दुनिया के देशों में नागरिक अपने राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों और अन्य नायकों को विभिन्न रूपों में देखकर कैसी प्रतिक्रियाएँ अंदर से महसूस करते हैं, उसका कोई प्रामाणिक सर्वेक्षण और विश्लेषण प्रकट होना अभी बाक़ी है। नागरिक इस बारे में या तो सोच ही नहीं पाते या फिर व्यक्त किए जाने के सम्भावित ख़तरों से ख़ौफ़ खाते हैं। इतना तो तय है कि उनके दिलों में अपने नायकों की एक विशेष छवि लगातार स्थापित होती जाती है।
अपवादों को छोड़ दें तो वर्तमान में अधिकांश नायक अपने आंतरिक व्यक्तित्व से ज़्यादा जनता के बीच बाह्य छवि को लेकर ही परेशान रहते हैं। वे अपनी भीतरी कमज़ोरियों को ऊपरी आवरण या स्वआरोपित आत्मविश्वास से ढकने की कोशिशों में ही पूरे समय लगे रहते हैं। वे उसी छवि के फिर बंदी भी हो जाते हैं। राजनेताओं के अलावा सेना के सेवानिवृत बड़े अफ़सर भी उदाहरण के तौर पर इस मामले में गिनाए जा सकते हैं।
राजनेता ऐसे किसी सर्वेक्षण का जोखिम नहीं लेते कि कितने लोग उन्हें दिल से और कितने मजबूरी में पसंद करते हैं! तानाशाही या एक ही पार्टी वाली व्यवस्थाओं (उत्तर कोरिया, चीन, रूस आदि) में तो इस तरह के सर्वेक्षण की सोच भर ही मौत का इंतज़ाम कर सकती है।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान पोलैंड के गैस चैम्बरों में हज़ारों यहूदियों को मारने के लिए डाले जाने से पूर्व क्या उनसे पूछा जा सकता था कि वे किसे पसंद और किसे नापसंद करते हैं और क्या उनके सकारात्मक जवाब को स्वीकार कर उन्हें माफ़ कर दिया जाता? प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं में भी नागरिकों के मनों को अंदर से खंगालने का कोई फूल-प्रूफ़ तरीक़ा राजनीतिक वैज्ञानिक अभी ईजाद नहीं कर पाए हैं। शायद इसीलिए बहुत सारे चुनावी सर्वेक्षण या ओपिनियन पोल्स ग़लत साबित हो जाते हैं जैसा कि 1980 और 2004 में हम देख चुके हैं।
कुछ नायक ऐसे होते हैं जिन्हें अंदर से ही ईश्वरीय अनुभूति प्राप्त रहती है कि उनके बिना कोई भी इतिहास लिखा ही नहीं जा सकेगा। इसीलिए ऐसे लोगों ने इतिहास लिखने का प्रयास भी कभी नहीं किया।
महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, जॉन एफ़ कैनेडी, नेलसन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग आदि कई उदाहरण हैं। ये लोग केवल अपनी जनता की ओर ही आँखें भरकर देखते रहे; उसकी उपस्थिति मात्र से ही अभिभूत और अनुप्राणित होते रहे। इन लोगों का इतिहास गढ़ने का काम जनता करती रही।
चले जाने के लम्बे अरसे के बाद भी ये नायक करोड़ों लोगों के दिलों में जो जगह बनाए हुए हैं, उसके लिए उन्होंने कभी उस तरह के कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रयास नहीं किए होंगे जैसे कि इस समय किए जा रहे हैं। इसका कारण तब शायद यही रहा होगा कि न तो उन्हें अपनी छवि के प्रति कोई मोह या अहंकार था और न ही उसके छिन जाने को लेकर भय। अपनी जनता के असीम प्रेम में उनका अनन्य भरोसा था।
ऊपर की पंक्तियों में व्यक्त विचार केवल दो घटनाओं के कारण उपजे हैं और दोनों का संबंध दुनिया के दो सबसे बड़े प्रजातंत्रों-अमेरिका और भारत से है। अमेरिका में चल रहे अश्वेतों के आंदोलन को धार्मिक रूप से परास्त करने के लिए राष्ट्रपति ट्रम्प व्हाइट हाउस के नज़दीक स्थित उस पुराने चर्च तक पैदल गए जो आंदोलन में क्षतिग्रस्त हो गया था। पर वहाँ पहुँचकर ट्रम्प ने सबसे पहले बाहर एक खुले स्थान पर ईसाई धर्मग्रंथ बाइबिल को हाथों में उठाकर फ़ोटो खिंचवाया।
अमेरिकी जनता, जिसमें श्वेत-अश्वेत सभी शामिल थे, ने ट्रम्प के इस कार्य को इसलिए पसंद नहीं किया कि वह अपने राष्ट्रपति की हरेक गतिविधि को पूर्व राष्ट्राध्यक्षों के आईने में ही देखती है और अपनी प्रतिक्रिया भी बिना किसी भय के खुले तौर पर व्यक्त करती है।
मोदी का लेह दौरा
दूसरा कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा पिछले दिनों लेह से कोई पैंतीस किलोमीटर दूर नीमू नामक जगह की बहु-प्रचारित यात्रा है। प्रधानमंत्री की पोशाक, सैनिकों (राष्ट्र भी) के समक्ष उनके समूचे उद्बोधन की मुद्राएँ, गलवान घाटी में हुई झड़प में घायल सैनिकों से उनकी कुशल-क्षेम पता करने कथित तौर पर एक कॉन्फ़्रेन्स हॉल को परिवर्तित करके बनाए गए (कन्वर्टिबल) अस्पताल की उनकी मुलाक़ात आदि को लेकर जो चित्र और टिप्पणियाँ प्रचारित हो रही हैं, वे उनकी उस ‘विनम्र किंतु दृढ़’ छवि को खंडित करती हैं, जो कोराना संकट के दौरान राष्ट्रीय सम्बोधनों में अब तक प्रकट होती रही हैं। मोदी के लेह दौरे पर देखिए, वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष का वीडियो -
समान परिस्थितियों को लेकर नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह की जो प्रतिमाएँ जनता के हृदयों में स्थापित हैं, वे मोदी की लेह यात्रा से काफ़ी भिन्न हैं।
विश्वभर की जनता के साथ ही हम भी जिस तरह से अपने यहाँ अमेरिकी राष्ट्रपति अथवा अन्य नेताओं को उनके बदलते हुए अवतारों में देख रहे हैं, वैसे ही हमारे प्रधानमंत्री को भी दुनिया भर में देखा और परखा जा रहा होगा।
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