मंगलवार को सुबह-सवेरे ही टि्वटर पर ख़बर चमकने लगी। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल कोरोना से संक्रमित हुए, फिर ख़बर आई भारतीय जनता पार्टी के नेता मनोज तिवारी और बीजेपी छोड़कर हाल में तृणमूल कांग्रेस में शामिल हुए फ़िल्मी गायक बाबुल सुप्रियो के संक्रमित होने की। दो दिन पहले केन्द्र सरकार में मंत्री महेन्द्र नाथ पांडे इसी वजह से अस्पताल में भर्ती हुए और उससे पहले डेरेक ओ ब्रायन के बीमार होने की सूचना आई, फिर कांग्रेस की महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने ट्वीट कर बताया कि उनके घर में भी कोरोना पहुँच गया है और खुद को उन्होंने आइसोलेट कर लिया है।
मैं देश के राजनेताओं का कोई हेल्थ या मेडिकल बुलेटिन जारी नहीं कर रहा हूँ, लेकिन इसका मक़सद है कि आख़िर हमारे राजनेता चाहते क्या हैं। अक्सर कहा जाता है कि राजनेताओं को ऐसा व्यवहार प्रदर्शित करना चाहिए ताकि जनता उसको फॉलो करे और सही रास्ते पर चलने की कोशिश करे। महात्मा गांधी हमेशा ही ऐसा करते थे।
सच है कि कोरोना या ओमिक्रॉन बहुत तेज़ी से पैर पसार रहा है। रफ़्तार बहुत तेज़ है। मरीजों की तादाद दिन दूनी रात चौगुनी से भी ज़्यादा है, टीवी चैनलों, अख़बारों और दूसरे माध्यमों पर क़रीब-क़रीब सभी राजनेताओं के विज्ञापन दिखाई पड़ते हैं जिनमें मास्क पहनना जरूरी और दो गज़ की दूरी पर जोर देने की अपील होती है, लेकिन व्यवहार इससे बिलकुल उलट।
ज़्यादातर राज्यों में राज्य सरकारों ने कोरोना का डर दिखाते हुए या बचाने के लिए रात्रि कर्फ्यू का ऐलान कर दिया है। दफ्तरों में पचास फ़ीसदी मौजूदगी, हवाई जहाज, रेलों और बसों में यात्रियों की संख्या आधी करने या फिर बाज़ारों में ऑड-ईवन फार्म्यूला चलाया जा रहा है। ख़बर मिली कि दिल्ली के एक बड़े मार्केट में दिल्ली पुलिस के कारिंदे बहुत तेज़ी और सतर्कता से मास्क नहीं पहनने वालों का चालान काट रहे हैं। दिल्ली में तो अकेले गाड़ी चलाते वक़्त भी मास्क पहनना ज़रूरी है।
मेरी मंशा इस सब व्यवस्था का विरोध करने या ऐसी कड़ाई के ख़िलाफ़ खड़ा होने की नहीं है। सवाल यह है कि क्या सारे क़ानून आम जनता के लिए हैं? मोटे तौर पर कोई भी राजनेता सार्वजनिक स्थानों पर भी मास्क पहने नहीं दिखाई देता। सारे नेता बड़ी-बड़ी रैलियों का, जनसभाओं का, आशीर्वाद यात्राओं का आयोजन कर खुलेआम कोराना क़ानूनों का उल्लघंन कर रहे हैं, लेकिन क्या किसी पुलिस अफसर या ज़िला प्रशासन की हिम्मत है कि वो उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई कर सके, बल्कि उस समय वो उनकी सेवा में खड़े दिखाई देते हैं?
कुछ दिन पहले ख़बर आई कि न्यूज़ीलैंड में प्रधानमंत्री के कोरोना नियमों का उल्लंघन करने पर जुर्माना किया गया।
वहां दस से ज़्यादा लोगों की पार्टी करने पर रोक है, प्रधानमंत्री की निजी पार्टी में मौजूद लोगों की तादाद 13 थी, लेकिन उन पर ना केवल जुर्माना लगाया गया बल्कि उसे सार्वजनिक भी किया गया। स्थानीय पुलिस का कहना था कि कोई आम आदमी का निजी पार्टी में इतने लोग होते तो शायद उसे माफ कर दिया जाता, लेकिन प्रधानमंत्री जैसे ज़िम्मेदार लोगों को इस पर माफ़ी नहीं दी जा सकती है, क्या इस तरह की किसी कार्रवाई की कल्पना हम हिन्दुस्तान में कर सकते हैं?
इस साल फरवरी-मार्च में पांच राज्यों- उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा, मणिपुर और पंजाब में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। चुनावों की तारीख़ों का ऐलान अभी नहीं हुआ है, लेकिन सभी दलों के राजनेता इन राज्यों में लगातार बड़ी-बड़ी रैलियाँ और जन सभाएँ कर रहे हैं। हद यह है कि ये राजनेता शाम को कोरोना पर रोक के लिए बैठकें करते हैं, सख्ती लागू करने का ऐलान करते हैं और दिन में बड़ी रैलियाँ करते हैं जिनमें हज़ारों लोग ना केवल मौजूद होते हैं बल्कि उनमें से ज़्यादातर के चेहरों पर न तो मास्क होता है और न ही किसी जनसभा या रोड शो में दो गज़ की दूरी रखना मुमकिन होता है। इसके साथ ही ये राजनेता खुद भी मंच पर मास्क नहीं लगाते और अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर रोज़ाना हज़ारों की भीड़ का समर्थन दिखाने की फोटो भी लगाते हैं। आज एक सरकार के बड़े मंत्री राज्य में कोरोना को लेकर चिंता जताते हुए नई गाइडलाइन का जब ऐलान कर रहे थे, तब भी उन्होंने मास्क नहीं लगा रखा था।
कई राजनेता बार-बार चुनावी रैलियों पर रोक लगाने की मांग चुनाव आयोग से कर रहे हैं। मुझे उम्मीद है कि ज़्यादातर राजनेता जानते होंगे कि चुनाव आयोग चुनावों के ऐलान के बाद ही आचार संहिता के तहत कार्रवाई कर सकता है और अभी तो हुजूर आप खुद सरकार में बैठे हैं तो फिर किससे मांग कर रहे हैं और सरकार में नहीं है तब भी अपने वोटर की हिफ़ाजत के लिए तो रैलियाँ रोक सकते हैं, लेकिन गले में घंटी बांधेगा कौन?
पिछले साल की शुरुआत में भी पश्चिम बंगाल और असम समेत कई राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए थे, तब भी रैलियाँ रोकने की मांग की गई, चुनावों को स्थगित करने की मांग की गई, लेकिन कुछ भी नहीं रुका, आख़िर में केवल रैलियाँ रोकने की औपचारिकता की गई।
इस वक़्त स्कूल, कॉलेज, सिनेमाघर, स्पा, जिम और बहुत सी चीज़ें कोरोना के नाम पर बंद कर दी गई हैं, बस रैलियों की इजाज़त है, उन पर ना तो कोई रोक है और ना कोई रोकने वाला।
स्वास्थ्य विशेषज्ञ कोरोना की तीसरी लहर की चेतावनी दे रहे हैं, मरीज़ों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है। हो सकता है कि नए वैरिएंट का असर ज़्यादा ना हो लेकिन भीड़ और रैलियाँ इसे ख़तरनाक स्तर तक पहुँचा सकती हैं। अस्पतालों और अन्य ज़रूरी व्वस्थाओं की हालत बहुत नहीं सुधरी है, बल्कि उसकी असलियत का पता तो हमें हालात गंभीर होने पर चलेगा। यहां सवाल सिर्फ़ दिल्ली सरकार, यूपी सरकार या केन्द्र सरकार भर का नहीं है। सभी राजनीतिक दलों को इस पर गंभीरता से काम करने की ज़रूरत है, रैलियों में भीड़ से उनका मन भले ही खुश होता हो, उनका रुतबा बढ़ता हो, उनकी राजनीतिक ताक़त दिखाई देती हो, लेकिन इन सबके बावजूद आम आदमी की जान को ख़तरे में डालने का जोखिम नहीं मोल लिया जाना चाहिए।
कुछ दिनों में इन पांच राज्यों में तो चुनाव आयोग चुनावों का ऐलान कर ही देगा और वहाँ आचार संहिता लागू हो जाएगी, लेकिन उसे पालन कराने का काम तो उन्हीं अफ़सरों का होगा, जो आज भी कुर्सियों पर बैठे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकारी अफ़सर नेताओं के बजाय जनता के हितों और सुरक्षा का ध्यान रखने का काम करेंगे।
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