इस समय संसद का मॉनसून सत्र चल रहा है, जिसमें तीन दिन के भीतर दोनों सदनों के 27 विपक्षी सदस्यों को एक सप्ताह के लिए निलंबित किया जा चुका है। इन विपक्षी सांसदों का गुनाह यह है कि वे सदन में महंगाई, बेरोजगारी, जीएसटी और अंतरराष्ट्रीय बाजार में रुपए की गिरती कीमत का मुद्दा उठा कर सरकार से जवाब चाहते थे। चूंकि विपक्ष के इन सवालों का सरकार के पास कोई समाधानकारक जवाब है नहीं, लिहाजा नियमों का हवाला देकर और उनकी मनमानी व्याख्या कर इन सवालों को उठाने से रोक दिया गया। जिन सदस्यों ने नियमों के हवाले से ही इन मुद्दों पर बहस के जोर दिया उन्हें सदन की मर्यादा भंग करने का दोषी करार देकर निलंबित कर दिया गया।
सत्ता पक्ष के प्रस्ताव पर विपक्षी सदस्यों के खिलाफ दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों की यह कार्रवाई कोई पहली बार नहीं हुई है बल्कि पिछले कुछ वर्षों से यह रवायत का रूप ले चुकी है। यह और बात है कि जब भी संसद का सत्र शुरू होता है तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी टीवी कैमरों के सामने के बहुत बड़ी-बड़ी बातें कहते हुए दिखते हैं। वे संसद को रचनात्मक संवाद का सशक्त माध्यम बताते हुए विपक्ष से सहयोग की अपील करते हैं। वे देश को और विपक्षी दलों को भरोसा दिलाने की कोशिश करते है कि उनकी सरकार हर मुद्दे पर खुले मन से चर्चा के तैयार है। इन बातों के जरिए यह आभास कराने की कोशिश होती है कि सरकार संसद का बहुत सम्मान करती है। लेकिन जब संसद की कार्यवाही शुरू होती है तो ये सारी बातें हवा हो जाती हैं।
अव्वल तो नियमों का हवाला देकर और उनकी मनमानी व्याख्या करते हुए विपक्षी सदस्यों को मुद्दे उठाने की इजाजत नहीं दी जाती। अगर किसी विपक्षी सदस्य को कोई मामला उठाने की इजाजत दी भी जाती है तो सत्ता पक्ष की ओर से टोका-टोकी और शोरगुल मचा कर उसकी आवाज को दबा दिया जाता है। इस समय जारी संसद के सत्र में भी यही सब हो रहा है। संसद की कार्यवाही को लेकर मीडिया में जिस तरह की खबरें आ रही हैं, उससे लग रहा है कि विपक्ष फालतू मुद्दों को लेकर हंगामा कर रहा है, जिसके चलते संसद में कोई काम नहीं हो पा रहा है। सरकार की ओर से भी कुछ इसी तरह की प्रतिक्रिया आ रही है और विपक्ष पर गैर जिम्मेदाराना बर्ताव का आरोप लगाया जा रहा है।
सत्ता पक्ष की ओर से कहा जा रहा है कि विपक्ष संसद को ठप कर लोकतंत्र और जनता का अपमान कर रहा है। मगर हकीकत यह है कि संसद का यह सत्र उसी तरह चल रहा है जिस तरह सरकार चलाना चाहती है। विपक्षी हमलों की धार कुंद करने के लिए सत्र शुरू होने से पहले ही ढेर सारे शब्दों असंसदीय शब्दों की सूची में डालने का हास्यास्पद काम भी हो चुका है। इसके अलावा संसद परिसर में धरना, प्रदर्शन जैसे विरोध के लोकतांत्रिक तरीकों पर भी रोक लगा दी गई है।
जाहिर है कि सरकार अपने लिए हर असुविधाजनक सवाल से बचना चाहती है। वह असहमति की कोई आवाज सुनना नहीं चाहती। जिस तरह हर सत्र में कथित हंगामे के बीच बिना बहस के जोर-जबरदस्ती से महत्वपूर्ण विधेयक पारित करा लिए जाते हैं उसी तरह इस बार यही हो रहा है। गौरतलब है कि इस सत्र में सरकार ने कुल 32 विधेयक पारित कराने का लक्ष्य रखा है।
हर बार की तरह इस बार संसद न चलने देने के लिए विपक्ष को दोषी ठहराया जा रहा है और कहा जा रहा है कि कुछ लोग देश के विकास को पटरी से उतारना चाहते हैं। सरकार और सरकारी पार्टी की ओर से संसद न चलने देने को 'कुछ ताकतों’ का 'मकसद’ तो बताया जा रहा है, मगर बड़ा सवाल है कि कौन ऐसा कर रहा है और ऐसा होने से रोकने यानी संसद को सुचारू रूप से चलाने के लिए सरकार क्या कर रही है? सवाल यह भी है कि संसद नहीं चलने का फायदा किसे हो रहा है?
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दरअसल अब इस बात का किसी के लिए कोई मतलब नहीं रह गया है कि संसद की एक मिनट की कार्यवाही पर आम जनता की कमाई का कितना पैसा खर्च होता है। सरकार यह कह कर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकती कि विपक्ष संसद नहीं चलने दे रहा है। संसद की कार्यवाही सुचारू रूप से चले, यह जिम्मेदारी मूल रूप से सरकार की है। लेकिन सरकार के लिए यह जिम्मेदारी निभाना 'कुछ खास परिस्थिति’ में राजनीतिक रूप से घाटे का सौदा होता है, लिहाजा वह भी नहीं चाहती कि संसद में सुचारू रूप से काम हो।
संसद की कार्यवाही सही तरीके से चले और किसी न किसी मसले को लेकर विवाद और शोर-शराबा चलता रहे, यह विपक्ष के लिए नहीं, बल्कि सरकार के सुविधाजनक होता है। ऐसी स्थिति में सरकार कई मुश्किल सवालों के जवाब देने से बच जाती है। विपक्ष आम लोगों से जुड़े मुद्दे नहीं उठा पाता है। जहां तक विधायी कामकाज का सवाल है तो वह तो सरकार अपने बहुमत के बूते मनमाने तरीके से करा ही लेती है। गौरतलब है कि पिछले कुछ सालों से जरूरी विधेयक ही नहीं बल्कि बजट भी बिना किसी बहस के पारित कराया जा रहा है। कहने की आवश्यक नहीं कि इन सब कामों में लोकसभा स्पीकर और राज्यसभा के सभापति भी सरकार के मददगार बने हुए हैं।
आठ साल पहले प्रधानमंत्री का पद संभालते वक्त जब नरेंद्र मोदी ने संसद के प्रति सम्मान जताते हुए उसकी सीढ़ियों पर माथा टेका था और दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने पर संविधान के आगे शीश झुकाया था तो उनकी खूब वाह-वाही हुई थी, लेकिन आम तौर पर उनका व्यवहार उनकी उस भावना के विपरीत ही रहा है। खुद प्रधानमंत्री संसद सत्र के दौरान ज्यादातर समय संसद से बाहर ही रहते हैं।
पीएम मोदी जब 2014 में पहली बार संसद में आए तो उन्होंने अंदर आने से पहले इस काम को अंजाम दिया (फाइल फोटो)
लोकसभा और राज्यसभा में वे उसी दिन आते हैं जिस दिन उन्हें भाषण देना होता है। पिछले आठ साल के दौरान कई महत्वपूर्ण फैसले उन्होंने संसद की मंजूरी के बगैर ही किए हैं। कई कानूनों को अध्यादेश के जरिए लागू करने में अनावश्यक जल्दबाजी की है और कई विधेयकों, यहां तक कि संविधान संशोधन विधेयकों को भी स्थापित संसदीय प्रक्रिया और मान्य परंपराओं को नजरअंदाज कर बिना बहस के पारित कराया है। यही नहीं, राष्ट्रीय सुरक्षा और सीधे आम लोगों से जुड़े मुद्दों पर बहस से भी उनकी सरकार बचती रही है और विपक्ष की आवाज को दबाया गया है।
दरअसल संसद की गरिमा और सम्मान तो इस बात में है कि उसकी नियमित बैठकें हों। उन बैठकों में दोनों सदनों के नेता ज्यादा से ज्यादा समय मौजूद रहे, विधायी मामलों पर ज्यादा से ज्यादा चर्चा हो और आम सहमति बनाने के प्रयास हों। अगर आम सहमति नहीं बने तो ऐसे विषय संसदीय समितियों को भेजे जाएं और अगर राष्ट्रीय महत्व का कोई मुद्दा हो तो उस पर विचार के लिए दोनों सदनों की प्रवर समिति बने या संयुक्त संसदीय समिति बनाई जाए। इन समितियों की नियमित बैठक हो और इन बैठकों में सदस्य पार्टी लाइन से ऊपर उठ कर विषय के विशेषज्ञों की राय सुनें और वस्तुनिष्ठ तरीके से अपनी राय बनाएं।
उल्लेखनीय है कि इन संसदीय समितियों का काम कोई फैसला करना नहीं होता है, बल्कि जिन मसलों पर संसद में ज्यादा विस्तार से चर्चा नहीं हो सकती, उन विषयों को या विधेयकों को संसदीय समितियों के पास भेजा जाता है, जहां विषय के विशेषज्ञ उस मसले के बारे में समझाते हैं। उसके हर पहलू पर विचार किया जाता है। फिर उस आधार पर समिति एक रिपोर्ट तैयार करके संसद को देती है। अंतिम फैसला संसद को ही करना होता है।
मौजूदा सरकार ने इन संसदीय समितियों को लगभग अप्रासंगिक या गैर जरूरी बना दिया है। अव्वल तो लोकसभा और राज्यसभा सचिवालय की ओर से किसी न किसी बहाने समिति की बैठक ही नहीं होने दी जाती है। अगर किसी समिति की बैठक होती भी हैं तो उसके सदस्य पार्टी लाइन से ऊपर उठ कर विचार नहीं करते हैं। सत्ता पक्ष अपने बहुमत के दम पर संसद की स्थायी समितियों के काम में बाधा डालता है और रिपोर्ट मंजूर नहीं होने देता। इससे जाहिर होता है कि सरकार संसद को अपने रसोईघर की तरह इस्तेमाल कर रही है, जहां वही पक रहा है जो सरकार चाहती है।
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