6 दिसंबर 1992 से आगे केंद्र में बीते 32 सालों में 11 सरकारें बनीं। इतनी ही सरकारें उत्तर प्रदेश में भी बनीं। दिल्ली और यूपी में बीजेपी के नेतृत्व में छह-छह सरकारें रहीं। जबकि, केंद्र में वीपी सिंह की और यूपी में मायावती की सरकार में बीजेपी शामिल भी रही। 2019 में राम मंदिर पर फैसला आने और 2024 में राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह होने के बाद भी ‘बाबरी मस्जिद’ जिन्दा है। जमींदोज होकर भी जिन्दा है। विवादित स्थान से स्थानापन्न होने के बावजूद किसी नए स्थान पर बाबरी मस्जिद प्रतिष्ठित नहीं हुई है। फिर भी यह जिन्दा है!
‘बाबरी मस्जिद’ जिन्दा रखने वाली ताक़तें सिर्फ एक तरफ़ नहीं हैं। ‘बाबरी मस्जिद’ के जिन्दा होने के एक से बढ़कर एक सबूत मिल रहे हैं। संभल ताजा मामला है जहां मस्जिद में मूर्तियां ढूंढ़ने की कवायद में सर्वे हो रहे हैं। देशभर में ऐसे 12 मामले हैं। ये तादाद तेजी से बढ़ी है और बढ़ती जा रही है। बदायूं का शम्सी जामा मस्जिद, लखनऊ की टीले वाली मस्जिद, धार की कमल मौला मस्जिद, अजमेर शरीफ दरगाह, चिकमंगलूर की बाबा बुदनगिरी दरगाह, कुतुबमीनार, मेंगलुरू की जुम्मा मस्जिद, ज्ञानवापी मस्जिद, मथुरा की शाही ईदगाह मस्जिद, संभल की जामा मस्जिद, फतेहपुर सीकरी की शेख सलीम चिश्ती की दरगाह वो नाम हैं जहां अदालत तक बात पहुंच चुकी है।
अब अदालत तक बात पहुंचने का मक़सद विवाद के हल निकलने की उम्मीद नहीं होती। नये-नये वितंडे सामने का आने का खौफ होता है। उदाहरण के तौर पर संभल में एएसआई से सर्वे कराने की बात मान लेने के बाद पहले दिन सर्वे हुआ। सबकुछ शांतिपूर्ण था। मानो शांति बर्दाश्त न हो रही हो। अगले दिन सुबह छह बजे सर्वे की टीम नारेबाजों के साथ पहुंच जाती है। सुबह सवेरे मस्जिद के आसपास का इलाका छावनी में बदला जा चुका होता है। उकसावेपूर्ण नारे का प्रतिकार करने के लिए दूसरी ओर भी कट्टरपंथी ताकतें सक्रिय हो जाती हैं। पथराव और गोली चलने लग जाती है। पुलिस को भी अपना ‘बहादुरी’ दिखाने का मौका मिल जाता है। मामला पूरी तरह से सांप्रदायिक रंग ले चुका होता है।
संभल को मॉडल बनाने की कोशिशें भी हो रही हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने संभल और बांग्लादेश की घटना को एक जैसा बताते हुए इन घटनाओं की तुलना बाबर के सिपहसालार से कर दी। यानी बाबरी मस्जिद से मसले को जोड़ दिया। सबका डीएनए एक बताते हुए आज के मुसलमानों को मुगलों से भी जोड़ने की चालबाजी योगी ने दिखला दी। संभल में बाबरी मस्जिद ढूंढ़ने की कोशिश ही बतलाती है कि बाबरी का विध्वंस भले ही हुआ हो 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में, लेकिन वास्तव में हर जगह बाबर और बाबरी मस्जिद को ही खोजा जा रहा है।
अदालत की भूमिक भी सवालों के घेरे में
देश के सांप्रदायिक ताने-बाने पर प्रहार की कोशिशों के लिए उर्वर भूमि देने का काम राजनीतिक दल तो कर ही रहे हैं जो धर्म का लगातार इस्तेमाल कर रहे हैं। बल्कि, इससे आगे अदालत की भूमिका भी मंदिर-मस्जिद विवादों में एकपक्षीय होकर सामने आयी है। इसकी शुरुआत भी बाबरी मस्जिद-राम मंदिर विवाद को हल करने के दौरान अदालत ने ही की थी। देश के इतिहास में पहली बार सर्वोच्च न्यायालय ने तथ्यों के बजाए आस्था के आधार पर इस विवाद को हल करने की तरकीब निकाली थी।
रिटायर होने से पहले तत्कालीन और अब पूर्व चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया ने खुलासा किया कि ईश्वर से आदेश लेकर उन्होंने राम मंदिर विवाद का फ़ैसला लिखा था। फ़ैसला अगर ईश्वर के बजाए अल्लाह से पूछ कर किया गया होता तो शायद अलग हो सकता था।
बाबरी मॉडल अब संभल मॉडल बना
बाबरी मॉडल अब संभल मॉडल में बदल गया है। अदालत में जाना है। सर्वे का ऑर्डर लाना है। सर्वे के दौरान मीडिया में हल्ला मचाना है। इस बाबत सामग्री भी मीडिया को उपलब्ध कराना है। मसलन, अगर सर्वे की रिपोर्ट या फिर विजुअल डॉक्यूमेंट गोपनीय रखनी है तो उसे अलग-अलग तरीक़ों से लीक कर देना ताकि बढ़-चढ़कर दावे किए जा सकें और अदालत के समांतर मीडिया ट्रायल भी चले। ऐसा करते हुए सांप्रदायिक सौहार्द को जबर्दस्त चोट पहुंचाना राजनीतिक लोगों का मक़सद हो जाता है जिसके सियासी फायदे उन्हें मिलते हैं। मूल मुद्दों से ध्यान भटका दिया जाता है। फिजूल के विवादों में उलझा दिया जाता है। हिन्दुत्व का डंका पीटने के अवसर के तौर पर इसका जहां इस्तेमाल होता है वहीं इस्लामिक कट्टरपंथियों को उकसाया जाता है कि वे भी धार्मिक कट्टरता का इजहार करें।
बाबरी मॉडल का न तो अदालत के फ़ैसले से अंत हो सका। और, न ही संभल मॉडल को जन्म देने के लिए सुप्रीम कोर्ट को अपनी ही अवमानना के लिए कभी भुलाया जा सकेगा। अदालत, सरकार, पुलिस-प्रशासन सभी की भूमिका अब सवालों में है। समाज में व्यापक शांति, धार्मिक सद्भाव और भाईचारा के मक़सद को ही पीछे छोड़ दिया गया है। यह संविधान सम्मत आचरण क़तई नहीं है। संविधान के आईने में ऐसे आचरणों पर सवाल भी उठेंगे और भंवर में फंसती जा रही भाईचारगी के लिए कोशिशों के अभाव को भी चिन्हित किया जाएगा। क्या कभी जिम्मेदार लोग इस बात को समझ पाएंगे? बाबरी मस्जिद विध्वंस के 32 साल बाद यह सवाल बहुत मौजूं हो गया है।
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