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वर्तमान के बुरे राजनीतिक दौर में ऊपरी तौर पर नज़र ऐसा ही आ रहा है कि जनता पूरी तरह से जड़ या स्थितप्रज्ञ हो गई है! उस पर किसी भी चीज अथवा बड़ी से बड़ी घटना का भी कोई असर नहीं पड़ रहा है। वह ऐसा जता रही है कि नीतीश कुमार द्वारा विपक्षी गठबंधन को लतिया कर प्रधानमंत्री मोदी के साथ पुनः हाथ मिला लेने अथवा प्रतिष्ठित ‘लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स’ के स्नातक (चौधरी चरणसिंह के पोते) जयंत चौधरी द्वारा अखिलेश यादव की पार्टी के साथ धोखाधड़ी कर एनडीए के साथ जुड़ जाने की कार्रवाई से भी उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा है! यह संपूर्ण सत्य नहीं है।
जनता सब कुछ देख रही है पर जान-बूझकर न तो रो रही है और न ही हँस रही है। वह सन्नाटा ओढ़कर दल-बदलुओं का मुजरा देखते हुए अपनी बारी का इंतज़ार कर रही है। दबी ज़ुबान से पूछने अवश्य लगी है कि चुनावों के पहले और कितनों को ‘भारत रत्न’ बनाया जाएगा! सरकार की मदद के लिए कई नाम भी सुझाए जा रहे हैं। जैसे कांशीराम, बीजू पटनायक, राजशेखर रेड्डी, करुणानिधि, बाल ठाकरे, शरद पवार, आदि। ममता और केजरीवाल के पुरखों में भी किसी योग्य नाम की तलाश की जा रही है। ममता के बाद केजरीवाल ने भी पंजाब और दिल्ली में अकेले ही चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी है।
नये साल की फ़रवरी की नौ तारीख़ तक देश को पाँच नये ‘भारत रत्न’ प्राप्त हो चुके थे। गृह मंत्रालय की वेबसाइट पर उल्लेखित जानकारी का हवाला देते हुए सोशल मीडिया पर प्रचारित किया जा रहा है कि साल में तीन से अधिक प्रतिभाओं को इस सर्वोच्च सम्मान से नवाज़ा नहीं जा सकता। लोकसभा चुनाव की तारीख़ें घोषित होना शेष है। दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि अवमूल्यन प्रतिष्ठित अलंकरण का हो रहा है या सम्मानित होने वाली विभूतियों का अथवा दोनों का!
इस बात की जानकारी भी मिलना बाक़ी है कि जो महानुभाव इस गौरवशाली सम्मान से पूर्व में अलंकृत हो चुके हैं वे या उनके परिवारजन इस समय कैसा महसूस कर रहे हैं! विश्वास के मत पर बोलते हुए तेजस्वी यादव ने 12 फ़रवरी को बिहार विधानसभा में आरोप लगाया कि ‘भारत रत्न’ का उपयोग ‘डीलिंग’ के लिए किया जा रहा है। नीतीश कुमार बैठे हुए अपने पूर्व उपमुख्यमंत्री को सुनते रहे।
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को ‘भारत रत्न’ दिये जाने के बाद से जो घटनाक्रम बना है वह इसी ओर इशारा करता है कि ईवीएम के दुरुपयोग को लेकर व्यक्त की जा रही आशंकाओं के बावजूद भाजपा भयभीत है!
नीतीश कुमार सरकार द्वारा सोमवार को विश्वास का मत प्राप्त करने के पहले चले घटनाक्रम ने बिहार की चालीस सीटों के भविष्य को लेकर भाजपा की चिंताओं को उजागर कर दिया। राहुल गांधी के कदम अभी राम जन्म भूमि पर पड़ना बाक़ी हैं। वे यूपी को ग्यारह दिन देने वाले हैं और हो सकता है राम-लला के दर्शन अखिलेश के साथ ही करें।
भाजपा अपनी रणनीति में कोई चूक करती नज़र आती है। पार्टी को ग़लतफ़हमी हो गई लगती है कि विपक्ष के कुछ नेताओं के समर्थन की किडनियां ख़रीद लेने या जाँच एजेंसियों की मदद से उनकी राजनीतिक नसबंदी कर देने भर से बाज़ी उसके पक्ष में पलट जाएगी। उसे कुछ और टोटका आज़माना पड़ेगा। भाजपा विपक्ष को ही जनता समझ बैठी है जबकि हक़ीक़त उलट है। इस समय जनता ही विपक्ष के रोल में है। ख़रीदना समूची जनता को पड़ेगा।
करोड़ों ग़रीबों को मुफ़्त का अनाज बाँटा जा सकता है पर उन्हें भारत रत्नों से विभूषित करके भी राजनीतिक विपक्ष की तरह तोड़ा नहीं जा सकता। न तो नीतीश और न ही जयंत चौधरी ही देश के असली विपक्ष का प्रतिनिधित्व करते हैं। ममता और केजरीवाल को तोड़ लिया जाए तब भी जनता का विपक्ष नहीं टूटेगा। राजनीतिक विपक्ष को तोड़कर जनता के विपक्ष पर जीत नहीं दर्ज कराई जा सकती है।
सात फ़रवरी को राज्यसभा में दिए अपने भाषण में प्रधानमंत्री ने आपातकाल के दिनों की ज़्यादतियों का हवाला दिया था। भाजपा अगर मानकर चल रही है कि उसकी चुनावी रथयात्रा अघोषित आपातकाल के ‘कर्तव्य पथ’ से गुज़रकर भी जनता के प्रतिरोधों का मुक़ाबला कर लेगी तो वह ग़लती पर है। 1975 के आपातकाल में पूरा विपक्ष या तो जेलों में बंद था या भूमिगत था फिर भी जनता के विपक्ष ने इंदिरा गांधी को हरा दिया था। सरकारों को अपदस्थ करने के लिए राजनीतिक विपक्ष की नहीं बल्कि निष्पक्ष जनता की ज़रूरत पड़ती है।
राहुल गांधी इस जादूगरी को समझ गए हैं। वे ख़ुद के ‘मन की बात’ कम कर रहे हैं और जनता के मन की ज़्यादा सुन रहे हैं। भाजपा को जब तक समझ में आएगा कि राहुल अपनी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के ज़रिए कांग्रेस को नहीं बल्कि जनता के विपक्ष को मज़बूत करने सड़कों पर निकले हुए हैं तब तक काफ़ी देर हो चुकी होगी। संपूर्ण राजनीतिक विपक्ष भी अगर रत्नों की भेंट चढ़ जाए तब भी जनता का विपक्ष अब देश की स्थायी ताक़त बनने जा रहा है। जनता को इस बात से फ़र्क़ नहीं पड़ेगा कि दिल्ली में किस पार्टी या गठबंधन की हुकूमत क़ायम है। भाजपा को विपक्ष के गठबंधन से नहीं बल्कि जनता की एकता से डरना चाहिए! बहुमत के बल पर विपक्ष का संसद से निष्कासन किया जा सकता है, जनता को उसके देश से निष्कासित नहीं किया जा सकता है।
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