‘उत्तर-सत्य’ के इस युग में असत्य का बोलबाला होना स्वाभाविक है, लेकिन कोई यह उम्मीद नहीं करता कि देश के इतिहास को लेकर सरकार भी कल्पित घटनाओं को ‘प्रमाण’ की तरह पेश करेगी। 24 मई को गृहमंत्री अमित शाह ने जिस सेंगोल को अंग्रेज़ों से सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में पेश किया था, वह पूरा क़िस्सा ही संदिग्ध हो गया है। इसमें शक़ नहीं कि सेंगोल को तमिलनाडु के एक अधीनम (मठ) से सेंगोल दिया गया था, लेकिन यह अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन के हाथों पं.नेहरू को सौंपा गया था, इसका कोई दस्तावेज़ी प्रमाण नहीं है।
अमित शाह ने प्रेस कान्फ्रेंस में बताया था कि ‘जब लॉर्ड माउंटबेटन ने पंडित नेहरू से सत्ता के हस्तांतरण की प्रक्रिया के बारे में पूछा था तो सी. राजगोपालचारी ने सेंगोल की परंपरा के बारे में बताया था।’ गृहमंत्री ने इस पर अचरज भी जताया था कि इतने दिनों तक ‘सेंगोल के महत्व’ को छिपाया गया और इसे एक ‘महज़ छड़ी’ बताकर इलाहाबाद के म्यूज़ियम में रख दिया गया। उन्होंने बताया था कि जब नया संसद भवन देश को समर्पित होगा तो पीएम मोदी तमिलनाडु से आये अधीनम से सेंगोल को स्वीकार करेंगे और स्पीकर के आसन के पास स्थापित करेंगे।
गृहमंत्री के ऐलान के बाद बहुत लोगों ने इतिहास की किताबें खँगालीं, पर माउंटबेटन के हाथों नेहरू जी के सेंगोल स्वीकारने की घटना का कहीं भी ज़िक्र नहीं मिला। माउंटबेटन गवर्नर जनरल थे जिनके हर सार्वजनिक कार्यक्रम का प्रामाणिक लेखा-जोखा रखा जाता था। लेकिन कहीं भी ऐसे किसी आयोजन का ज़िक्र नहीं मिला जिसमें ‘सेंगोल के ज़रिए सत्ता हस्तांतरण’ हुआ हो। न इसकी कोई तस्वीर भी उपलब्ध है।
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‘द हिंदू’ ने इस पूरे प्रकरण पर जो स्टोरी छापी है वह बताती है कि इस संबंध में सरकार की ओर से जो भी प्रमाण दिये जा रहे हैं वो बीते एक दो सालों में लिखे गये ब्लॉग या लेख हैं। यहाँ तक कि ‘व्हाट्सऐप हिस्ट्री’ से भी प्रमाण खोजे जा रहे हैं। हद तो ये है कि तमिल मैगज़ीन ‘तुग़लक’ में छपे जिस आर्टकिल के बाद सेंगोल की चर्चा शुरू हुई वह भी 2021 में लिखा गया था।
दरअसल, आज़ादी के समय पूरा देश ही उत्साहित था। हर धर्म के लोगों ने नयी सरकार को आशीर्वाद दिया था। इसी क्रम में पं.नेहरू को तमिलनाडु के मठ की ओर से ‘निजी रूप’ में यह सेंगोल दिया गया था। यह न्यायप्रिय शासन के लिए शुभकामना थी। न यह सत्ता हस्तांतरण का प्रतीक था और न इसका कोई रिकॉर्ड है। यह वैसा ही था जैसे कि परीक्षा का परिणाम आने के बाद कोई मंदिर जाता है या घर में ही पूजा करता है।
दरअसल, 14 अगस्त 1947 संविधान सभा के अध्यक्ष बतौर डॉ.राजेंद्र प्रसाद ने ऐलान किया था कि ‘संविधान सभा ने सत्ता अपने हाथ में ले ली है और वह माउंटबेटन को पहला गवर्नर जनरल नियुक्त करती है।’ यही सत्ता हस्तांतरण का औपचारिक ऐलान था। यह सब भारत की जनता को सर्वोच्च मानकर किया गया था न कि किसी दैवीय शक्ति को। संविधान का पहला वाक्य- ‘हम भारत के लोग’- इसी की अभिव्यक्ति था।
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सरकार सेंगोल को लेकर जिस तरह का उत्साह दिखा रही है, उससे यह भी संदेह होता है कि कहीं वह लोकतांत्रिक सत्ता के ऊपर धर्मसत्ता को स्थापित करने का संदेश तो नहीं देना चाहती? सेंगोल को ऐन लोकसभा अध्यक्ष के आसन के पास स्थापित करने का और क्या मतलब हो सकता है?
जिस तरह गोदी मीडिया सेंगोल की शीर्ष पर स्थापित ‘नंदी’ के गुण गा रहा है, उससे तो लगता है जैसे भारत का नया ‘प्रतीक चिन्ह’ खोज लिया गया है जिसके सामने अशोक की लाट के शेरों वाला राष्ट्रीय प्रतीक पीछे रह गया है। राजकाज और आर्थिक मोर्चे पर बुरी तरह विफल मोदी सरकार चुनावी साल में ऐसे ही धार्मिक प्रतीकों के ज़रिए जनता का ध्यान भटकाना चाहती है। लेकिन मोदी सरकार इसके ज़रिए जो ‘धार्मिंक समांतर’ रच रही है, उसमें दलित या आदिवासी के लिए कोई जगह नहीं हो सकती, यह भी स्पष्ट है। अगर दलित पृष्ठभूमि से आये राष्ट्रपति रामनाथ कोविद को शिलान्यास से और आदिवासी महिला राष्ट्रपति को उद्घाटन समारोह से दूर रखा गया है तो इस आरोप में बल मिलना स्वाभाविक है।
यह भी लगता है कि सेंगोल के ज़रिए बीजेपी तमिलनाडु की राजनीति में जगह बनाने की भी कोशिश करना चाहती है जो यूँ द्रविड़ राजनीति और संस्कृति का केंद्र है। यह संयोग नहीं कि गृहमंत्री अमित शाह ने अपनी प्रेस कान्फ्रेंस में तमिल संस्कृति में सेंगोल के महत्व को रेखांकित किया था। यही नहीं, दूसरे ही दिन केंद्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने चेन्नई में प्रेस कान्फ्रेंस की और संसद में सेंगोल की स्थापना को तमिलनाडु के गौरव से जोड़ा।
वैसे, राजनीतिक ज़रूरतों के लिहाज से क़िस्से गढ़ने की कोशिश आरएसएस और बीजेपी के अभियान का हिस्सा रहा है। इस समय देश की तमाम दलित-वंचित जातियों के ‘पूर्वजों का गौरवगान’ करने वाली किताबें छापने की बड़ी परियोजना आरएसएस से जुड़े लेखक चला रहे हैं जो बताती हैं कि जातिप्रथा और छुआछूत ‘मुग़लों की देन’ है। हिंदू धर्म में इसकी जगह नहीं थी। ये किताबें इतिहास कि किसी कसौटी पर ख़री नहीं उतरतीं लेकिन ‘विराट हिंदू एकता’ के लिए इस गढ़ंत का सहारा लिया जा रहा है।
इसी तरह कर्नाटक में टीपू सुल्तान के हत्यारों के रूप में दो वोक्कालिगा सरदारों को बीजेपी ने जन्म दे दिया जिनका इतिहास में कोई ज़िक्र नहीं है। लेकिन टीपू की धर्मनिरपेक्ष और अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ने वाले एक महान योद्धा की छवि ध्वस्त करना उसके ‘मुस्लिम विरोधी अभियान’ के लिए ज़रूरी था। इसके लिए एक नाटक लिखा गया और उसमें बताया गया कि कैसे दो गौड़ा सरदारों ने टीपू सुल्तान की हत्या की थी। यह नाटक इस बड़े पैमाने पर खेला गया कि बहुत से लोग इसे सच भी समझने लगे हैं।
हैरानी की बात ये है कि भारत का ध्येय वाक्य ‘सत्यमेव जयते’ है और यह नयी संसद के प्रवेश द्वार पर भी लिखा गया है, लेकिन सरकार इसके उद्घाटन समारोह में ही झूठ का सहारा ले रही है। कहीं ये आज़ादी की लड़ाई से अलग रहने और अंग्रेज़ों का साथ देने के आरएसएस के इतिहास से उपजी कुंठा का तो नतीजा नहीं जो अमृतकाल में कुछ ज़्यादा ही बेचैन कर रही है।
(लेखक कांग्रेस से जुड़े हैं)
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