पिछले सात-आठ वर्षों से वैसे तो केंद्र सरकार और सत्तारूढ़ दल की ओर से कैलेंडर देख कर हर मौक़े पर कोई न कोई इवेंट होता रहता है। यहाँ तक कि कोरोना महामारी के दौरान भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आह्वान पर ताली-थाली, दीया-मोमबत्ती-आतिशबाजी, अस्पतालों पर विमानों से फूल-वर्षा और टीका महोत्सव जैसे आयोजन हुए हैं। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा घोषित तमाम योजनाओं को उपलब्धि की तरह पेश करते हुए आयोजन किए जाते हैं, भले ही उन योजनाओं के कोई सकारात्मक परिणाम न मिले हों। लेकिन प्रधानमंत्री द्वारा लागू की गई नोटबंदी का कोई ज़िक्र न तो सरकार की ओर से किया जाता है और न ही भारतीय जनता पार्टी कभी उसका नाम लेती है।
इससे पहले भी आठ नवंबर को नोटबंदी की बरसी पर सरकार और सत्तारूढ़ दल दोनों मौन रहते रहे हैं। इस बार भी दोनों चुप्पी साधे रहे। अलबत्ता इस बार भी सोशल मीडिया में नोटबंदी छाई रही। आम लोगों ने अपनी तकलीफें साझा कीं और प्रधानमंत्री मोदी और उनके मंत्रियों के उस समय के भाषणों व बयानों के वीडियो क्लिप शेयर करते हुए उनका मजाक उड़ाया।
नोटबंदी के समय सरकार का कहना था कि उसने नोटबंदी के ज़रिए अर्थव्यवस्था से बाहर ग़ैर क़ानूनी ढंग से रखे धन को निशाना बनाया है, क्योंकि इस धन से भ्रष्टाचार और दूसरी गैरकानूनी गतिविधियां बढ़ती हैं। टैक्स बचाने के लिए लोग इस पैसे की जानकारी छुपाते हैं। सरकार का मानना था कि जिनके पास बड़ी संख्या में गैरक़ानूनी ढंग से जुटायी गयी नकदी है, उनके लिए इसे क़ानूनी तौर पर बदलवा पाना संभव नहीं होगा। लेकिन रिजर्व बैंक की अगस्त, 2018 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक़ बंद किए गए नोटों का 99.3 फीसदी हिस्सा बैंकों के पास लौट आया।
रिजर्व बैंक की यह रिपोर्ट चौंकाने वाली थी और इस बात का संकेत दे रही थी कि लोगों के पास नकदी के रूप में जिस गैर कानूनी या काला धन होने की बात कही जा रही थी, वह सच नहीं थी और अगर सच थी तो यह भी सच है कि लोगों ने अपने काले धन को सफेद यानी क़ानूनी बनाने का रास्ता निकाल लिया था। वैसे, नोटबंदी के समय ही प्रो. अरुण कुमार सहित कई जाने-माने अर्थशास्त्रियों ने सरकार की इस धारणा को ग़लत ठहराया था कि नकदी का मतलब काला धन होता है। इसलिए नोटबंदी से काला धन ख़त्म होना ही नहीं था। विदेशों में जमा भारतीयों के काले धन पर तो इसका असर पड़ने का कोई सवाल नहीं था।
तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने पैंतरा बदलते हुए कहा था कि देश में कैशलेस इकोनॉमी बनाने यानी नकदी व्यवहार कम करने के लिए नोटबंदी प्रधानमंत्री का मास्टर स्ट्रोक है।
उस समय के एक अन्य मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा था कि नोटबंदी से देश में देह व्यापार में कमी आई है। कुछ अन्य मंत्रियों ने भी नोटबंदी के फैसले का बचाव करने के लिए इसी तरह के उलजुलूल बयान दिए थे।
बहरहाल, यह प्रचार आज तक हो रहा है कि नोटबंदी के बाद देश में डिजिटल लेन-देन बढ़ गया है। यह सही है कि तब से अब तक डिजिटल लेन-देन बढ़ा है लेकिन सच यह भी है कि नकदी पर लोगों की निर्भरता भी पहले से कहीं ज्यादा हो गई है और बैंकों पर लोगों का भरोसा कम हुआ है। नोटबंदी के एलान के 6 साल बाद देश में कैश सर्कुलेशन रिकॉर्ड स्तर पर पहुँच गया है। आरबीआई द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक़ 21 अक्टूबर 2022 को खत्म हुए पखवाड़े में जनता के पास 30.88 लाख करोड़ रुपये कैश होने की बात सामने आई है, जो 4 नवंबर 2016 को मौजूद 17.97 लाख करोड़ रुपये से 71.84 फीसदी ज्यादा है।
रिजर्व बैंक की परिभाषा के मुताबिक़ जनता के हाथ में नकदी होने का मतलब है 'करंसी इन सर्कुलेशन माइनस कैश इन बैंक्स’ यानी कुल तरलता में से बैंकों की नकदी अलग कर दें तो जो बचता है वह लोगों के हाथ की नकदी है और अभी यह 30 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा है। माना जा रहा है कि कोरोना वायरस की महामारी से पैदा हुए हालात ने भी नकदी के प्रति लोगों का भरोसा बढ़ाया है।
लेकिन यह तस्वीर का एक पहलू है। इस आँकड़े से कैश बबल पर फैलाए गए मोदी सरकार के झूठ की कलई तो खुलती ही है, साथ ही यह भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि नोटबंदी के फ़ैसले के बाद देश में हाहाकार मचा। जिन रसूखदार लोगों के पास भारी मात्रा में 500 और 1000 के नोट थे, उन्हें तो बैंकों से अपने नोट बदलवाने में कोई परेशानी नहीं हुई, लेकिन सीमित आमदनी वाले आम लोगों ने अपनी भविष्य की आवश्यकताओं के लिए जो छोटी-छोटी बचत अपने घरों में कर रखी थी, उन्हें अपने नोट बदलवाने के लिए तमाम तरह की दुश्वारियों का सामना करना पड़ा। उन्हें कई-कई दिनों तक बैंकों पर लाइन में लगना पड़ा। इस सिलसिले में उन्हें पुलिस के डंडे भी खाने पड़े और बैंक कर्मचारियों से अपमानित भी होना पड़ा। इस सिलसिले में अपुष्ट आँकड़े हैं कि 200 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई।
जिस समय नोटबंदी के चलते देश भर में हाहाकार मचा हुआ था, उसी दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने अपने विदेशी दौरों में अपने इस फैसले के लिए अपनी पीठ थपथपाते हुए इसे साहसिक और ऐतिहासिक कदम बताया था।
उन्होंने विदेशी धरती पर सार्वजनिक कार्यक्रमों में विद्रूप ठहाका लगाते हुए कहा था, ''घर में मां बीमार है लेकिन इलाज के लिए जेब में पैसे नहीं है… लोगों के घरों में शादी है लेकिन नोटों की गड्डियां बेकार हो चुकी हैं।’’ उनके इस कथन पर वहां मौजूद अनिवासी भारतीयों का समूह जिस तरह तालियां पीट रहा था, वह बड़ा ही अमानवीय और वीभत्स दृश्य था।
नोटबंदी के चलते छोटे-मझोले स्तर के कारोबारियों के काम-धंधे ठप हो गए, जो अब भी पूरी तरह से पटरी पर नहीं लौट पाए हैं। लाखों लोगों को नौकरियाँ गंवानी पड़ी हैं।
आज बेरोजगारी आजाद भारत के इतिहास में सबसे ज्यादा है तो इसकी बड़ी वजह नोटबंदी भी है। जिनके पास रोजगार बचा हुआ है, उनकी आमदनी कम हुई है। किसानों की आत्महत्या का सिलसिला तो बहुत पहले से ही चला आ रहा है, लेकिन नोटबंदी के बाद कई छोटे कारोबारियों और बेरोजगार हुए लोगों ने भी असमय मौत को गले लगाया है और यह सिलसिला अभी भी थमा नहीं है।
सरकार आँकड़ों की बाजीगरी दिखाते हुए भले ही यह ढोल पीटती रहे कि भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है, लेकिन हकीकत बेहद स्याह है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत गिरने का सिलसिला भी नोटबंदी के बाद ही तेज हुआ है। देश से होने वाले निर्यात में लगातार गिरावट दर्ज हो रही है। भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में लगातार कमी आई है। नोटबंदी के कारण पहली बार यह शर्मनाक नौबत आई है कि भारत सरकार को अपना ख़र्च चलाने के लिए रिजर्व बैंक के रिजर्व कोष से एक बार नहीं, दो-दो बार पैसा लेना पड़ा है और मुनाफे में चल रहे सरकारी उपक्रमों को निजी क्षेत्रों को बेचना पड़ रहा है। इन्हीं हालात के चलते नोटबंदी के बाद जीडीपी ग्रोथ पूरी तरह बैठ गई है। वित्तीय वर्ष 2015-16 के दौरान जीडीपी की जो ग्रोथ रेट 8 फीसदी के आसपास थी वह पिछले साल 2020-21 में माइनस में 7.3 दर्ज की गई थी और 2021-22 के दौरान उसमें कुछ सुधार आया है।
संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी यूएनडीपी तमाम आँकड़ों के आधार पर बता रही है कि भारत टिकाऊ विकास के मामले में दुनिया के 190 देशों में 117वें स्थान पर है। अमेरिका और जर्मनी की एजेंसियाँ बताती हैं कि ग्लोबल हंगर इंडेक्स में दुनिया के 116 देशों में भारत 107वें स्थान पर है। संयुक्त राष्ट्र के प्रसन्नता सूचकांक भारत की स्थिति में लगातार गिरावट दर्ज हो रही है। 'वैश्विक प्रसन्नता सूचकांक-2022’ में भारत का 136वां स्थान है। 146 देशों में भारत का स्थान इतना नीचे है, जितना कि अफ्रीका के कुछ बेहद पिछड़े देशों का है।
पिछले दिनों जारी हुई पेंशन सिस्टम की वैश्विक रेटिंग में भी दुनिया के 43 देशों में भारत का पेंशन सिस्टम 40वें स्थान पर आया है। उम्रदराज होती आबादी के लिए पेंशन सिस्टम सबसे ज़रूरी होता है ताकि उसकी सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित हो सके।
भारत इस पैमाने पर सबसे नीचे के चार देशों में शामिल है। यह स्थिति भी देश की अर्थव्यवस्था के पूरी तरह खोखली हो जाने की गवाही देती है।
सरकार का कहना है कि कोरोना महामारी ने दुनिया भर की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया है। यह सच भी है लेकिन सच यह भी है कि भारत की अर्थव्यवस्था कोरोना महामारी के पहले ही रसातल में जा चुकी थी और इसकी शुरुआत नोटबंदी के बाद ही हो गई थी।
नोटबंदी के शुरुआती दौर में जब इस फ़ैसले की देश-दुनिया में व्यापक आलोचना हो रही थी और विशेषज्ञों द्वारा सवाल उठाते हुए उसे देश की अर्थव्यवस्था के लिए विध्वंसक फैसला बताया जाने लगा था तो मोदी ने गोवा में एक कार्यक्रम के दौरान भावुक और नाटकीय अंदाज में कहा था, ''मैंने भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए नोटबंदी का कदम उठाया है। मैं जानता हूं कि मैंने कैसी-कैसी ताकतों से लड़ाई मोल ली है। मैं जानता हूं कि कैसे लोग मेरे खिलाफ हो जाएंगे, वे मुझे बर्बाद कर देंगे, मुझे जिंदा नहीं छोड़ेंगे, लेकिन मैं हार नहीं मानूंगा। आप ईमानदारी को बढ़ावा देने के काम में मेरी मदद कीजिए और सिर्फ 50 दिन का समय मुझे दीजिए।’’
मोदी ने यह भाषण नोटबंदी लागू होने के पांचवें दिन यानी 13 नवंबर 2016 को दिया था। उन्होंने कहा था, ''मैंने देश से सिर्फ 50 दिन मांगे हैं। मुझे 30 दिसंबर तक का वक्त दीजिए। उसके बाद अगर मेरी कोई गलती निकल जाए, कोई कमी रह जाए, मेरे इरादे गलत निकल जाएँ तो देश जिस चौराहे पर खड़ा करके जो सजा देगा, उसे भुगतने के लिए मैं तैयार हूं।’’
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