दो वकील पुत्रों का पिता होने के नाते मुझे अक्सर कुछ क़ानूनी विरोधाभासों को जानने और समझने का अवसर मिलता रहता है। क़ानून की दुनिया में प्रयुक्त होने वाला एक महत्वपूर्ण शब्द है ‘रिज़नेबल मैन’, जिसे आप आम बोलचाल की भाषा में ‘विवेकशील, नीतिज्ञ, या तर्कशील-सत्यनिष्ठ आदि विशेषणों से निरुपित कर सकते हैं।
न्यायालयों में न्यायधीशों द्वारा दिए निर्णयों तथा कतिपय क़ानूनी प्रावधानों में ‘रिज़नेबल मैन’ की विशेषताओं को एक मानक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि ‘रिज़नेबल मैन’ के इस तथाकथित मानक आचरण को एक अकाट्य- अंतिम सत्य के रूप में आम जनता के मन मस्तिष्क में स्थापित करने का प्रयास किया जाता है, तथा इसी ‘रिजनेबल मैन’ या ‘वीमेन’ की विशेषताओं को एक मापदंड के रूप में इस्तेमाल कर अन्य लोगों के आचरण को ‘रिज़नेबल मैन’ की कसौटी पर कसा जाता है। इसी जाँच के क्रम में वैसे आचरण जो इस रिज़नेबल मैन के आचरण की कसौटी पर खरे नहीं उतरते, न्यायिक या क़ानूनी जाँच के घेरे में आ जाते हैं।
पिछले कुछ सालों से भारत में पूरी तरह से नए सामाजिक और राजनीतिक मानक एवं मापदंड स्थापित किये जा रहे हैं। इसके लिए हमें भारतीय जनता पार्टी और हमारे माननीय प्रधान मंत्री को धन्यवाद देना चाहिए। यह नया मानक ‘मिसलेड मैन’ अर्थात ‘गुमराह आदमी’ है। ‘गुमराह आदमी’ का मानक स्पष्ट रूप से उन सभी भारतीयों पर लागू होता है जिन्हें सरकार के अनुसार विदेशी शक्तियों, विपक्षी दलों या विशेषज्ञों द्वारा ‘गुमराह’ किया जा रहा है। यह नया मानक तब अधिक तीव्रता के साथ प्रस्तुत किया जाता है जब सरकार की किसी नीति या नए क़ानून के ख़िलाफ़ कोई राष्ट्रव्यापी आन्दोलन की प्रक्रिया ज़ोर पकड़ती है।
प्रधानमंत्री के अब तक के सबसे ख़राब या कुख्यात निर्णयों में से एक नोटबंदी थी। हमें बताया गया था कि नोटबंदी काले धन पर सर्जिकल स्ट्राइक है, तथा यह केवल उन लोगों को निशाना बनाने के लिए है जिनके पास छिपाने के लिए कुछ है।
जब प्रसिद्ध अर्थशास्त्रियों, सार्वजनिक नीति विशेषज्ञों और विपक्षी दलों ने नोटबंदी को सरकार द्वारा बिना किसी पूर्व परामर्श के लागू करने पर सवाल उठाए तब हमारे प्रधानमंत्री जी ने देश को बताया कि इन लोगों द्वारा जनता को गुमराह किया जा रहा है।
इसी प्रकार, जब लोग इस बात के सबूत सामने लेकर आये कि नोटबंदी के दौरान भ्रष्ट बैंक अधिकारियों और उनके निकटस्थ उद्योगपतियों ने दोनों हाथों से धन बटोरा और नयी करेंसी के साथ अभूतपूर्व जालसाजी की गई तो प्रधानमंत्री ने एक बार फिर कहा कि जनता को गुमराह किया जा रहा है। हालाँकि, आरोपों के किसी भी बिंदु पर, प्रधानमंत्री ने प्रेस या जनता के किसी सवाल का सिलसिलेवार तरीक़े से उत्तर नहीं दिया।
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नोटबंदी प्रकरण से एक बात तो स्थापित हो गयी थी कि स्वयं प्रधानमंत्री या केंद्र की बीजेपी सरकार अपने किसी भी नीतिगत फ़ैसले या स्वयं पर लगने वाले किसी भी आरोप पर बिन्दुवार स्पष्टीकरण नहीं देंगे, उल्टे हर मामले में सीधे-सीधे विपक्ष पर जनता को गुमराह करने का आरोप जड़ कर चुप्पी साध लेंगे। अर्थात, भविष्य के वर्षों में बीजेपी यह कहेगी कि वास्तव में जनता को कोई समस्या है ही नहीं, यह तो विपक्ष है जो सिर्फ़ सत्ता प्राप्ति के लिए आम जनता को गुमराह कर सरकार विरोधी माहौल तैयार कर रहा है।
नोटबंदी तो सिर्फ़ एक शुरुआत थी। अगला मामला ‘वन रैंक वन पेंशन’ (OROP) का था। यह देश के पूर्व सैनिकों से जुड़ा मुद्दा था। बीजेपी सरकार ने दावा किया कि उन्होंने सैनिकों की एक बहुप्रतीक्षित मांग ‘वन रैंक वन पेंशन’ स्वीकार कर इसे लागू किया है। हालाँकि, वास्तविकता यह थी कि पूर्व सैनिकों से जुड़े ‘वन रैंक वन पेंशन स्कीम’ को बीजेपी सरकार द्वारा लागू ही नहीं किया गया था।
यहाँ भी, विपक्ष द्वारा उठाये गए सवालों के जवाब में हमने प्रधान मंत्री को यह कहते हुए सुना कि ‘वन रैंक वन पेंशन’ पर विपक्ष जनता को गुमराह कर रहा है।
इस सन्दर्भ में सबसे हालिया उदाहरण दिल्ली की सीमा पर जारी प्रचंड किसान आन्दोलन है।
केंद्र सरकार द्वारा इसी वर्ष 20 सितंबर को राज्यसभा में तीन बेहद विवादास्पद कृषि क़ानून अलोकतांत्रिक तरीक़े से पारित किए गए। किसानों ने इन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ शुरुआत से ही अपना विरोध दर्ज कराना आरम्भ कर दिया तथा इन क़ानूनों की वापसी की माँग के साथ बड़ी संख्या में दिल्ली की तरफ़ कूच किया। कांग्रेस ने इस आधार पर किसानों के इस आन्दोलन का लगातार समर्थन दिया कि ये विवादास्पद कृषि क़ानून औसत किसान के हितों पर गंभीर चोट हैं, तथा देश की समस्त कृषि प्रणाली को नियंत्रित करने के लिए शक्तिशाली उद्योगपतियों और बड़े व्यवसायियों को खुली छूट देते हैं।
कांग्रेस ने इस सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण तर्क दिया कि इन कृषि क़ानूनों को किसानों, उनके प्रतिनिधियों तथा प्रभावित होने वाले अन्य वर्गों से बातचीत किये बगैर पारित करा दिया गया है। अत: सरकार द्वारा इतने मनमाने और निरंकुश तरीक़े से इन क़ानूनों के पारित कराये जाने के बाद से ही किसानों तथा अन्य लोगों में बेहद ग़ुस्सा और असंतोष है।
सड़क पर हज़ारों किसानों की भीड़ को देखकर प्रधानमंत्री तथा केंद्र सरकार को कम से कम अब यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि किसानों की चिंतायें वाजिब हैं। हालाँकि इस बार भी प्रधानमंत्री और उनके वफादार, अपनी ‘गुमराह आदमी’ वाली थ्योरी का सहारा लेकर किसानों को ‘ग़लत’ या ‘गुमराह’ घोषित कर सारे आन्दोलन को विपक्ष द्वारा प्रायोजित गुमराह लोगों का ग़ैर-ज़रूरी आन्दोलन कह कर अपना पल्ला झाड़ सकते हैं। वैसे भी सरकार के कई मंत्री ‘गुमराह जनता’ वाले स्पष्टीकरण के साथ लोगों के बीच जाना आरम्भ कर चुके हैं।
उदाहरण के लिए बीजेपी के एक केंद्रीय मंत्री ने कहा है कि किसान आन्दोलन पाकिस्तान और चीन द्वारा प्रेरित और प्रायोजित किया जा रहा है। इन आरोपों के लिए कोई इन माननीय केंद्रीय मंत्री को दोष नहीं दे सकता, क्योंकि उन्होंने प्रधानमंत्री के विचारों की महान पुस्तिका से सिर्फ़ एक विचार लेकर उसे लोगों के सामने प्रस्तुत किया है।
किन्तु, जन आन्दोलनों प्रति इस प्रकार की प्रतिक्रिया, किसी भी लोकतान्त्रिक देश की सरकार की नहीं हो सकती।
यह मानना कि भारत का नेतृत्व एक ‘मसीहा’ के द्वारा किया जा रहा है, तथा सिर्फ़ उसी मसीहा को सच्चे मार्ग का पता है, और यह कि हम सब केवल भेड़ें हैं, जिनका काम उस मसीहा के आदेश को बिना कुछ कहे सुने मान लेना है; भारत के उस लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों और मूल्यों के ख़िलाफ़ है जो क़ानून बनाते समय ‘शांतिपूर्ण विरोध’ और ‘सार्वजनिक भागीदारी’ को बहुत अधिक महत्व देता है। इस क्रम में एक दिलचस्प बयान नीति-आयोग प्रमुख - अमिताभ कांत का है जिन्होंने कहा है कि ‘बहुत अधिक लोकतंत्र’ भारत में सुधार के लिये क़ानून बनाने की प्रक्रिया को कठिन बनाता है।
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सरकार को यह महसूस करना चाहिए कि भारत में क़ानून बनाना कठिन है, क्योंकि इसमें जनता की भागीदारी की आवश्यकता है। अगर क़ानून बनाने के क्रम में जनता की भागीदारी सुनिश्चित नहीं की जाएगी तो उसके सामने शांतिपूर्ण विरोध ही अंतिम रास्ता होगा। क़ानून बनाने के क्रम में सरकार के सामने पहला विकल्प- निर्णय लेने की प्रक्रिया में हितधारकों को शामिल करना है। अगर सरकार क़ानून निर्माण के दौरान इस विकल्प का इस्तेमाल नहीं करेगी तो जनता के सामने उक्त क़ानून के ख़िलाफ़ शांतिपूर्ण विरोध के अलावा कोई अन्य रास्ता नहीं बचता।
ऐसे में अगर बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार किसानों, सैनिकों, जनता के प्रतिनिधियों और आम जनता के आन्दोलनों को सिर्फ़ गुमराह लोगों का आन्दोलन कहकर नज़रअंदाज़ कर रही है तो वह न सिर्फ़ लोकतंत्र की जड़ों को कमज़ोर कर रही है बल्कि सभी भारतीयों की बुद्धिमत्ता का अपमान भी कर रही है।
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