पहले लोकसभा चुनाव में मिले झटके से उबरने की कोशिश कर रहे समाजवादी नेता डा.राममनोहर लोहिया 1953 में पार्टी से जुड़े नौजवानों के प्रशिक्षण के लिए प्रतापगढ़ पहुँचे थे। अपने संबोधन में उन्होंने कहा, “अगर किसी लड़के को तैराकी सिखानी है तो उसे पानी में छोड़ देना चाहिए। हमेशा हाथ पकड़े रहने से वह कभी तैराकी नहीं सीख पाएगा।” डा.लोहिया की इस सीख पर सवाल खड़ा करते हुए एक नौजवान ने कहा, “पानी का नेचर जानना भी ज़रूरी है। अगर पानी की धारा तेज़ हो तो लड़का बह जाएगा। अगर पानी के अंदर मगरमच्छ हों तो लड़के को खा जाएँगे।”
यह नौजवान और कोई नहीं चंद्रशेखर थे जो आगे चलकर देश के प्रधानमंत्री बने। 13 साल प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में अपने को होम करने के बाद उन्होंने ‘पानी का नेचर’ समझा और राज्यसभा सदस्य रहते हुए 1964 में कांग्रेस में शामिल हो गये। मक़सद कांग्रेस को ‘समाजवादी’ बनाना था। अपनी आत्मकथा ‘जीवन जैसा जिया’ में चंद्रशेखर लिखते हैं, "मैंने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में 13 साल ईमानदारी और पूरी क्षमता के साथ काम किया। काफी समय काम करने के बाद पता चला कि पार्टी कुंठित हो गई है। अब यहां कुछ होने वाला नहीं है। फिर मैंने सोचा कि कांग्रेस बड़ी पार्टी है, चलते हैं इसमें कुछ करते हैं।"
समाजवादियों के खेमे से ही कांग्रेस में आये सिद्धारमैया जब 20 मई को दूसरी बार कर्नाटक के मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रहे थे, तो चंद्रशेखर का यह क़िस्सा अनायास याद आ गया जो कांग्रेस और समाजवादियों के उतार-चढ़ाव भरे रिश्तों की कहानी कहता है। साथ ही ये सवाल भी सामने रखता है कि क्या आज समाजवादियों की कांग्रेस से दूरी की कोई सैद्धांतिक वजह रह गयी है? पार्टियों या बड़े नेताओं की बात अलग है, लेकिन क्या उन कार्यकर्ताओं के लिए आज कांग्रेस ही स्वाभाविक घर नहीं है जो समाजवाद को आज भी संभव सपना मानते हैं? क्या क्रोनी कैपिटलिजम और सामाजिक न्याय के सवालों से मुठभेड़ करता हुआ कोई ऐसा समाजवादी नेता उन्हें सक्रिय और क़ीमत चुकाता नज़र आ रहा है जैसा कि राहुल गाँधी हैं?
17 मई 1934 में कांग्रेस के अंदर कांग्रेस समाजवादी दल (सीएसपी) की स्थापना हुई थी जिसका मक़सद कांग्रेस को समाजवादी नीतियों की ओर झुकाना था। लेकिन 1942 के आंदोलन में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले समाजवादी आज़ादी के बाद 1948 में पार्टी से अलग हो गये और बाक़ायदा ‘सोशलिस्ट पार्टी’ का गठन हुआ। इसके पीछे कांग्रेस के दक्षिणपंथ खेमे का दबाव तो था ही, कांग्रेस के प्रतिपक्ष के रूप में देश को एक सेक्युलर और लोकतांत्रिक विपक्ष देने की इच्छा भी थी। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ख़ुद कांग्रेस के अंदर समाजवादियों के ही नेता माने जाते थे। उन्होंने कोशिश की कि समाजवादी कांग्रेस में बने रहें लेकिन तुरत-फुरत समाजवादी नीतियों को पूरी तरह लागू करने की परिस्थिति उन्हें नज़र नहीं आ रही थी जैसा कि समाजवादी खेमा चाहता था। वे दुनिया भर की क्रांतियों के अध्येता थे और अच्छी तरह समझते थे कि भारत में क्रांति से ज़्यादा ‘संक्राति’ असरदार रहेगी। चरणबद्ध तरीके से भारतीय समाज को आधुनिक और प्रगतिशील बनाने की उनकी कोशिशों का असर भी दिखा।
ये विडंबना ही है कि महान समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण और डा.लोहिया जिस कांग्रेस को ‘क्रांतिकारी’ मोड़ देना चाहते थे, उसी का विरोध करते-करते ‘प्रतिक्रांति’ का मंच सजा बैठे। पहले डॉ.लोहिया के ग़ैरकांग्रेसवाद और फिर जयप्रकाश नारायण के आपात्काल विरोधी आंदोलन में शामिल होकर ही आरएसएस को सामाजिक जीवन में वैधता मिल पायी जो महात्मा गाँधी की हत्या की तोहमत के साथ हाशिये पर चला गया था। जब ग़ैरकांग्रेसवाद के नाम पर डॉ.लोहिया जनसंघ को साथ लेने का प्रयास कर रहे थे तो मधु लिमये ने इसका प्रखर विरोध किया था। उन्होंने इसके दुष्परिणाम के बारे में चेताया था। तब डॉ.लोहिया ने ख़ुद को उनका नेता बताते हुए एक ‘ट्रायल’ कर लेने की दलील दी थी। वह ट्रायल देश पर कितना भारी पड़ा, इसे समझना मुश्किल नहीं है।
नतीजा ये है कि सत्ता के शीर्ष पर पहुँचे आरएसएस ने देश के प्रगति चक्र को उलटना शुरू कर दिया है। आधुनिक, प्रगतिशील, तर्कवादी समाज सत्ता के विवेकविरोधी अभियान की वजह से तेजी से अपना तेज खोता जा रहा है। वह संविधान भी खतरे में पड़ गया है जिसे बनाने में समाजवादी चिंतकों और नेताओं ने भी अहम भूमिका निभाई थी। बीजेपी के तमाम नेता आज संविधान की प्रस्तावना में दर्ज धर्मनिरपेक्षता ही नहीं, समाजवाद शब्द पर भी हमलावर हैं।
ऐसे में महज़ सत्ता के खेल में बदल चुकी राजनीति से निराश होकर घर बैठ चुके समाजवादी कार्यकर्ताओं को समय की पुकार सुननी चाहिए। कांग्रेस के हाथ में उनके सपनों का झंडा है। वैसे तो कांग्रेस के आवढ़ी अधिवेशन (1957) में ‘समाजवादी ढंग का समाज’ और भुवनेश्वर अधिवेशन (1964) में ‘लोकतांत्रिक समाजवाद’ का लक्ष्य स्वीकार किया गया था लेकिन रायपुर अधिवेशन के बाद तो एक बिल्कुल नयी कांग्रेस सामने है। सद्भावना और सामाजिक न्याय, इस कांग्रेस का महामंत्र है। राहुल गाँधी के नेतृत्व में हुई कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा को मिला उत्साहजनक समर्थन इस बात का सबूत है कि देश नफ़रत के ख़िलाफ़ मुहब्बत का झंडा बुलंद करने को तैयार है। कर्नाटक के हालिया चुनाव के बीच राहुल गाँधी ने जिस तरह से ‘जितनी आबादी, उतना हक़’ का नारा बुलंद किया है, वह आने वाले दिनों में भारतीय राजनीति का पूरा परिदृश्य बदल सकता है। इस नारे में डॉ.लोहिया का ‘संसोपा ने बाँधी गाँठ, सौ में पायें पिछड़े साठ’ की गूँज साफ़ सुनाई पड़ रही है। संसोपा यानी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी।
समाजवादियों ने अपने जन्म से ही पूँजीवाद को मानवता के लिए खतरा बताया था। लेकिन बीसवीं सदी ख़त्म होते-होते इससे लड़ने के शास्त्रीय उपकरणों की एक्सपायरी डेट आ गयी। ‘समाजवादी राज्य’ के लिए ख़ूनी क्रांति के लथपथ पथ से गुज़र चुके देशों में भी अब ‘मुनाफ़ा’ भगवान का दर्जा प्राप्त कर चुका है। अब लड़ाई यही है कि राज्य को कितना कल्याणकारी बनाया जा सकता है। क्रोनी कैपिटलिजम या आवारा पूँजीवाद इसकी राह में सबसे बड़ा रोड़ा है जिससे जूझना कांग्रेस का घोषित आर्थिक कार्यक्रम है।
यह सही है कि भारत में उदारीकरण की शुरूआत करके कांग्रेस ने ही देश को पूर्व समाजवादी दौर से बाहर निकाला था, लेकिन कांग्रेस इस बात को स्वीकार करती है कि अब उस दवा में भारत की समस्याओं के इलाज की क्षमता नहीं रह गयी है। यूपीए शासन के दौर में जिस तरह अधिकार आधारित क़ानूनों पर ज़ोर दिया गया था वह बताता है कि कल्याणकारी राज्य की धारणा का अहसास वह हर घर तक पहुँचाना चाहती है।
मोदी सरकार कॉरपोरेट हितों को लेकर अंधी हो चुकी है। यह मुसोलिनी की उस परिभाषा को याद दिलाता है कि फासिज़्म, कॉरपोरेट और राज्य का मिश्रण है। राहुल गाँधी इस बात को समझ चुके हैं और अडानी मुद्दे पर उनकी सक्रियता नाभि पर हमले की तरह है। इस लड़ाई में साथ देना ऐतिहासिक ज़रूरत है। इतिहास के कई मोड़ पर समाजवादी चिंतकों, नेताओं और कार्यकर्ताओं ने कांग्रेस में शामिल होकर भारतीय राजनीति को एक नयी तेजस्विता दी थी। 2023 में ये पुकार एक बार फिर उठी है कि समाजवादी उठें और कांग्रेस में शामि होकर राजनीति का रंग बदल दें।
(लेखक कांग्रेस से जुड़े है)
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