सन 1980 के दशक में देश में शांति-व्यवस्था और प्रगति पर गम्भीर हमले हुए। साम्प्रदायिक ताकतों के हाथ एक नया औज़ार लग गया। वे देश के पूजास्थलों के कथित अतीत का उपयोग साम्प्रदायिकता भड़काने के लिए करने लगे। लालकृष्ण आडवाणी ने रथयात्रा निकाली। उनकी मुख्य मांग यह थी कि जिस स्थल पर पिछले पांच सदियों से बाबरी मस्जिद खड़ी थी ठीक उसी स्थल पर एक भव्य राम मंदिर का निर्माण किया जाना चाहिए। इस मुद्दे पर बढ़ती कड़वाहट और तनाव के मद्देनज़र संसद ने एक नया कानून पारित किया जिसके तहत पूजास्थलों की जो प्रकृति 15 अगस्त 1947 को थी, उसे बदला नहीं जा सकेगा और वही बरकरार रहेगी।
संभल मस्जिद, अजमेर दरगाह - आखिर हम कितने पीछे जाएंगे?
- विचार
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- 6 Dec, 2024

आज हमें क्या करना चाहिए? क्या हमें हर मस्जिद को खोदकर देखना चाहिए कि उसके नीचे क्या कोई मन्दिर है? या फिर हमें पंडित जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में ‘आधुनिक मन्दिरों’ का निर्माण करना चाहिए।
बाबरी मस्जिद मामले में अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को उचित ठहराया और यह भी कहा कि भविष्य में देश में शांति बनाए रखने की दिशा में यह कानून एक महत्वपूर्ण कदम है। सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने को अपराध बताया और यह भी कहा कि इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि बाबरी मस्जिद के नीचे कोई मन्दिर दबा हुआ है। ‘सबरंग’ में प्रकाशित एक लेख में कहा गया है कि-
“एक शीर्ष पुरातत्ववेत्ता प्रोफेसर सुप्रिया वर्मा, जो सन 2000 के दशक में बाबरी मस्जिद की भूमि पर हुई पुरातात्विक खुदाई में, एक अन्य पुरातत्वविद जया मेनन के साथ पर्यवेक्षक थीं, ने एक विवादास्पद बयान में कहा था कि मस्जिद के नीचे कोई मन्दिर तो था ही नहीं, बल्कि अगर हम बारहवीं सदी से और पीछे जाकर चौथीं या छठवीं सदी अर्थात गुप्तकाल की बात करें तो ऐसा लगता है कि वहां एक बौद्ध स्तूप था।”