पूर्णिमा दास
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कल्पना सोरेन
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आर्यन का मामला शुरू से कमजोर लग रहा है। जमानत नहीं मिलने से यह शक हो रहा था कि उसे फंसाया गया है। शाहरूख ख़ान का बेटा होने के नाते यह शक भी रहा है कि सब ऊपर के इशारे पर किया गया हो। फिर जमानत नहीं मिलने से भी इन आशंकाओं को दम मिला कि कोई 'बड़ा' है जो शाहरूख से उसके बेटे के बहाने हिसाब बराबर कर रहा है। ऐसे में इतवार को एनसीबी के गवाह ने जो आरोप लगाए उससे लगता है कि यह शाहरूख से वसूली की कोशिश है और शाहरूख ने पैसे देने से मना कर दिया इसलिए गिरफ्तारी हुई।
गवाह का यह आरोप भी है कि उससे कई सादे कागज पर दस्तखत करवा लिए गए थे। बेशक ये आरोप अपने आप में दमदार है। आज के अख़बारों में इसे जितनी प्रमुखता मिलनी चाहिए थी उतनी नहीं है। इस ख़बर को भी नहीं कि लखीमपुरखीरी मामले में गिरफ्तार मंत्री पुत्र को डेंगू हो गया है और उसे अस्पताल में दाखिल करा दिया गया है।
आर्यन के मामले को इस तथ्य से जोड़कर देखिए कि इंडियन एक्सप्रेस ने इतवार, 25 अक्टूबर को पहले पन्ने पर पांच कॉलम में टॉप पर ख़बर छापी थी जो यह बताती है कि सरकार (सामाजिक न्याय मंत्रालय) ने कहा है कि नशा करने वालों को, छोटी मात्रा जब्त होने पर जेल भेजने से बचा जाए। मुझे इस ख़बर की टाइमिंग से शक होता है वरना रिया चक्रवर्ती के मामले के बाद ही यह आदेश होना चाहिए था। अब जब आर्यन का पंगा ज़्यादा फैल गया है और आरोप/शपथपत्र आने का अंदाजा लग गया होगा इसलिए यह छपवा दिया गया है ताकि यह कहा जा सके कि सरकार मामले से अलग है और गिरफ्तारी के ख़िलाफ़। कहने की ज़रूरत नहीं है कि मामला शाहरूख जैसी हस्ती और 28 करोड़ जैसी राशि का नहीं होता तो यह सब करने की ज़रूरत नहीं थी। पर प्रचारक अनुभवी हों (उनका अनुभव लगातार बढ़ रहा है) तो ऐसे बचाव किए जाने चाहिए। मुझे नहीं पता यह कितनी ख़बर और कितना बचाव है पर इसका फिरौती वसूलने की कोशिश का आरोप लगने के दिन ही छपना रहस्य तो है।
अगले दिन आज के अख़बारों में इसका असर भी है। दैनिक जागरण ने इसे पहले पन्ने पर डबल कॉलम में छापा है और इसके साथ आर्यन की ख़बर अंदर होने की सूचना है। दूसरी ओर, एनसीबी, मुंबई का छोटा सा खंडन और उस प्रेस नोट में कोई ठोस जवाब नहीं होना वसूली के आरोपों को दमदार बनाता है। इसके अलावा आरोप में पर्याप्त तथ्य हैं तथा मामला शुरू से पूरी तरह आधिकारिक नहीं होकर राजनीतिक दल की भागीदारी वाला है।
मामला अदालत में है इसलिए आरोप अदालत में लगाना चाहिए लेकिन गवाह कह रहा है कि उससे सादे कागज पर दस्तखत करवाए गए। यह तकनीकी रूप से चाहे जितना कमजोर हो सुनने में दमदार लगता है।
अगर मामला परेशान करने और वसूली का नहीं है तो जमानत अर्जी का इतना जोरदार विरोध करने की क्या ज़रूरत थी। क़ानून को अपना काम सामान्य ढंग से करना चाहिए। लेकिन बात इतनी ही नहीं है, क़ानून के जानकार फैजान मुस्तफा ने एक टीवी कार्यक्रम में कहा है कि आर्यन के 'अपराध' की अधिकतम सजा एक साल और 20,000 रुपए का जुर्माना है। अक्सर सजा नहीं होती है और जुर्माना ही लगता है। इसके अलावा सरकारी आदेश भी है। फिर भी अदालत में जमानत का विरोध किया जा रहा है और आर्यन जेल में है क्योंकि प्रभावशाली (व्यक्ति का बेटा) है और सबूत नष्ट कर सकता है जो वाट्सऐप चैट है। और जाहिर है, नष्ट नहीं किया जा सकता है।
ऐसे में तकनीकी आधार पर गिरफ्तारी और जमानत नहीं मिलना, मामले में ग़ैर सरकारी और प्रभावशाली राजनीतिक लोगों के शामिल होने का संकेत देता है। सोशल मीडिया पर लगाए गए (हालाँकि आरोप नोटराइज्ड शपथ पत्र के रूप में है) वसूली के आरोप मूल आरोपों को और मज़बूत करता है। अब इस खुलासे के बाद और देर सबेर आर्यन को जमानत मिल जाएगी और मामला ठंडे बस्ते में चला जाएगा पर इसका खुलासा कभी नहीं होगा कि यह वसूली की कोशिश थी कि नहीं। और थी तो मोटा माल किसे मिलना था। क्या वह कोई गैर नेता हो सकता है? खुलासा पहले के मामले में भी नहीं हुआ है और तब सरकार बाकायदा मामले में नहीं कूदी होती तो राकेश अस्थाना गिरफ्तार होते और शायद कुछ पता चलता।
आज टाइम्स ऑफ इंडिया ने इस ख़बर में अच्छी लीपापोती की है। शीर्षक में आठ करोड़ के रिश्वत की बात है जबकि यह वसूली का मामला ज्यादा लगता है। खबर में अंदर बताया गया है कि पूरा मामला 25 करोड़ का था, 18 करोड़ पर सौदा करने की बात थी और आठ करोड़ समीर वानखेड़े (एनसीबी जोनल प्रमुख) को जाना था। जोनल प्रमुख को आठ करोड़ जाना था तो बाकी के 10 करोड़ किसे जाने थे? उनके ऊपर वालों को या नीचे वाले को। वैसे भी मांग तो 25 करोड़ की थी और सौदा 18 करोड़ में होता तो 8 करोड़ भी कम होता और जो राशि बचती है वह ऊपर के लिए भी हो सकती है। यह सब ख़बर से नहीं लगता है। टाइम्स ने आज इस ख़बर के साथ एक्सप्रेस की कल की ख़बर भी छापी है जिसमें कहा गया था कि ऐसे मामलों में सजा न हो और सरकार इस गिरफ्तारी से अलग लगे।
अब इस आरोप की पुष्टि अकेले शाहरूख खान कर सकते हैं और तब जनता मान भी लेगी। इस लिहाज से बीजेपी की छवि काफी कुछ शाहरूख खान के हाथ में है। शाहरूख अगर पुष्टि कर दें तो मामला मीडिया और प्रचारकों के संभाले नहीं संभलेगा। सत्तारूढ़ पार्टी द्वारा सरकारी अधिकारियों के जरिए इस तरह की वसूली के आरोप पुराने हैं और वह गुजरात मॉडल का हिस्सा रहा है। राकेश अस्थाना का मामला इसी से जुड़ा था और सरकार ने जिस ढंग से उन्हें बचाया और उनका पुनर्वास किया उससे इन आरोपों को दम मिलता है। अब एनसीबी के खंडन में कुछ नहीं है। बात तो लगभग साफ़ है और मामला आस्था की तरह है। जो नहीं मानते वो न मानें। शाहरूख खान सरकार से कितना पंगा लेंगे यह उन्हें तय करना है। लेकिन फ़िल्म उद्योग को और तमाम सक्षम लोगों को उनका साथ देना चाहिए ताकि वे सत्य का साथ दे (सकें) और जो भी मामला है वह खुले। पर मुझे इसका यक़ीन नहीं है। वैसे तो मामला बहुत साफ़ है लेकिन भक्त लोग नहीं मानेंगे। उनके लिए सादे कागज पर बिना किसी मोहर के जारी बयान ज़्यादा महत्वपूर्ण है।
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