पंजाब में इस वक़्त यह चर्चा भी चल रही है कि ‘पीपुल्स महाराज’ कैप्टन अमरिंदर सिंह ने क्या जनता का समर्थन भी खो दिया है? ‘पीपुल्स महाराजा’ खुद कैप्टन अमरिंदर सिंह की बायोग्राफ़ी का शीर्षक है। पंजाब कांग्रेस विधायक दल की बैठक में 80 में से 78 विधायकों का शामिल होना क्या इस बात का संकेत माना जा सकता है कि अब विधायक या जनता उनके साथ नहीं हैं? क्या अब कैप्टन इतना अपमानित होने के बाद भी कांग्रेस में रहेंगे? उस प्रदेश अध्यक्ष के साथ जिनकी वजह से उनकी मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी या फिर क्या अब वे उस कांग्रेस आलाकमान का आदेश मानेंगे जिनके साथ उनके 50 साल से ज़्यादा पुराने रिश्ते रहे हैं।
राजीव गांधी सबसे पहले उन्हें कांग्रेस में लाए थे, और उनके कहने पर 1977 में पटियाला से लोकसभा का चुनाव भी लड़ा लेकिन हार गए। फिर 1980 में वहीं से सांसद बने मगर 1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टार के विरोध में कांग्रेस छोड़ दी और अकाली दल में शामिल हो गए। बाद में अकाली दल भी छोड़ कर खुद की पार्टी बनाई।
फिर कैप्टन के उन संकेतों को समझने की ज़रूरत है जिनमें उन्होंने कहा कि राजनीति में मेरे बहुत से दोस्त हैं और मेरे विकल्प खुले हुए हैं लेकिन सवाल है कि उनके पास क्या विकल्प हैं? कांग्रेस छोड़कर क्या वह बीजेपी के साथ जाने के लिए तैयार हैं या फिर अकाली दल के साथ हाथ मिला सकते हैं? उन पर अक्सर अकाली नेताओं के साथ नरम रुख अपनाने के आरोप लगते रहे हैं या फिर वो कांग्रेस तोड़कर और छोड़कर अपनी नयी पार्टी बनाने का फ़ैसला भी कर सकते हैं?
कैप्टन अमरिंदर के नवजोत सिंह सिद्धू के ख़िलाफ़ बयान और सिद्धू को पाकिस्तान के साथ रिश्ता जोड़ने की बात करना और फिर बीजेपी नेताओं का कैप्टन को राष्ट्रवादी नेता मानने के बयान क्या पंजाब में भविष्य की राजनीति का संकेत दे रहे हैं? पिछले कुछ वक़्त में पंजाब की राजनीति में कई अहम बदलाव हुए हैं उनमें बरसों पुरानी अकाली दल और बीजेपी की दोस्ती टूटना, आम आदमी पार्टी का प्रदेश में उभरना और फिर बीजेपी से सिद्धू का छोड़कर जाना और कांग्रेस में शामिल होना। इन घटनाओं से भविष्य के कुछ समीकरणों का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
पंजाब में अगले साल फ़रवरी में चुनाव होने वाले हैं। सिद्धू की वजह से कुर्सी छोड़ने वाले कैप्टन क्या कभी चाहेंगे कि सिद्धू के नेतृत्व में वहां फिर से कांग्रेस की सरकार बने और कांग्रेस आलाकमान से जिस कदर वो खुद को अपमानित महसूस कर रहे हैं, उसमें उनकी मंशा होगी कि अब पंजाब में कांग्रेस की सरकार किसी हाल में ना बने।
बीजेपी के दो बड़े राजनीतिक विरोधी हैं - पहला सिद्धू, जो नाराज़ होकर पार्टी छोड़ गए और दूसरा अकाली दल ने किसान आंदोलन के बहाने से साथ छोड़ दिया तो बीजेपी ना तो अगली बार अकाली दल की सरकार चाहेगी और ना ही सिद्धू के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सरकार।
राजनीतिक जानकारों की बात मानें तो आम आदमी पार्टी वहाँ लगातार मज़बूत तो हो रही है लेकिन फ़ुलहाल सरकार बनाने की स्थिति में नहीं दिखती। तो क्या यह अटकल बेवजह है कि चुनाव के बाद ज़रूरत पड़ी तो वह कांग्रेस के साथ हाथ मिला सकती है, जैसा उसने दिल्ली में किया था या फिर बीजेपी अमरिंदर को प्रत्यक्ष तौर पर या पीछे से समर्थन देकर उनकी सरकार बनाने में मदद कर सकती है क्योंकि खुद बीजेपी इस वक़्त पंजाब की सबसे कमज़ोर पार्टी है और अमरिंदर के साथ वो अपनी ताकत बढ़ा सकती है।
अब राजनीति में पीछे से चल रहे घटनाक्रम पर नज़र डालते हैं। कांग्रेस में मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और सिद्धू के बीच चल रही क़लह के दौरान बीजेपी की नज़र कैप्टन पर रही। अब कैप्टन ने पंजाब के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया है तो शायद इस रणनीति का असर जल्दी दिखाई दे। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता का कहना है कि संघ हाईकमान ने बीजेपी को कैप्टन को अपने खेमे में शामिल करने के लिए हरी झंडी दे दी है, अब इस पर फ़ैसला कांग्रेस के नेता और मुख्यमंत्री रहे कैप्टन सिंह को ही करना है।
इस मसले पर काफ़ी समय से मंथन चल रहा था और कई नेता कैप्टन के साथ लगातार संपर्क में रहे हैं। पार्टी हाईकमान ने इशारा किया है कि कैप्टन के लिए उसके दरवाज़े खुले हुए हैं।
बीजेपी नेताओं का मानना है कि यदि अमरिंदर सिंह को सम्मानजनक राजनीतिक वापसी का भरोसा दिलाया जाए तो वो कांग्रेस छोड़ सकते हैं। आरएसएस का मानना है कि इस वक़्त बीजेपी को सिर्फ़ अपने राजनीतिक फ़ायदे को देखना नहीं है बल्कि कैप्टन जैसी राष्ट्रवादी ताक़तों के साथ आने से उनके मिशन को ज़्यादा मज़बूती मिलेगी।
किसानों के आंदोलन के मसले पर अकाली दल के बीजेपी से अलग हो जाने और कांग्रेस में सिद्धू बनाम कैप्टन की राजनीतिक जंग के बाद से ही इस पर सलाह मशविरा और राजनीतिक कोशिशें चल रही हैं। कैप्टन किसान आंदोलन को सुलझाने में भी मदद कर सकते हैं।
संघ हाईकमान कैप्टन अमरिंदर सिंह के फौजी इतिहास और उनके पटियाला राजघराने से रिश्ते को अहम मानता है और मध्य प्रदेश के ग्वालियर में सिंधिया घराने की तरह का सम्मान देता है। आरएसएस कैप्टन अमरिंदर को राष्ट्रवादी ताक़तों में जोड़ कर देखता है। इसलिए पिछले दिनों संघ हाईकमान ने अपनी तरफ़ से साफ़ कर दिया है कि उसे कैप्टन को बीजेपी के साथ जोड़ने में कोई परेशानी नहीं है लेकिन अंतिम फ़ैसला बीजेपी नेताओं और कैप्टन को करना है।
एक ज़माने तक बीजेपी नेता वाजपेयी-आडवाणी के अकाली दल नेता सरदार प्रकाश सिंह बादल से अच्छे रिश्ते रहे और दोनों दल कांग्रेस विरोधी राजनीति की वजह से साथ चलते रहे। साल 2017 के विधानसभा चुनावों और फिर 2019 के लोकसभा चुनावों में भी अकाली दल के ख़राब प्रदर्शन के बावजूद बीजेपी ने रिश्ता नहीं तोड़ा। इसकी एक बड़ी वजह संघ का अकाली दल को साथ रखने पर ज़ोर था। जब किसान बिलों के विरोध में अकाली नेता और सुखविंदर सिंह की पत्नी हरसिमरत कौर ने मोदी सरकार से इस्तीफ़ा दे दिया और समर्थन वापस ले लिया तो फिर अलग-अलग रास्ते पर जाना ही पड़ा।
संघ हाईकमान को लगता है कि कैप्टन के किसी भी तरह से जुड़ने से बीजेपी को पंजाब में अपने पाँव मज़बूत करने मे मदद तो मिलेगी ही, इससे कांग्रेस को वहाँ कमजोर करना आसान होगा।
पिछले काफ़ी समय से संघ राष्ट्रवादी ताक़तों को अपने साथ रखने की कोशिश करता रहा है। इसमें पंजाब में अकाली दल तो महाराष्ट्र में शिवसेना शामिल है और इसके साथ ही आरएसएस ओडिशा में बीजेडी के नवीन पटनायक को साथ रखना चाहता है। महाराष्ट्र में भी जब शिवसेना ने बीजेपी का साथ छोड़कर एनसीपी और कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बना ली, तब दोनों पार्टियाँ अलग हुईं। आरएसएस के दरवाज़े अब भी शिवसेना और अकाली दल के लिए खुले हुए हैं, लेकिन राजनीतिक फ़ैसलों के लिए वो अंतिम निर्णय का अधिकार बीजेपी पर ही छोड़ता है।
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