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राहुलजी! दलितों की चिंता से ज्यादा रोडमैप है जरूरी

राहुल गांधी ने उन्नाव की घटना के माध्यम से जो संदेश दलित समाज को देने की कोशिश की, वह बेशकीमती है। लेकिन, उससे बेशकीमती है दलितों के लिए रोडमैप जिसे लेकर राहुल सामने नहीं आए। हालांकि राहुल गांधी के संदेश का महत्व तब तक बना रहेगा जब तक कि दलित समाज के लोग इस भावना से ऊपर नहीं उठ जाते कि उन पर जुल्म करने वालों पर जवाबी हमला करने की परिणति दलित समाज में ही पुनर्जन्म तय है। 

बात को सही संदर्भ में समझने के लिए उस उदाहरण पर गौर करना जरूरी है जो राहुल गांधी ने सामने रखा है। उन्नाव की घटना में दलित युवक की पीट-पीट कर हत्या कर दी जाती है। राहुल गांधी पीड़ित के पिता से मिलते हैं। उनके कंपकंपाते हाथ थामते हैं। बात-बात में प्रतिक्रिया समझते हैं। पीड़ित के पिता बताते हैं कि जो हुआ वो बुरा हुआ, लेकिन उन्हें अच्छा भी लगा कि दलित समाज के लोगों में प्रतिक्रिया हुई। 

राहुल तब चौंक जाते हैं जब उन्हें पता चलता है कि माब लिंचिंग की इस घटना की प्रतिक्रिया में 12 लोगों ने इन्सेक्टिसाइड पीकर आत्महत्या करने की कोशिश की है। वे इस बात से भी चौंक जाते हैं कि ऐसी प्रतिक्रिया से पीड़ित के पिता को खुशी हो रही है! 

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...इसलिए जुल्म सहते हैं दलित!

राहुल गांधी घटना की तह तक पहुंचते हैं। आत्महत्या की कोशिश के बाद अस्पताल में इलाज रत कई युवकों के साथ बातचीत करते हैं। उन्हें दो बातें बहुत चौंकाती हैं- एक यह कि यह कोई सामूहिक आत्महत्या की कोशिश नहीं थी। बल्कि, एक दलित की माब लिंचिंग के  विजुअल्स देखकर दलितों में हुई अलग-अलग प्रतिक्रियाएं थीं। हर घटना एक-दूसरे से अलग थीं लेकिन सबकी प्रकृति समान थी- जान दे देने की कोशिश। राहुल उन युवकों से कहते हैं कि अगर मेरी बहन को कोई बांधकर इस तरह से पीट-पीट कर मार देता तो मरने की सोचने से पहले वे हत्यारे को मारने की सोचते। इस पर दलित युवकों की जो प्रतिक्रिया आयी वह दूसरी वो बात है जो चौंकाती है।

दलित युवकों ने कहा कि बदला  लेने की बात तो वे सोच भी नहीं सकते। क्योंकि, अगर वे ऐसा करते हैं तो उनका पुनर्जन्म फिर दलित समाज में ही होगा! चौंकाती है यह प्रतिक्रिया, लेकिन इस प्रतिक्रिया में भी दो महत्वपूर्ण बातें हैं- एक यह कि दलित समाज में जन्म लेना अभिशाप है। दूसरा यह कि दलित युवक दोबारा दलित समाज में जन्म नहीं लेना चाहते। 

Rahul gandhi at The Dalit Truth on Mayawati - Satya Hindi

राहुल गांधी ने वाकई अपने अनुभवों के साथ एक ऐसे सच को सामने रखा है जो बौद्धिक विमर्श में नहीं है। दलित समाज से जुड़े चिंतकों के लिए भी यह चिंता की बात है कि दलित युवक दलित होना अभिशाप समझता है, वह जिन्दगी से मुक्ति पाना संघर्ष करने से आसान समझता है, वह अपने हक के लिए प्रतिरोध करने के बजाए पलायन को जरूरी समझता है...। इसका सीधा सा अर्थ है कि दलित चिंतक और दलितों के लिए राजनीतिक रूप से सक्रिय लोग असफल हैं। 

भाषण में खली रोडमैप की कमी

महत्वपूर्ण यह भी है कि राहुल गांधी ने यह भाषण दलित दर्शकों के बीच दिया। कांग्रेस नेता के राजू द्वारा संपादित ‘द दलित ट्रूथ’ नामक पुस्तक के विमोचन के अवसर पर उन्होंने यह भाषण दिया। समृद्ध भारत फाउंडेशन की ओर से राजीव गांधी फाउंडेशन द्वारा यह समारोह आयोजित था। इस अवसर पर देशभर में दलितों की चिंता करने वाले नेतृत्वकारी साथियों को इकट्ठा किया गया था। 

राहुल गांधी का भाषण इस मायने में तो सफल है कि उन्होंने दलित नेतृत्व के सामने मजबूत तरीके से दलित समाज की चिंता को सामने रखा। मगर, आलोचनातमक नजरिए से देखें तो राहुल गांधी ने दलित  समाज के लिए कोई रोड मैप सामने नहीं रखा।
राहुल गांधी ने क्यों नहीं खुलकर यह कहा कि देश के दलितों को एकजुट करने और उनकी आवाज़ बुलंद करने का काम कांग्रेस पार्टी करने जा रही है और इसमें उन्हें दलित समुदाय के अग्रणी नेताओं का सहयोग चाहिए? क्या वे इसे जाति की राजनीति मान रहे हैं?
क्या दलितों के लिए आवाज़ उठाने की जरूरत को जाति की राजनीति कही जा सकती है? या फिर उन्हें सवर्ण समाज के वोट बैंक की चिंता है? दलित समाज के लोग जुल्मो सितम की हर घड़ी में कांग्रेस की ओर उम्मीद भरी नज़रों से देखते रहे हैं। आज भी देख रहे हैं। लेकिन, कांग्रेस मौन है। राहुल गांधी खामोश हैं। 
Rahul gandhi at The Dalit Truth on Mayawati - Satya Hindi

राहुल गांधी दलितों को राजनीति की मुख्य धारा में लाने के लिए बड़े प्रयोगों की घोषणा कर सकते हैं। गैर आरक्षित सीटों से भी उन्हें उम्मीदवार बनाने का एलान कर सकते हैं। दलित महिलाओं को संगठन और चुनावी राजनीति में जगह देने की घोषणा कर सकते हैं। मॉब लिंचिंग की घटनाओं को कतई नहीं होने देने और ऐसा होने पर ईंट से ईंट बजा देने का एलान कर सकते हैं। ऐसा वे संवैधानिक तरीके से कर सकते हैं। इसके बावजूद दलितों के नेतृत्वकारी समूह के बीच राहुल ऐसा कोई एलान नहीं कर सके, तो इसे यही कहा जाएगा कि एक बड़ा अवसर राहुल गांधी ने खोया है।

मायावती की आलोचना क्या जरूरी थी?

दलित विमर्श और दलित दर्शकों के बीच आखिरकार मायावती की आलोचना के क्या मायने हैं? बुरी से बुरी हालत में भी मायावती के पास यूपी में दलितों के 12 फीसदी वोट हैं। दूसरे प्रदेशों में भी दलितों में उनका प्रभाव है। क्या मायावती को इसलिए धिक्कारा जाना चाहिए कि उन्होंने मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनाने के एवज में कांग्रेस से गठबंधन करने को मना कर दिया?  

ईडी, सीबीआई का भय मायावती को है तो जी-23 नेताओं को किसका भय है? ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, आरपीएन सिंह को भी क्या यही भय था?

सच यह है कि कांग्रेस से गठबंधन कर अखिलेश यादव अपनी सत्ता खो देते हैं। अच्छा होता कि राहुल गांधी मायावती में कमी देखने के बजाए कांग्रेस को मजबूत करते। अगर कांग्रेस मजबूत होगी तो क्षेत्रीय पार्टी के पास गठबंधन का निमंत्रण और उस पर प्रतिक्रिया नहीं मिलने जैसी जिल्लत से पार्टी बच जाएगी।

राहुल गांधी ने एक बीजेपी सांसद से हुई बातचीत के हवाले से यह बात बताने की कोशिश की कि जिन्हें पुनर्जन्म में यकीन नहीं है वे श्रीराम में यकीन कैसे कर सकते हैं। श्री राम को विष्णु का अवतार माना जाता है। पुनर्जन्म पर विश्वास के बिना अवतार पर विश्वास संभव नहीं हो सकता।

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राहुल गांधी ने तार्किक रूप से बहुत सही बातें कही हैं लेकिन राहुल भूल रहे हैं कि वे कांग्रेस पार्टी के बड़े नेता हैं और जो कुछ वह कहते हैं वह कांग्रेस पार्टी की सोच होती है। ऐसे में यह सवाल जरूर उठेंगे कि कांग्रेस केवल हिन्दू देवी-देवताओँ के बारे में ही अपनी तर्कक्षमता का उपयोग क्यों करती है? ऐसे अप्रासंगिक विषयों पर तार्किक क्षमता दिखाकर कांग्रेस अपने लिए सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक नुकसान ही सुनिश्चित कर रही है।

राहुल गांधी के भाषण में दलितों के लिए वाजिब चिंता दिखी। उन्होंने सही सवाल उठाए। इसके बावजूद देश के दलित समाज को नेतृत्व देने का अवसर राहुल गांधी ने खोया है। जो रोडमैप लेकर राहुल सामने आ सकते थे, उससे बचने की कोशिश कर उन्होंने अवसर गंवाया है। इसके अलावा धार्मिक विषयों पर ज्ञान देने की कोशिश से भी उन्के लिए कोई प्वाइंट अर्जित होता नहीं दिख रहा।

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प्रेम कुमार
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