प्रशांत किशोर ने अब राजनीति में अपने अपने गुरु नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया है। अब वह सौ दिनों तक पूरे बिहार में घूम कर लोगों को बताएँगे कि असल में नीतीश विकास पुरुष हैं ही नहीं। प्रशांत का आरोप है कि 2005 में नीतीश के साथ सत्ता संभालने के बाद से लेकर अब तक बिहार पिछड़े राज्यों की सूची में बना हुआ है। विकास सूची में बिहार अभी 22वें स्थान पर है। प्रशांत इसे टॉप टेन में लाना चाहते हैं। प्रशांत अब यह भी बता रहे हैं कि नीतीश कुमार गाँधी और गोडसे को साथ लेकर चलना चाहते हैं। उनका इशारा नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड और बीजेपी के गठबंधन की तरफ़ है। इसके साथ ही कश्मीर में अनुच्छेद 370 में फेरबदल, नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए और एनआरसी के समर्थन को लेकर भी नीतीश कुमार से उनकी नाराज़गी चल रही है। इसी मुद्दे पर नीतीश ने उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया। कुछ लोगों को आश्चर्य लग सकता है कि जिस प्रशांत किशोर ने 2012 में गुजरात विधानसभा और 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के चुनाव अभियान के ज़रिए सुर्खियाँ बटोरीं वे अब गाँधी और गोडसे की बात कैसे कर रहे हैं। इसे समझने के लिए प्रशांत की राजनीतिक यात्रा और बिहार की ताज़ा परिस्थितियों पर ग़ौर करना ज़रूरी है।
प्रशांत को चुनावों का माहौल बदलने में माहिर माना जाता है। 2012 में गुजरात विधानसभा और 2014 के लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनाव अभियान की रणनीति प्रशांत किशोर ने ही बनायी थी। बाद में वह नीतीश कुमार से जुड़ गए और 2015 के विधानसभा चुनावों की रणनीति बनाने में प्रशांत किशोर की अग्रणी भूमिका थी। पंजाब में कांग्रेस, आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस और दिल्ली में आम आदमी पार्टी के लिए रणनीति भी उन्होंने ही बनायी थी। अब तक उनकी रणनीति सिर्फ़ उत्तर प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनावों में असफल रही थी। तब वह कांग्रेस के साथ थे। चुनाव की रणनीति बनाते-बनाते प्रशांत की राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी सामने आयी। नीतीश कुमार ने उन्हें अपनी पार्टी जनता दल यूनाइटेड का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना दिया। नागरिकता संशोधन क़ानून यानी सीएए और उसके पहले कश्मीर में अनुच्छेद 370 में फेरबदल को लेकर प्रशांत और नीतीश में विवाद शुरू हुआ। उसका पटाक्षेप प्रशांत को पार्टी से निकाले जाने के बाद हुआ।
बिहार में विधानसभा का चुनाव नवंबर में होना है। प्रशांत किशोर ने अपनी जिस रणनीति की घोषणा की है, उससे लगता है कि वह सीधे-सीधे सुशासन बाबू के रूप में मशहूर नीतीश कुमार के राजनीतिक बुनियाद पर हमला करने की तैयारी कर रहे हैं। नीतीश कुमार के राजनीतिक दबदबा का मुख्य आधार है विकास। प्रशांत ने विकास को सबसे पहले निशाने पर लिया है। नीतीश ने एक हद तक राज्य का विकास किया। इस बात को प्रशांत भी स्वीकार करते हैं। बिहार में अच्छी सड़कें और गाँवों में गलियाँ बनीं। प्राथमिक और हाई स्कूल तक शिक्षा की स्थिति भी सुधरी। बिजली की स्थिति तो पहले से कई गुना बेहतर हुई। लेकिन यह भी सच है कि अच्छे कॉलेज और विश्वविद्यालय नहीं खुले जिसके चलते बिहार के छात्र दिल्ली और दूसरे राज्यों के निजी विश्वविद्यालयों की तरफ़ भाग रहे हैं। बिहार में न तो उद्योग आए और न ही रोज़गार बढ़ा। रोज़गार के लिए भटकते बिहार के नौजवान कभी गुजरात में तो कभी महाराष्ट्र में हमले का शिकार होते हैं।
प्रशांत ने सबसे पहले बिहार के बेरोज़गार नौजवानों को ही अपने अभियान का केंद्र बनाया है। वह 18 से 35 वर्ष के दस लाख युवकों को अपने अभियान का हिस्सा बना रहे हैं।
प्रशांत ने अभी कोई पार्टी बनाने की घोषणा नहीं की है, लेकिन वह अपने साथ एक करोड़ लोगों को जोड़ने की तैयारी कर रहे हैं। ज़ाहिर है कि आगे चल कर पार्टी की घोषणा भी हो सकती है। इसका बड़ा नुक़सान जेडीयू और बीजेपी गठबंधन को हो सकता है। इस गठबंधन को बिहार के सवर्ण मतदाताओं का पूरा समर्थन हासिल है लेकिन जब रोज़गार की बात आती है तो सबसे शिक्षित होने के कारण ज़्यादा परेशानी इसी वर्ग के सामने है। अगले चुनाव तक शासन में नीतीश के 15 वर्ष हो जाएँगे। तब वह बिहार के विकास के लिए लालू यादव या राष्ट्रीय जनता दल की सरकार को ज़िम्मेदार नहीं ठहरा सकते हैं। बीजेपी के साथ गठबंधन को लेकर भी प्रशांत किशोर ने नीतीश को घेरने की कोशिश की है। प्रशांत का कहना है कि गाँधी और गोडसे एक साथ नहीं चल सकते हैं। दरअसल, यह लड़ाई तो तब ही शुरू हो गयी थी जब प्रशांत जेडीयू में थे। प्रशांत ने सबसे पहले नीतीश पर कश्मीर मुद्दे को लेकर ही निशाना साधा था।
प्रशांत किशोर की संभावनाएँ कहाँ?
2015 के विधानसभा चुनावों में नीतीश आरजेडी के साथ थे इसलिए मुसलमानों का वोट भी उन्हें आसानी से मिल गया था। हालाँकि 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी के साथ भी उनका रिकॉर्ड शानदार रहा। इस बार मुसलिम मतदाता, बीजेपी के साथ-साथ उसके सहयोगियों के भी ख़िलाफ़ दिखायी दे रहे हैं। नीतीश के सामने अब सबसे बड़ी चुनौती होगी अति पिछड़ा और अति दलित के साथ सवर्ण मतदाताओं को बटोर कर रखने की। प्रशांत किशोर इसी वोट बैंक में सेंध मार सकते हैं। रोज़गार और विकास ऐसे मुद्दे हैं जो राज्यों के चुनावों में सब पर भारी दिखायी दे रहे हैं।
नीतीश के लिए चुनौती
आक्रामक मुसलिम विरोधी अभियान के बावजूद बीजेपी को दिल्ली और झारखंड में चुनावी सफलता नहीं मिली। इसके पहले महाराष्ट्र और हरियाणा में भी उसे नुक़सान उठाना पड़ा। बदले हुए माहौल में नीतीश के लिए भी यही सबसे बड़ी चुनौती होगी। बिहार की राजनीति पर अब भी जातियों का पूरा दबदबा दिखायी देता है। जाति से ब्राह्मण प्रशांत किशोर एक बड़ा राजनीतिक विकल्प भले ही नहीं बना सकें लेकिन उनके बिहार अभियान से सुस्त पड़े विपक्ष को नयी ताक़त मिल सकती है। राष्ट्रीय जनता दल अब भी बिहार में सबसे बड़ा राजनीतिक दल है। कांग्रेस उसके साथ बनी हुई है। जीतन राम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा और मुकेश सहनी भले ही अभी राजनीतिक पैंतरेबाज़ी में जुटे हैं, लेकिन चुनाव में उनके पास भी आरजेडी के साथ रहने के अलावा कोई विकल्प दिखायी नहीं देता।
प्रशांत किशोर अगर युवकों को जोड़ कर नयी राजनीतिक ताक़त बन भी जाते हैं तो भी उन्हें ग़ैर नीतीश और ग़ैर बीजेपी दलों के साथ रहना पड़ सकता है।
चुनाव का माहौल बदलने में प्रशांत अपनी महारत कई बार साबित कर चुके हैं। अब तक उन्होंने सात चुनावों की रणनीति बनायी है। इनमें से छह जगह उन्हें सफलता मिली।
राजनीति में नया होने के कारण उनकी छवि साफ़-सुथरी है। ऐसे में उनका अभियान बिहार में एक नया माहौल पैदा कर सकता है जिसका नुक़सान 15 साल से सत्ता में होने के कारण नीतीश को हो सकता है। नागरिकता संशोधन क़ानून को लेकर भी बिहार में खलबली दिखायी दे रही है। ऐसे में बिहार का एक नए सामाजिक-राजनीतिक समीकरण से सामना होगा। विधान सभा चुनावों में अभी 8 महीने बाक़ी हैं। प्रशांत अपने अभियान पर डटे रहते हैं तो ख़ुद भी एक राजनीतिक शक्ति बन सकते हैं।
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