यह कहना अभी मुश्किल होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दिमाग में क्या चल रहा होगा? नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़ जो ग़ुस्सा सड़कों पर दिखा उसकी तासीर पर वह कितने चिंतित होंगे? या फिर चिंतित भी होंगे या नहीं? सड़कों पर उतरे लोगों के आक्रोश में भी वह अपना फ़ायदा देख रहे हैं या फिर उन्हें लग रहा है कि कहीं यह ग़ुस्सा देश का मूड न बदल दे?

दुनिया भर में ऐसे कई उदाहरण हैं जब जनता ने सड़क पर उतरकर तानाशाही रवैया अपनाने वाली सरकारों को सबक सिखाया है। नागरिकता संशोधन क़ानून के जोरदार विरोध के बीच जनता ने साफ़ संदेश दिया है कि वह ग़ुस्से में है। इसके अलावा अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर भी हालात बेहद ख़राब होने से लोगों में नाराज़गी है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को समय रहते इसे समझने की ज़रूरत है।
मोदी बेहद चालाक नेता हैं। उन्हें हर विपरीत परिस्थिति को अपने पक्ष में मोड़ने में महारत हासिल है। कई बार ऐसा लगा कि वह शायद फँस गये, पर वह हर बार बच निकले और पहले से अधिक कामयाब हुए। लेकिन इस बार लगता है कि उनके लिए बचकर निकलना आसान नहीं होगा। अभी तक चाहे वह नोटबंदी हो या फिर जीएसटी या फिर पुलवामा, लोगों में नाराज़गी तो दिखी पर ग़ुस्सा मन में ही घर कर रह गया, बाहर नहीं उमड़ा। इस बार लोगों ने खुलकर अपने ग़ुस्से का इज़हार किया, आगज़नी की और जैसे-जैसे पुलिस ने ज़्यादती की, असंतोष और भड़का। ऐसे में मोदी को संभलने की ज़रूरत है।
पत्रकारिता में एक लंबी पारी और राजनीति में 20-20 खेलने के बाद आशुतोष पिछले दिनों पत्रकारिता में लौट आए हैं। समाचार पत्रों में लिखी उनकी टिप्पणियाँ 'मुखौटे का राजधर्म' नामक संग्रह से प्रकाशित हो चुका है। उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकों में अन्ना आंदोलन पर भी लिखी एक किताब भी है।