लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद कांग्रेस एक बड़े संकट में फँस गयी है। राहुल गाँधी ने नैतिक ज़िम्मेदारी लेते हुये इस्तीफ़ा दे दिया है और पार्टी के तमाम दबाव के बावजूद वह इस्तीफ़ा वापस लेने को तैयार नहीं हैं। कांग्रेस वर्किंग कमेटी उन्हें मनाने में लगी है। राहुल का कहना है कि अध्यक्ष कोई और बने। वह पार्टी में बने रहेंगे। पर क्या कांग्रेस बिना नेहरू गाँधी परिवार के चल पायेगी? एक रह पायेगी?
दरअसल, दो चुनावों में लगातार कांग्रेस के औसत से भी ख़राब प्रदर्शन के बाद दो सवाल खड़े हो रहे हैं। पहला तो यह कि क्या कांग्रेस ख़त्म हो रही है? दूसरा, क्या राहुल गाँधी में पार्टी का नेतृत्व करने की क्षमता है? इन दोनों सवालों का जवाब देश की बदलती सामाजिक राजनीतिक परिस्थितियों में छिपा है।
पिछड़ों, दलितों के जागरण का समय
देश में यह अति पिछड़ों और अति दलितों के नवजागरण का समय है। ठीक वैसे ही जैसे अस्सी-नब्बे के दशक में पिछड़ों और दलितों की अपेक्षाकृत समृद्ध जातियों के भीतर नई राजनीतिक महत्वाकांक्षा का उदय हुआ था। उत्तर भारत में दलित नव चेतना के अगुआ के तौर पर कांशीराम का राजनीतिक क्षितिज पर उदय हुआ। उनकी शिष्या मायावती ने इसी चेतना को आगे बढ़ाया।
बहुजन समाज पार्टी बनाने के बाद शुरू के कई चुनावों में कांशीराम का एक मात्र नारा होता था कांग्रेस को हराने के लिए वोट देना है। इसका एक बड़ा कारण यह था कि कांशीराम सबसे पहले दलितों को कांग्रेस के खेमे से अगल-थलग करना चाहते थे।
यह वह दौर था जब कांग्रेस मुख्य तौर पर ब्राह्मण, दलित और मुसलमानों की धुरी पर टिकी हुई थी। कांशीराम को सफलता मिली और दलित अपने नए राजनीतिक अस्तित्व की तलाश में दलित नेतृत्व वाली पार्टियों की तरफ़ मुड़ने लगे।
लालू-मुलायम और पिछड़ों का दबदबा
राजनीतिक नेतृत्व में पिछड़ों की लड़ाई साठ और सत्तर के दशक में समाजवादियों ने की जिसके अगुआ डॉ. राम मनोहर लोहिया थे। लेकिन एक स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति के रूप में पिछड़ों का दबदबा तब बना जब बिहार में लालू प्रसाद यादव और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव जैसे नेता खड़े हुए। साठ के दशक में हरित क्रांति और बाद में श्वेत क्रांति ने कुछ प्रमुख पिछड़ी जातियों को आर्थिक रूप से सक्षम बना दिया था। तब उनकी सत्ता में भागीदारी की चाहत बढ़ने लगी।
लालू और मुलायम जैसे नेताओं ने मुसलमानों को भी आकर्षित किया। बिहार में ‘एम वाई’ यानी मुसलिम-यादव का समीकरण कामयाब हो गया। उत्तर प्रदेश में इसी समीकरण ने मुलायम सिंह यादव को स्थापित किया। बाद में नीतीश कुमार ने बिहार में अति पिछड़ा और अति दलित का एक नया समीकरण बनाकर लालू यादव के दबदबे को तोड़ डाला।
नीतीश के फ़ॉर्मूले पर बीजेपी
इन दोनों राज्यों में कांग्रेस के हाथों से सत्ता निकल गई तब ब्राह्मण और दूसरी सवर्ण जातियों ने भी कांग्रेस का साथ छोड़ना शुरू कर दिया। एक समय पर उत्तर प्रदेश के ब्राह्मणों ने मायावती का साथ दिया जिसके बूते पर 2007 में बहुजन समाज पार्टी पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई। लालू और मुलायम भले ही सभी पिछड़ों के नेता बन चुके थे लेकिन उनके सत्ता में आने का राजनीतिक और आर्थिक फ़ायदा मुख्य तौर पर यादवों को मिला। इसके चलते दूसरी पिछड़ी जातियों में मोह भंग शुरू हुआ। नीतीश कुमार ने अति पिछड़ा और अति दलित का जो प्रयोग बिहार में शुरू किया उसी प्रयोग को बीजेपी ने 2014 के चुनावों में पूरे देश के स्तर पर दोहराया। 2014 में बीजेपी की शानदार जीत में इसका बड़ा योगदान था। लेकिन बीजेपी भी अति दलित और अति पिछड़ों की राजनीतिक-आर्थिक महत्वाकांक्षा को पूरा नहीं कर पाई। इसका एक प्रमुख कारण है बीजेपी नेतृत्व पर सवर्ण जातियों का प्रभाव। इसलिए बिहार में उपेन्द्र कुशवाहा और उत्तर प्रदेश में ओम प्रकाश राजभर जैसे अति पिछड़ा नेता बीजेपी का दामन छोड़ गए। इस सबके बावजूद बीजेपी अति पिछड़ी और अति दलित जातियों के बड़े हिस्से को अपने साथ रखने में कामयाब रही।
बीजेपी का जातिगत आधार
2019 में बीजेपी ने हिंदी भाषी राज्यों की अनारक्षित 147 सीटों में से 88 पर सवर्णों को टिकट दिया, इनमें से 80 जीतकर आए। इससे साफ़ है कि बीजेपी अब भी सवर्ण बहुल पार्टी बनी हुई है। 2009 में बीजेपी के ब्राह्मण सांसद 30 फ़ीसदी थे जो 2014 में बढ़कर 38.5 प्रतिशत हो गए। 2009 में राजपूत 43 प्रतिशत थे लेकिन 2014 में 34 फ़ीसदी हो गए। बीजेपी ने 37 ब्राह्मणों और 30 राजपूतों को टिकट दिए। इनमें से 33 ब्राह्मण और 27 राजपूत जीते। इसी तरह से सिर्फ़ सात यादवों को टिकट दिया जिनमें से छह जीते और आठ कुर्मी उम्मीदवारों में से 7 जीते। बीजेपी ने सुरक्षित क्षेत्रों में सिर्फ़ तीन जाटवों को टिकट दिया, जबकि पासी उम्मीदवारों की संख्या पाँच थी।
मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में पिछड़ों का कोई बड़ा नेता खड़ा नहीं हो सका। इसलिए कांग्रेस अपना आधार बचाने में अब तक सफल है। इन राज्यों में बीजेपी ने एक व्यापक सामाजिक समीकरण तैयार करके कांग्रेस को चुनौती दी।
आज कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती एक व्यापक सामाजिक या आम बोलचाल की भाषा में जातीय आधार तैयार करने की है। 2019 के चुनावों में हार-जीत के आँकड़े में कांग्रेस भले ही बहुत पीछे दिखाई देती हो, वोट प्रतिशत बताते हैं कि कांग्रेस के पास ठोस जनाधार अब भी मौजूद है।
मध्य प्रदेश में भले ही कांग्रेस एक ही सीट जीत पायी, उसका वोट प्रतिशत क़रीब 34 रहा। यही स्थिति राजस्थान में भी रही। छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, तेलंगाना, कर्नाटक और केरल में भी कांग्रेस को 30 प्रतिशत से ज़्यादा वोट मिले। यह साफ़ संकेत है कि कांग्रेस का जनाधार अब तक कायम है और यह चुनाव कांग्रेस मुक्त भारत का संकेत नहीं देते हैं। कांग्रेस की बड़ी समस्या उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल जैसे कुछ राज्य हैं जहाँ उसका वोट प्रतिशत भी 6 से 7 प्रतिशत तक सिकुड़ चुका है।
क्या कांग्रेस उबरेगी?
सीटों की संख्या के हिसाब से भी देखें तो कांग्रेस का भविष्य समाप्त नहीं माना जा सकता है। 1984 में जब कांग्रेस को लोकसभा में 404 सीटें मिलीं थीं तब बीजेपी महज 2 सीटों पर सिमट गयी थी। 2014 और 2019 को छोड़ दें तब 1996 में कांग्रेस को सबसे कम 140 सीटें मिली थीं और बीजेपी भी 161 सीटों तक सिमटी हुई थी। 2009 में कांग्रेस को 206 सीटें मिली थीं तब बीजेपी महज 116 सीटों पर जीती थी। दो चुनावों में बड़ी हार से कांग्रेस के अंत की बात सोचने वालों को यह समझना होगा कि कई बार चुनाव सिर्फ़ भावनात्मक मुद्दों पर लड़े जाते हैं। 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी की जीत भी भावनात्मक मुद्दों पर हुई थी और बदले हुए संवाद के साथ 2019 में भी यही स्थिति दिखाई पड़ती है।
लेकिन इस बार बीजेपी की जीत ने कांग्रेस के सामने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। इनमें पहला सवाल तो यही है कि कांग्रेस अति पिछड़ों और अति दलितों के बीच अपनी पैठ कैसे बनाएगी। बीजेपी ने दूसरा मुद्दा राष्ट्रवाद के रूप में खड़ा किया है। इस तरह के मुद्दे लम्बे समय तक नहीं चलते हैं।
लेकिन बीजेपी और आरएसएस जिस तरह से हिन्दू-मुसलिम विभाजन की दीवार खड़ी करने कि कोशिश कर रहे हैं उसका असर लम्बे समय तक रह सकता है। इसका एक बड़ा कारण पाकिस्तान के द्वारा आतंकवाद को लगातार समर्थन है। कश्मीर का मुद्दा भी हिन्दू-मुसलिम के बीच दरार को चौड़ा करता है।
जुझारू नेतृत्व की कमी
इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद कांग्रेस को कभी भी जुझारू और गहरी पैठ रखने वाला नेतृत्व नहीं मिला। राजीव गाँधी को सहानुभूति में सत्ता मिल गयी और विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे कमज़ोर राजनीतिक सहयोगी को भी नियंत्रण में नहीं रख पाए। सोनिया गाँधी की अपनी सीमाएँ थीं। राहुल गाँधी को एक ऐसी पार्टी की बागडोर मिली है जो क़रीब 25-30 सालों से जन नायक विहीन है। राहुल गाँधी के अध्यक्ष बनने के बाद मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में पार्टी को जीत मिली लेकिन इसका एक बड़ा कारण उन राज्यों की बीजेपी सरकारों से लोगों की नाराज़गी थी। एक बात तय है कि सिर्फ़ चुनावी राजनीति से कांग्रेस की वापसी संभव नहीं है। पार्टी को ज़मीनी स्तर पर लोगों के संघर्ष से जुड़ना होगा।
कांग्रेस सेवा दल, महिला कांग्रेस, छात्र संगठन और युवा कांग्रेस जैसे संगठनों को फिर से खड़ा करना होगा। राहुल गाँधी को आराम कुर्सी की राजनीति छोड़ कर तपती ज़मीन की राजनीति करनी होगी। पिछले एक साल में राहुल की राजनीतिक सक्रियता और परिपक्वता बढ़ी है।
नेतृत्व का संकट
संघर्षों से तप कर राहुल गाँधी की स्वीकार्यता बढ़ सकती है या फिर कांग्रेस के भीतर से कोई नया नेता खड़ा हो सकता है। राहुल की जगह किसी और को पार्टी का अध्यक्ष बना देने से पार्टी की मुश्किलें और बढ़ सकती हैं क्योंकि पूरे देश में स्वीकार्य कोई और नेता कांग्रेस के पास फ़िलहाल नहीं है। कांग्रेस को एक बार इंदिरा गाँधी युग के मंथन से गुज़रना होगा। 1966 में प्रधानमंत्री बनने के बाद इंदिरा गाँधी को एक बड़ी लड़ाई पार्टी के भीतर ही लड़नी पड़ी। अंदरूनी लड़ाई में कांग्रेस दो बार टूटी लेकिन इंदिरा गाँधी ने एक नए कांग्रेस को खड़ा कर दिया। आज भी कांग्रेस के भीतर से एक नए कांग्रेस की ज़रूरत है।
राहुल गाँधी को साबित करना होगा कि उनमें नई ज़रूरत के हिसाब से कांग्रेस को फिर नव जीवन देने की क्षमता है। बीजेपी के हिंदू राष्ट्रवाद के ख़िलाफ़ समतावादी राष्ट्रवाद, धार्मिक विभाजन की जगह धार्मिक समन्वय और कुछ जातियों में सिमटी राजनीति की जगह व्यापक जनाधार की राजनीति को स्थापित करना होगा।
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