“ जो भी हो, हार को स्वीकार करना ही पड़ता है। इसे दूर करने का कोई प्रयास नहीं होना चाहिए। बहरहाल, पूरे अभियान का बारीकी से विश्लेषण किया जाना चाहिए ताकि भविष्य में नुकसान से बचा जा सके”- जनसंघ दिनों के सिद्धांतकार पंडित दीनदयाल उपाध्याय के इस कथन के साथ संघ के मुखपत्र कहे जाने वाले ‘द आर्गनाइज़र’ ने कर्नाटक चुनाव परिणाम की समीक्षा करते हुए वह संपादकीय छापा है जिसकी काफ़ी चर्चा है। ‘कर्नाटक रिज़ल्ट्स: अपार्चून टाइम फॉर इंट्रोस्पेक्शन’ (कर्नाटक परिणाम: आत्मनिरीक्षण का अवसर) शीर्षक से छपे प्रफुल्ल केतकर के इस लेख में कुछ ऐसा है जिसमें 2024 में बीजेपी की सफलता को लेकर आशंका के तौर पर देखा जा रहा है, लेकिन वास्तव में यह आरएसएस की आशंकाओं की गठरी है जिसके भरे चौराहे खुल जाने का ख़तरा मँडरा रहा है।
मीडिया के एक हिस्से में 23 मई को प्रकाशित इस संपादकीय का एक वाक्य बीच बहस है कि ‘2024 के चुनाव में केवल प्रधानमंत्री मोदी का करिश्मा और हिंदुत्व की विचारधारा ही काम नहीं करेंगे।’ यानी 2024 में सफलता के लिए कुछ और की ज़रूरत है। यह ‘कुछ और’ क्या है, इसके बारे में लेख ख़ामोश है। लेकिन यह लेख जिन बातों को लेकर मुखर है वह इस बात की पोल खोल रहा है कि कांग्रेस को कर्नाटक में मिली सफलता और आर्थिक-सामाजिक न्याय के प्रश्न को विपक्षी दलों की एकता की धुरी बनता देख संघ परेशान है। वह अच्छी तरह जानता है कि अगर यह राह आगे बढ़ी तो 2025 में उसकी स्थापना का सौ साला जश्न फ़ीक़ा पड़ सकता है।
हेडगेवार के बाद आरएसएस की कमान संभालने वाले गोलवलकर ने जनसंघ की स्थापना के समय कहा था कि ‘यह गाजर की पुंगी है, बजी तो बजी वरना खा जाएँगे।’ इसमें शक़ नहीं कि जनसंघ आरएसएस के लिए पूरी तरह पुंगी ही रहा जिसे वह जैसे चाहे बजाता रहा, लेकिन मोदी काल में इस पुंगी का आकार इतना विशाल हो गया कि बजाने के लिए आरएसएस का मुँह छोटा नज़र आने लगा है। प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने संगठन की जगह जिस तरीक़े से ख़ुद को केंद्र में स्थापित किया, उसने भी आरएसएस के महत्व को जनमानस की नज़र में कमज़ोर किया है। यह देखना दिलचस्प है हिंदुत्व पर सवारी करके ही नरेंद्र मोदी ने यह सफलता पाई है लेकिन संघ की नज़र में ये दोनों आगे की सफलता के लिए नाकाफ़ी हो चले हैं।
आरएसएस का यह अहसास इसलिए भी गहराया है कि कर्नाटक में प्रधानमंत्री मोदी ने हिंदुत्व की विचारधारा के साथ बजरंगबली को भी दाँव पर लगा दिया था, फिर भी बुरी हार का सामना करना पड़ा। यानी कुछ ऐसा है जो धर्म और नफ़रत के मारक मेल को बेअसर कर सकता है जबकि इसी फ़ार्मूले पर चलते हुए बीजेपी फ़र्श से अर्श तक पहुँची है।
इस संपादकीय को ध्यान से पढ़ने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि ‘वह’ वास्तव में क्या है। लेख में मज़बूत क्षेत्रीय नेतृत्व के अभाव आदि को लेकर कुछ बातें तो बस यूँ ही हैं क्योंकि ‘एकचालकानुवर्तित’ शिखर के सिद्धांत पर चलने वाली विचारधारा में क्षेत्रीय नेतृत्व की बहुत गुंजाइश होती भी नहीं। असल बात उसका यह कहना है कि कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के पीछे जाति आधारित गोलबंदी और मुस्लिमों और ईसाईयों का खुला समर्थन था जो ‘परेशान करने वाला’ है। यह कर्नाटक में मिली हार को न पचा पाने का ही नतीजा है कि लेख मतदाताओं के ‘वोटिंग बिहेवियर’ पर भी सवाल उठाने की बात करता है। हैरानी की बात तो ये है कि उत्तर तथा दक्षिण में वोटिंग पैटर्न में फ़र्क़ को वह ‘राष्ट्रीय एकता के लिए ख़तरनाक’ मान रहा है।
वैसे, अगर मुस्लिम और ईसाई बीजेपी के ख़िलाफ़ वोट देते हैं और कांग्रेस का समर्थन कर रहे हैं तो यह आरएसएस-बीजेपी की अल्पसंख्यक विरोधी नीति और ‘सेक्युलर संविधान’ के प्रति कांग्रेस की प्रतिबद्धता का स्वाभाविक परिणाम है। वैसे, आरएसएस को इसमें दिक़्क़त भी नहीं है अगर इसकी प्रतिक्रिया में विराट हिंदू एकता बन जाए जिसे वह सत्ता के शिखर पर बने रहने की गारंटी मानता है।
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दिक़्कत ये है कि यह ‘विराट हिंदू एकता’ वास्तविक अर्थों में ‘सवर्ण एकता’ भर रह जाती है। पिछड़ी और दलित जातियों का समर्थन पाने क लिए बीजेपी को चुनाव दर चुनाव नये-नये तरीके की सौदेबाजी करनी पड़ती है ताकि विचारधारा के स्तर पर ब्राह्मणवादी वर्चस्व कायम रहे।
बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग अपने मूल में यही है। यह संयोग नहीं कि उत्तर प्रदेश में पिछड़ी जाति के केशव प्रसाद मौर्या के जिस चेहरे को सामने करके 2017 में बीजेपी ने यूपी का विधानसभा चुनाव लड़ा था, वह जीत के बाद पीछे कर दिया गया और ‘क्षत्रिय कुल भूषण’ योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप दी गयी। बीजेपी के ‘समरस समाज’ का अर्थ वर्णव्यवस्था का अभिनंदन है जो दीनदयाल उपाध्याय जैसे चिंतकों के मुताबिक ‘ऐसी जैविक एकता का आधार है जो राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को जारी रख सकती है।’
दिक्कत ये है कि दलित और पिछड़ी जातियाँ दीनदयाल उपाध्याय की परिभाषा की जगह डॉ.आंबेडकर की परिभाषा से ज़्यादा प्रभावित हैं जो वर्णव्यवस्था के समूल नाश की बात करते हैं और हिंदू राष्ट्र की अवधारणा को लोकतंत्र के लिए विपत्ति बताते हैं। इस लेख में कर्नाटक की जीत में क्षेत्रवाद के उभार को चिन्हित करते हुए प्रांतों के भाषावार गठन के ख़िलाफ़ डॉ.आंबेडकर की चेतावनी की तो याद दिलाई गयी है लेकिन हिंदू राष्ट्र या जाति व्यवस्था को लेकर बाबा सहेब के विचारों की याद दिलाने की हिम्मत नहीं की गयी है।
संपादकीय कर्नाटक में कांग्रेस की सफलता में जाति आधारित लामबंदी देखता है, लेकिन इसी चुनाव में राहुल गाँधी ने ‘जितनी आबादी, उतना हक़’ का नारा देकर सामाजिक न्याय का एक नया दौर शुरू होने की जो मुनादी की है, उस पर पूरी तरह आँख मूँद लेता है। यहाँ तक कि जातिवार जनगणना या पिछले सामाजिक आर्थिक सर्वे के नतीजों को सार्वजनिक करने की बढ़ती माँग पर भी संपादकीय में चुप्पी है।
इस लेख में यह भी सही नहीं कहा गया है कि पहली बार कर्नाटक चुनाव में बीजेपी को भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना करना पड़ा है। हक़ीक़त तो ये है गोवा, मध्यप्रदेश से लेकर महाराष्ट्र तक में सरकार बनाने-गिराने के खेल में जिस तरह धनबल का इस्तेमाल हुआ है उसने बीजेपी के भ्रष्टाचार में लिप्त होने की कहानी को घर-घर पहुँचा दिया है। महाराष्ट्र में तो ‘पचास खोके-एकदम ओके’ का नारा उसके गले की हड्डी बना हुआ है जिसका मतलब है कि महाविकास अघाड़ी की सरकार गिराने के लिए बीजेपी ने विधायकों को 50 करोड़ रुपये दिये।इस संपादकीय में उत्तर और दक्षिण के वोटिंग पैटर्न में फ़र्क पर चर्चा को जिस तरीक़े से राष्ट्रीय एकता के लिए दिक़्क़त-तलब बताया गया है उस पर भी गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है।
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आरएसएस को इस बात की चिंता नहीं है कि उत्तर में बीजेपी को सफलता दिलाने वाला हिंदुत्व का प्रयोग मूलत: नफ़रत और हिंसा के विचार की सफलता है, उसे चिंता इस बात की है कि दक्षिण के राज्यों में यह सफल क्यों नहीं हो रहा है! गोया राष्ट्रीय एकता तभी सुदृढ़ होगी जब दक्षिण भी इसी तरह नफ़रत और हिंसा के रंग में रँग जाये।
दक्षिणी राज्यों का क्षेत्रीय अस्मिता के प्रति आग्रह संघ की नज़र में हमेशा राष्ट्र निर्माण की राह में बाधा रहा है। इस संदर्भ में एक बार फिर दीनदयाल उपाध्याय का ही विचार जानना महत्वपूर्ण है। दीनदयाल उपाध्याय लिखते हैं-“ संविधान के प्रथम अनुच्छेद के मुताबिक, इंडिया जिसे भारत भी कहा जाता है, वह राज्यों का संघ होगा अर्थात बिहार माता, बंग माता, पंजाब माता, कन्नड़ माता, तमिल माता, सभी को मिला कर भारत माता का निर्माण होता है। यह विचित्र है। हम लोगों ने इन सूबों को भारत माता के अवयवों के रूप में देखा है, न व्यक्तिगत माता के तौर पर। इसलिए हमारे संविधान को संघीय के बजाय एकात्मक होना चाहिए। जनसंघ का मानना है कि भारतीय संस्कृति की तरह भारतवर्ष भी एक है और अविभाज्य है। साझा संस्कृति की कोई भी बात न केवल असत्य है बल्कि ख़तरनाक भी है, क्योंकि वह राष्ट्रीय एकता को कमजोर करती है और विघटनकारी प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित करती है।’ (‘जनसंघज़ प्रिन्सिपल्स एंड पॉलिसीज, जनवरी 25, 1965, पेज 10)
समझा जा सकता है कि कुछ दिन पहले राहुल गाँधी की ओर से भारत को राज्यों का संघ कहे जाने पर बीजेपी के तमाम नेता क्यों नाराज़ हो उठे थे, जबकि यह संविधान का पहला वाक्य है। संघ समझ रहा है कि कांग्रेस की सफलता में संविधान और ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ की जीत छिपी है जिसे वह इतने दिन से बेमानी बनाने में जुटा है। कर्नाटक ने बता दिया है कि 2024 का लोकसभा चुनाव ज़बरदस्त मुकाबले वाला होगा और संघ को केवल हिंदुत्व और मोदी नहीं, ‘कुछ और’ चाहिए! यह कुछ और दरअसल भारत को अधिक नफ़रत और हिंसा में ढकेलने की माँग ही है ताकि उत्तर से दक्षिण तक एक ढंग के शोले भड़कें। ‘एकात्मता’ का अर्थ शायद यही है।
संघ जानता है कि अगर भारत के लोगों ने राहुल गाँधी के कहे मुताबिक ‘नफ़रत के बाज़ार में मुहब्बत की दुकान’ खोल ली तो फिर उसकी दुकान बंद होते देर नहीं लगेगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। कॉंग्रेस पार्टी के प्रवक्ता भी हैं )
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