“सूरदास तब बिहंसि जसोदा, लै उर कंठ लगायो”- सूरदास की इस मशहूर काव्यपंक्ति का अर्थ कोई अगर इस तरह करे कि ‘सूरदास ने तब हँसते हुए यशोदा को गले लगा लिया’ तो या तो वह मूर्ख होगा या पक्का बदमाश। ऐसी मूर्खता कोई बच्चा कर सकता है, लेकिन अगर साहित्य का जानकार ऐसा करें तो ये बदनीयती का ही सबूत माना जाएगा।
राहुल गाँधी के इंग्लैंड प्रवास में दिये गये भाषणों के साथ भी ऐसा ही किया जा रहा है और ऐसा करने वाले बच्चे नहीं हैं। मोदी राज में ‘ट्रोल गति’ को प्राप्त हो चुके बीजेपी नेताओं की बात क्या करना, लेकिन रक्षामंत्री राजनाथ सिंह जैसे अपेक्षाकृत शालीन समझे जाने वाले नेता भी अगर राहुल गाँधी के बयान को ‘देश का अपमान’ बताने लगें और नियमों की परवाह किये बिना उनसे संसद में आकर माफ़ी माँगने की बात करने लगें तो समझना चाहिए कि यह किसी चक्रव्यूह के रचे जाने की आहट है। इस विवाद में आरएसएस का कूदना भी यही संकेत करता है। आरएसएस के महासचिव दत्तात्रेय होसबोले ने कहा है कि राहुल गाँधी को ज़्यादा ज़िम्मेदारी से बोलना चाहिए। यही नहीं उन्होंने देश में ‘चुनाव होने’ का तर्क देते हुए राहुल गाँधी की इस बात को ग़लत ठहराया कि भारत में लोकतंत्र संकट में है।
इंग्लैंड में दिये गये राहुल गाँधी के सारे बयान और भाषण यूट्यूब पर उपलब्ध हैं और कोई भी उन्हें देखकर जान सकता है कि उनके किसी बयान में देश का अपमान या विदेशी शक्तियों के हस्तक्षेप का आह्वान नहीं था जैसा कि बीजेपी नेताओं का दावा है। उन्होंने लोकतंत्र पर छाये संकट को स्पष्ट रूप से ‘भारत का आंतरिक मामला’ बताया था। यही नहीं, चीन को ‘सद्भावना पर विश्वास’ करने वाले देश के रूप में चिन्हित करने का भी उन पर जो आरोप लगा, वह भी बदनीयती का ही नमूना है। कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के अपने लेक्चर में राहुल ने अमेरिकी और चीनी समाज की तुलनात्मक समीक्षा करते हुए बताया था कि अमेरिका ‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता’ को जिस तरह महत्व देता है, वैसे ही चीन के लिए ‘हार्मनी’ का महत्व है क्योंकि गृहयुद्ध से लेकर सांस्कृतिक क्रांति के अनुभव को देखते हुए वह चीजों को नियंत्रण के बाहर नहीं जाने देना चाहता।
यह एक तरह से सभ्यता समीक्षा थी जिसमें ‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता’ को महत्व न देने के लिए चीन की आलोचना भी छिपी थी। यहाँ हार्मनी ‘सद्भाव’ से ज़्यादा ‘एकरूपता’ के अर्थ में है जो चीनी समाज के संदर्भ में वहाँ के शासन के सोच को बताता है। सच तो ये है कि राहुल गाँधी ने अपने तमाम वक्तव्यों में चीन के आक्रामक रवैये और भारतीय ज़मीन पर क़ब्ज़े को लेकर तीखी आलोचना की थी।
विडंबना ये है कि ‘भारतीय सीमा में कोई नहीं घुसा है’ कहने वाले प्रधानमंत्री मोदी और ‘चीन जैसी बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश से कैसे टकरायें’ कहने वाले विदेश मंत्री एस.जयशंकर के बयान पर चुप्पी साधने वाले बीजेपी और आरएसएस के रणबांकुरे राहुल गाँधी पर यह कहते हुए हमलावर हैं कि उन्होंन ‘चीन को एक सद्भावी देश’ के रूप में पेश किया। जबकि तमाम तानाशाहों को समर्थन देने वाला अमेरिका न दूसरे देशों में व्यक्तिगत स्वतंत्रता को महत्व देता है और न चीन दूसरे देशों के प्रति सद्भवाना से भरा है। राहुल ने महज़ उनकी ‘आंतरिक नीति’ को रेखांकित किया था लेकिन राहुल की घेरेबंदी करने वालों को तथ्य से क्या मतलब?
आख़िर शहीद राजीव गाँधी के बेटे को ‘देश का दुश्मन’ और मोदी सरकार को ‘देश’ बताने की इस हिमाक़त की वजह क्या है? ग़ौर से देखिए तो राहुल गाँधी के ख़िलाफ़ रचे जा रहे चक्रव्यूह के पीछे गाँधी परिवार, ख़ासतौर पर राहुल गाँधी को लेकर आरएसएस/बीजेपी खेमे में पसरा भय और ईर्ष्या का भाव है। भय यह कि ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के ज़रिए राहुल गाँधी ने जिस तरह एक नयी छवि अर्जित की है वह कमज़ोर पड़ी कांग्रेस के लिए संजीवनी का काम कर रही है। कांग्रेस की देशव्यापी उपस्थिति को देखते हुए यह बीजेपी सरकार के लिए वाक़ई चिंता की बात है। साथ ही, राहुल गाँधी जिस सूफ़ियाना मिज़ाज का परिचय दे रहे हैं वह विपक्षी एकता के लिए काफ़ी कारगर साबित हो सकता है। बीजेपी को उम्मीद है कि प्रधानमंत्री पद पर कांग्रेस की दावेदारी विपक्ष को एक नहीं होने देगी, लेकिन राहुल का रवैया उसकी उम्मीदों पर पानी फेर रहा है। यह 2024 में बीजेपी की हैट्रिक की राह में रोड़ा बन सकता है।
इसके अलावा, राहुल गाँधी ही नहीं, पूरा गाँधी परिवार, मोदी सरकार की ‘भय या लालच देकर तोड़ो नीति’ से बेअसर है। नेशनल हेराल्ड केस में अस्वस्थ सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी से कई दिनों तक चली पूछताछ के बावजूद उनके झुकने का कोई संकेत नहीं मिला। गाँधी परिवार ने अपने रुख से स्पष्ट कर दिया कि वे जेल जाने के लिए तैयार हैं। शासकों के लिए यह वाक़ई मुश्किल घड़ी होती है जब विपक्षी निर्भय हो जाएँ या सज़ा को मज़ा समझने लगें। गाँधी परिवार की यह निर्भयता ही आरएसएस/बीजेपी खेमे का सबसे बड़ा भय है। इससे 2025 में आरएसएस के सौ साल पूरा होने पर देशव्यापी जश्न की उसकी योजना फीकी पड़ सकती है!
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राहुल गाँधी को देशद्रोही बताने के लिए रचे जा रहे इस चक्रव्यूह का एक व्यूह ईर्ष्या से भी निर्मित है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह कभी नहीं भूल सकते कि विपक्षी नेता बतौर दुनिया के तमाम देशों ने उन्हें अपने देश में घुसने नहीं दिया था। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में दुनिया भर में उनकी विभाजनकारी छवि बनी थी। भारत के प्रधानमंत्री बतौर अब उनकी विदेश यात्राएँ स्वाभाविक हैं लेकिन आज भी प्रेस का सामना करने की हिम्मत नहीं पड़ती।
राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों के मुँह पर कठिन सवाल पूछने का आदी लोकतांत्रिक विश्व का प्रेस इसे हैरानी से देखता है। उसके लिए यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री का अलोकतांत्रिक रवैया है। नरेंद्र मोदी इसे अच्छी तरह समझते हैं। इसीलिए जब बतौर विपक्षी नेता राहुल गाँधी विदेशी पत्रकारों के सामने बेख़ौफ़ होकर बात करते हैं, उनके कठिन से कठिन सवाल का जवाब देते हैं तो वे एक ऐसी बड़ी लकीर खींच देते हैं जिसके सामने प्रधानमंत्री ख़ुद-ब-ख़ुद छोटे नज़र आने लगते हैं।
ईर्ष्या की एक वजह यह भी है कि दर्शन की जिन गहराइयों की वजह से भारत को विश्वगुरु का दर्जा दिया जाता रहा है, उसके प्रतिनिधि के रूप में नरेंद्र मोदी नहीं राहुल गाँधी को देखा जा रहा है। ख़ुद को ‘भारतीय संस्कृति का स्वयंभू रखवाला’ मानने वाले आरएसएस के लिए यह वाक़ई तक़लीफ़ की बात होगी कि प्रधानमंत्री मोदी ने विदेशी भूमि पर दिये गये अपने किसी भाषण में आज तक इस सांस्कृतिक संगठन के नायकों जैसे हेडगेवार, गोलवलकर, सावरकर आदि का ज़िक़्र नहीं किया। उनके भाषणों में हमेशा गाँधी ही भारत की सर्वश्रेष्ठ देने के रूप में मौजूद रहते हैं जिनकी छवि बिगाड़ने में ‘संघ शिविर’ ने कई पीढ़ियाँ गुज़ार दीं। उधर, आश्चर्यजनक रूप से राहुल गाँधी अपनी बातचीत या भाषणों में महात्मा गाँधी ही नहीं, शंकराचार्य से लेकर महावीर और गौतम बुद्ध तक का ज़िक़्र करते हैं।
कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से एम.फ़िल करने वाले राहुल गाँधी जब भारत को समझने-समझाने के क्रम में ‘अनात्मवाद’ से लेकर ‘शून्यवाद’ तक चले जाते हैं तो उन्हें ‘पप्पू’ प्रचारित करने वालों के मुँह में कोयला ज़रूर भर जाता होगा।
ईर्ष्या की एक वजह ये भी हो सकती है कि राहुल को तो अपने पूर्व छात्र के रूप में कैंब्रिज यूनिवर्सिटी लेक्चर देने के लिए बुलाती है लेकिन ‘एंटायर पॉलिटिक्स’ में एम.ए. करने के बावजूद किसी यूनिवर्सिटी ने उन्हें अपना पूर्व छात्र मानने का सौभाग्य हासिल करना ज़रूरी नहीं समझा। ऐसे में जब प्रधानमंत्री मोदी के साथ तुलना एक राजनीतिक हक़ीक़त बनती जा रही है तो राहुल गाँधी को देश का दुश्मन बताने का अभियान चलाना ही एकमात्र रास्ता बचता है।
लेकिन संघ शिविर भूल जाता है कि राहुल गाँधी ने पिता राजीव गाँधी और दादी इंदिरा गाँधी की शहीदी विरासत पर चलते हुए ‘तपस्या और सत्याग्रह’ को जिस तरह अपनी राजनीति का अस्त्र बनाया है उसके सामने छल-छद्म से बने किसी चक्रव्यूह का देर तक टिकना असंभव है। यह भविष्यवाणी नहीं इतिहास का सबक़ है!
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