली और कैसे सारी गलती की जड़ में कॉलेजियम सिस्टम है. सतर्क विपक्ष ने नीयत भांपते हुए कोई हामी नहीं भरी. उनका विपक्षी दलों का मन टटोलना असफल रहा. 
विपक्षी बखूबी जानते थे कि सभापति महोदय सदन में हीं नहीं जनसभाओं में जजों की नियुक्ति और ट्रान्सफर के मामले में एससी के वर्चस्व वाले कॉलेजियम सिस्टम के खिलाफ मोर्चा खोले रहते हैं. चूंकि मोदी सरकार भी यह अधिकार फिर से अपने हाथ में चाहती है लिहाज़ा हर संस्था की शीर्ष पर बैठे लोग वो सब कुछ करने को तैयार रहते हैं जिससे “साहब बहादुर” खुश हों.
 मोदी की आँख की किरकिरी हैं शीर्ष न्यायपालिका. इसके पूर्ण नियंत्रण (जो नियुक्ति की शक्ति सरकार के हाथों में आने पर हीं संभव है) का इरादा मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के तत्काल बाद जाहिर कर दिया था –नेशनल जुडिशल अपॉइंटमेंट्स कमीशन (एनजेएसी) – कानून ला कर. सन 2014 में सरकार के पास जबरदस्त बहुमत था. पिछली यूपीए-2 सरकार भी कोयला घोटाला, स्पेक्ट्रम घोटाला, चॉपर घोटाला, टेट्रा ट्रक घोटाला, कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला और कैश फॉर वोट घोटाला में सुप्रीम कोर्ट से त्रस्त थी. नत्तीजतन यह संविधान संशोधन बिल न केवल सभी दलों ने पास किया बल्कि देश के सभी राज्यों के आधे से ज्यादा ने अनुमोदित भी किया. 
लेकिन इस कानून के लाने के पीछे इरादा एक हीं था एक खास विचारधारा के लोगों की न्यायपालिका में पूरी तरह पैठ. तभी तो उसके सबसे खतरनाक प्रावधान में एक था –अगर छः-सदस्यीय कमीशन में कोई भी दो सदस्य किसी प्रस्तावित नाम पर सहमत नहीं होंगें तो ऐसे जजों की बहाली रोक दी जायेगी. याने न्यायपालिका स्वतंत्र नहीं होगी जजों की बहाली को लेकर.
जाहिर है सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में इसे संविधान के आधारभूत ढांचे के सिद्धांत के तहत न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के खिलाफ बताते हुए ख़ारिज कर दिया. सर्वदलीय बैठक में भी सभापति ने कहा संसद सर्वोच्च है और सुप्रीम कोर्ट को संसद द्वारा पारित संविधान संशोधन को रद करने का कोई अधिकार नहीं है. लेकिन उनके तर्क में दोष यह है कि संसद में अगर कोई भारी बहुमत वाला दल चुनाव व्यवस्था कोई हीं ख़त्म करना वाला संशोधन पास करा ले तो क्या कोर्ट चुपचाप देखता रहेगा. यही है संविधान के आधारभूत ढांचे के सिद्धांत के पीछे मूल तर्क. क्या एक जज के भ्रष्ट होने के आरोप में न्यायपालिका की आजादी के मूल तत्व बदल देने चाहिए? तब तो एक भ्रष्ट मंत्री पर आरोप हों तो सरकार भी बदली जाये, किसी आइएएस पर ऐसे आरोप हों तो यूपीएससी ख़त्म की जानी चाहिए? 
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एससी के लगातार फैसलों के बावजूद बुलडोजर न्याय आज भी खुलेआम जारी है. क्या इस अवधारणा की जनक -- यूपी सरकार-- पर कोई आंच आयी? महाराष्ट्र की सरकार आज भी इसे अपना रही है, क्या राज्यसभा के सभापति को इसमें संविधान का उल्लंघन नहीं दिखाई दिया? तर्कशास्त्र में एक मशहूर दोष का जिक्र है –केवल अपने आशय को पुख्ता करने वाले तथ्यों को उजागर करना. वैसे कॉलेजियम को जजों की नियुक्ति का तरीका बेहतर करना होगा. भ्रष्ट “मी लॉर्ड्स” उस सड़े लाश की तरह हैं जिन पर गिद्ध तो मंडराएंगे हीं. न्यायपालिका की दीवार कमजोर होगी तो लोग ईसा मसीह के इस कथन को कैसे भूलेंगे “जहां लाशें होंगी, वहाँ गिद्ध तो आयेंगें हीं” (लूक 17-13).
(लेखक ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन (बीईए) के पूर्व महासचिव भी रह चुके हैं)

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एन.के. सिंह
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