पचहत्तरवें स्वतंत्रता दिवस पर लाल क़िले की प्राचीर से अपने सम्बोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की जनता को उन तमाम महत्वपूर्ण फ़ैसलों की जानकारी दी जो उनकी सरकार द्वारा पिछले दिनों लिए गए हैं। इस अवसर पर उन्होंने टोक्यो ओलंपिक से पदक जीतकर लौटे खिलाड़ियों का ताली बजकर सम्मान भी किया। पर सरकार द्वारा लिए गए कई निर्णयों में इस एक जानकारी को साझा करना सम्भवतः छूट गया कि तीस साल पहले स्थापित एक प्रतिष्ठित खेल रत्न पुरस्कार की पहचान को बदलने के लिए एक सौम्य व्यक्तित्व के धनी, आतंकवाद का शिकार हुए एक पूर्व प्रधानमंत्री और सर्वोच्च अलंकरण ‘भारत रत्न‘ से विभूषित व्यक्ति के नाम का चयन क्यों किया गया!
हॉकी के जादूगर और लोगों के दिलों पर राज करने वाले मेजर ध्यानचंद, जिनके नाम पर अब यह पुरस्कार कर दिया गया है, अगर आज हमारे बीच होते तो किस तरह की प्रतिक्रिया देते, कहा नहीं जा सकता पर उनके बेटे और प्रसिद्ध हॉकी खिलाड़ी अशोक ध्यानचंद ने सरकार के फ़ैसले का स्वागत किया है।
उनका ऐसा करना जायज है और जायज यह भी है कि स्वर्गीय राजीव गाँधी के बेटे राहुल और बेटी प्रियंका ने अपने पिता की नामपट्टिका में किये गए सरकारी संशोधन को लेकर सार्वजनिक तौर पर किसी भी तरह का संताप नहीं जताया है। वे अगर ऐसा करते तो उसे हॉकी के क्षेत्र की एक अंतरराष्ट्रीय प्रतिभा और उसके महान योगदान के प्रति घोर असम्मान माना जाता। अब यह भी मानकर चला जा सकता है कि निकट भविष्य या आगे के सालों में नई दिल्ली में कभी कोई ज़्यादा प्रजातांत्रिक सरकार कायम हुई तो वह ‘खेल रत्न पुरस्कार’ के नए नाम के साथ किसी भी तरह की छेड़छाड़ नहीं करेगी।
टोक्यो ओलंपिक में भारत की महिला और पुरुष टीमों के शानदार प्रदर्शन से देशवासियों के साथ-साथ सरकार इतनी ज़्यादा अभिभूत हो गई थी कि प्रधानमंत्री ने सोशल मीडिया पर ट्वीट करके खेल रत्न पुरस्कार का नाम मेजर ध्यानचंद के नाम पर करने की घोषणा कर दी।
ओलंपिक खेलों में सोना बटोरने वाली हॉकी टीम के सूत्रधार रहे मेजर ध्यानचंद का जन्मदिन पहले से ही राष्ट्रीय खेल दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। उनकी शानदार भागीदारी में भारतीय हॉकी टीम ने 1936 के बर्लिन ओलंपिक में हिटलर के जर्मनी की टीम को शिकस्त दी थी। कहते हैं कि अपने देश की टीम की हार से नाराज़ होकर तब हिटलर ने स्टेडियम ही छोड़ दिया था। टोक्यो ओलंपिक में भी भारतीय टीम ने जर्मनी को हराकर ही पदक जीता है पर इस समय नाराज़ होने के लिए बर्लिन में कोई हिटलर उपस्थित नहीं है।
टोक्यो में भारतीय टीमों के शानदार प्रदर्शनों को देखते हुए किसी को यह आपत्ति भी नहीं हो सकती थी कि बजाय एक स्थापित पुरस्कार को मेजर ध्यानचंद के नाम करने के, हॉकी के जादूगर के लिए ‘भारत रत्न’ अलंकरण की घोषणा कर दी जाती। पर वैसा नहीं किया गया।
वर्ष 1991-92 में जब खेल रत्न पुरस्कार की स्थापना की गई थी तब राजीव गांधी हमारे बीच मौजूद नहीं थे। तब उनके नाम पर इस पुरस्कार की स्थापना के पीछे दो कारण बताए गए थे : पहला तो यह कि राजीव गांधी 1982 में देश में आयोजित हुए एशियाई खेलों की आयोजन समिति के एक सक्रिय सदस्य थे। उनकी देखरेख में न सिर्फ़ खेलों का आयोजन ही सफलतापूर्वक हुआ, साठ हज़ार दर्शक क्षमता वाले जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम से लगाकर कई फ़्लाई ओवरों आदि की संरचना ने दिल्ली की तस्वीर ही बदल दी थी। दूसरा कारण यह बताया गया था कि चालीस वर्ष की उम्र में पद सम्भालने वाले राजीव गांधी देश के सबसे युवा प्रधानमंत्री थे।
‘राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार’ के तहत न सिर्फ़ हॉकी बल्कि शतरंज, क्रिकेट, टेनिस, बॉक्सिंग, भारोत्तोलन, शूटिंग, कुश्ती, सहित सभी प्रमुख खेलों में बीते चार सालों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अर्जित उपलब्धियों के लिए योग्य खिलाड़ियों को सम्मानित किया जाता रहा है। पिछले तीस वर्षों में पुरस्कृत कुल 43 खिलाड़ियों में तीन हॉकी के हैं। सोशल मीडिया ट्वीट में पुरस्कार का नाम बदलने का कारण ‘कई देशवासियों का आग्रह’ बताया गया है।
इतिहासकारों और जीवनी-जीवियों की एक भरी-पूरी जमात इस समय प्राचीन सभ्यता के संरक्षण के नाम पर नई सभ्यता और संस्कृति का निर्माण करने में जुटी पड़ी है।
नागरिक भी पर्यटकों की तरह इन सब कामों की वाहवाही करने में जुट गए हैं। जब विदेशी पर्यटकों के देखने के लिए असली पुरानी चीजें गुम होने लगती हैं, देशी पर्यटकों के जत्थों को सरकारी ख़ज़ानों की प्रोत्साहन राशि से आधुनिक तीर्थस्थलों की यात्राओं के लिए तैयार किया जाता है।
इन परिस्थितियों में एक स्थापित पुरस्कार का नाम बदलने का आग्रह करने वाले ‘देशवासियों’ ने इसीलिए इस बात पर कोई चिंता नहीं व्यक्त की कि महिला हॉकी टीम की एक दलित खिलाड़ी जब टोक्यो में देश के लिए खेल रही थी, कुछ शरारती तत्व उसके हरिद्वार के निकट स्थित घर के सामने जमा होकर जातिसूचक शब्दों से उसके परिवारजनों को अपमानित कर रहे थे। महिला टीम की अर्जेंटीना के हाथों पराजय के लिए ये तत्व भारतीय टीम में शामिल दलित खिलाड़ियों को ज़िम्मेदार ठहरा रहे थे।
वर्ष 1991 के चुनाव के बाद लोकसभा में भारतीय जनता पार्टी के सदस्यों की संख्या बढ़कर एक सौ बीस हो गई थी। वी पी सिंह के जनता दल के भी 59 सदस्य चुने गए थे। तब किसी ने भी केंद्र में कांग्रेस की अल्पमत सरकार के इस निर्णय का विरोध नहीं किया था कि राजीव गांधी के नाम पर खेल रत्न पुरस्कार की घोषणा क्यों की जा रही है और मेजर ध्यानचंद के नाम पर क्यों नहीं। हो सकता है उस समय के कुछ भाजपाई आज भी सांसद हों। आडवाणी जी तब विपक्ष के नेता हुआ करते थे।
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