दक्षिणपंथी राजनीति झूठ और अफ़वाह के घोड़े पर सवार हो सरपट भागती है। इतिहास को झुठलाना उसके चरित्र का अहम हिस्सा होता है। इतिहास से उसकी शिकायत, और उससे उपजी पीड़ा उसकी आक्रामकता को खाद देती है। और यह महज़ इत्तिफ़ाक़ नहीं है कि साम्यवाद के पतन और उदारवाद के कमजोर होने के बाद दुनिया में दक्षिणपंथ एक बार फिर मज़बूत हो रहा है। भारत भी उससे अछूता नहीं है। वैसे तो दक्षिणपंथ एक विचार है जो विवेक की जगह भावनाओं को ज़्यादा तरजीह देता है। भावनाओं का ज्वार अक्सर इतिहास की नये सिरे से व्याख्या करता है। भारत में भी इतिहास के नवीनीकरण की कोशिश की जा रही है। इस योजना में सावरकर को लेकर एक नया विवाद खड़ा हो गया है। इस विवाद की जड़ में है रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का बयान।
राजनाथ सिंह ने कहा है कि काला पानी की सज़ा काटते हुए सावरकर ने गांधी जी के कहने पर दया याचिका अंग्रेज प्रशासन को दी थी। सावरकर ने कुल चौदह साल जेल में काटे। उनमें से तक़रीबन ग्यारह साल वह सेलुलर जेल में रहे। जहाँ अमानवीय यातनायें दी जाती थीं। विनायक सावरकर के साथ उनके बड़े भाई गणेश सावरकर भी सेलुलर जेल में रहे थे। वो विनायक सावरकर से पहले ही वहाँ भेज दिए गए थे।
सावरकर पर एक आरोप लगता है कि उन्होंने काला पानी की अमानवीय यातना से घबरा कर अंग्रेजों को कुल पाँच (कुछ इतिहासकार सात भी कहते हैं) दया याचिका दायर की थी और माफ़ी माँग कर बाहर आये थे। उनकी जेल से रिहाई सशर्त हुयी थी। उन पर यह भी आरोप है कि उन्होंने जेल से छूटने के लिये न केवल माफ़ी माँगी बल्कि छूटने के बाद अंग्रेज शासन के प्रति विश्वासपात्र बने रहे। ये सारी याचिकाएँ सार्वजनिक हैं और कोई भी उनको पढ़ कर अपना निष्कर्ष निकाल सकता है।
संघ और सावरकर समर्थक तथ्यों को तो नहीं झुठला सकते पर उसकी वे नई व्याख्या करते हैं। उनके मुताबिक़ सावरकर को लगता था कि जेल में ज़िंदगी काटने से अच्छा है कि माफ़ी माँग कर बाहर आ जाना और फिर देश सेवा में लगना। उनके हिसाब से सावरकर ने एक रणनीति के तहत दया याचिका दायर की थी और माफ़ी माँगी थी। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि 1924 में जेल से आज़ाद होने के बाद भी सावरकर अंग्रेजों के विश्वास पात्र बने रहे और जब देश गांधी के नेतृत्व में आज़ादी की लड़ाई लड़ रहा था तब वह गांधी के आंदोलन के ख़िलाफ़ खड़े थे और अंग्रेजों की मदद कर रहे थे। लेकिन अब उन्हीं गांधी का नाम लेकर सावरकर के माफ़ीनामे को सही ठहराने की कोशिश की जा रही है।
हक़ीक़त ये है कि गांधी ने अंग्रेजों से माफ़ी माँग कर बाहर आने की कोई सलाह सावरकर को कभी नहीं दी। इस बात का कोई प्रमाण कहीं नहीं मिलता।
गांधी और सावरकर विचारधारा के दो ध्रुव हैं जो कभी नहीं मिले। गांधी अहिंसा की बात करते थे और सावरकर हिंसा के समर्थक थे। हिंसा के लिये उकसाने और अंग्रेज अफ़सर को मारने के लिए लंदन से हथियार भेजने के आरोप में ही उन्हें काला पानी की सज़ा हुई थी।
यह भी सच है कि मदनलाल धींगरा को एक अंग्रेज अफ़सर की हत्या के लिये उन्होंने ही तैयार किया था। गांधी जहाँ हिंदू- मुसलमान, सबको साथ लेकर चलने की बात करते थे, वहीं सावरकर दो राष्ट्रवाद की बात करते थे। उनके हिंदुत्व में मुसलमानों और ईसाइयों के लिये कोई जगह नहीं थी। गांधी साध्य और साधन, दोनों की पवित्रता की वकालत करते थे जबकि सावरकर साध्य की पूर्ति के लिये किसी भी साधन का इस्तेमाल करने की बात करते थे। वो हिंसा को भी जायज़ ठहराते थे। गांधी ने कभी भी अंग्रेजों से माफ़ी नहीं माँगी। उनका मानना था कि अपने विचारों की सत्यता और सचाई के वास्ते कोई भी क़ीमत चुकानी पड़े, चुकानी चाहिए। इसीलिये गांधी कई बार जेल गए लेकिन बाहर आने के लिये उन्होंने कभी माफ़ी नहीं माँगी।
गांधी 1915 की जनवरी में भारत लौटे थे। तब तक सावरकर को काला पानी के लिये भेजा जा चुका था। इस बीच सावरकर कई बार दया याचिका दायर कर चुके थे। फिर 1917 में भी सावरकर ने दया याचिका दी थी। गांधी तब तक कांग्रेस के सबसे बड़े नेता नहीं बने थे। वह किसानों के आंदोलन की अगुवाई कर रहे थे, देश को समझने के लिए गाँव-देहात की ख़ाक छान रहे थे। इस दौरान उनके सावरकर को दया माफ़ी के लिये सलाह देने का सवाल ही नहीं उठता। हक़ीक़त तो ये है कि सावरकर इस दौरान कांग्रेस पार्टी से नाराज़ थे कि वह उनकी रिहाई के मुद्दे पर चुप थी। 28 अक्टूबर 1916 को अपने भाई नारायण राव को लिखी एक चिट्टी में वह लिखते हैं- “ऐसे समय में जबकि देश भर के अख़बार और सम्मेलन हमारे जैसे क्रांतिकारी राजनीतिक क़ैदियों की रिहाई की मांग कर रहे हैं, कांग्रेस पार्टी के नेता इस बारे में एक शब्द भी नहीं कहते... ऐसे में वे कैसे राष्ट्रीय होने का दावा कर सकते हैं। दुनिया उनसे उम्मीद करती है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अपने नेताओं की रिहाई के लिये प्रस्ताव पास करे।”
सचाई ये भी है कि गांधी और सावरकर में ज़्यादा मेल-मिलाप नहीं था। एक बार लंदन में 1909 में जब गांधी सावरकर से उनके निवास पर मिलने गये थे तब सावरकर झींगा तल रहे थे और सावरकर ने इस बात पर गांधी पर तंज कसा था - ‘वो कैसे अंग्रेजों से लड़ेंगे जब वो मांसाहार नहीं करते‘। दूसरी बार 1927 में रत्नागिरी में गांधी फिर सावरकर से मिले, उनके निवास पर। इस मुलाक़ात का अंत भी बहुत सुखद नहीं था। गांधी ने जब चलने के लिये विदा ली तो उन्होंने सावरकर से पूछा कि ‘उनको इस बात पर आपत्ति नहीं होनी चाहिये कि मुद्दों को सुलझाने के लिये वो कुछ प्रयोग कर रहे हैं।’ इस पर सावरकर ने तल्ख टिप्पणी की- “महात्माजी आप ये प्रयोग राष्ट्र की क़ीमत पर करेंगे।” मौक़े पर मौजूद आर के गवांडे ने यह कह मामले को हल्का करने की कोशिश की कि “गांधी प्लस सावरकर माने स्वराज”।
सावरकर को हमेशा यह लगता रहा कि गांधी मुसलमानों का कुछ ज़्यादा ही तुष्टीकरण करते हैं, वो इसको सही नहीं मानते थे। बाद में कांग्रेस से उनकी नफ़रत इस कदर बढ़ी कि कांग्रेस को हराने और सत्ता से दूर करने के लिये उनकी पार्टी हिंदू महासभा ने जिन्ना की मुसलिम लीग से भी हाथ मिलाने से गुरेज़ नहीं किया।
गांधी ने ज़रूर 27 मई, 1920 को यंग इंडिया अख़बार में एक लेख लिख कर सावरकर बंधुओं की रिहाई की माँग की थी। “भारत सरकार और प्रांतीय सरकारों का मैं शुक्रगुज़ार हूँ कि बहुत सारे राजनीतिक क़ैदियों को शाही दया का लाभ मिला है। लेकिन अभी भी सावरकर बंधु समेत ढेर सारे क़ैदी हैं, उन्हें आज़ाद नहीं किया गया है।” गांधी इस लेख में आगे कहते हैं, “अगर इस बात के कोई सबूत नहीं हैं कि वो सरकार के लिए ख़तरा हैं तो उन्हें छोड़ देना चाहिये, वे पहले ही काफ़ी यातना झेल चुके हैं, वह शारीरिक रूप से भी काफ़ी कमजोर हो चुके हैं, वे अपनी राजनीतिक विचार भी प्रकट कर चुके हैं, ऐसे में वायसराय के पास उन्हें आज़ाद करने के सिवाय कोई चारा नहीं है।” इस पूरे लेख में इस बात का कोई ज़िक्र नहीं है कि वह सावरकर को माफ़ी माँगने के लिये कह रहे हैं या माफ़ी माँगने की सलाह दे रहे हैं। दया याचिका हर क़ैदी का एक वैधानिक अधिकार है। और उसके माँगने में कुछ भी ग़लत नहीं है। इसी भावना से गांधी ने अंग्रेज सरकार से सावरकर समेत सभी क़ैदियों के लिये अपील की थी। वो वैधानिक सवाल उठा रहे थे।
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