कोरोना से उपजे एहतियात के चलते दिल्ली, अयोध्या के अपवाद को छोड़कर समूचा देश इस बार रामलीलाओं का आनंद उठाने से चूक जाएगा। हिंदी कैलेण्डर के अश्विन मास के दौरान देश के उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक के अधिकांश भागों में रामलीलाएँ सैकड़ों सालों से एक शानदार, विराट, अभूतपूर्व और मनोरंजक सांस्कृतिक परिघटना होती रही है। शताब्दियों से यह मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के बहुजातीय और बहुनस्लीय विराट चिंतन का प्रतिनिधित्व करती आई है। आज भी इनकी अंतरात्मा लोकपक्षीय बनी रहने के बावजूद आख़िर इनके आँचल पर संकुचित विचारों का भारी-भरकम रंग कैसे चढ़ गया है, यह सोचने की बात है।
रामलीला: संस्कृति की दहलीज़ से साम्प्रदायिकता के शिखर तक
- विचार
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- 17 Oct, 2020

साम्प्रदायिकता की आंधी इतनी प्रबल और आक्रामक थी कि विरोध के उनके स्वर ज़्यादा टिक नहीं सके। ऐसे दौर में जबकि समूचा देश कोविड19 की चपेट में बेतरह त्रस्त है, अखिल भारतीय स्तर पर इनकी प्रस्तुतियों को रद्द करने का निर्णय लिया गया। यह एक सही निर्णय था। तब सवाल उठता है कि अयोध्या और दिल्ली में इन्हें प्रस्तुत किये जाने की अनुमति क्यों दी गई?