प्रसिद्ध मनोचिकित्सक कालरा और भूगरा का कहना है कि “यौन हिंसा उन संस्कृतियों में अधिक आम है जो पुरुषों की श्रेष्ठता और महिलाओं की सामाजिक और सांस्कृतिक हीनता की धारणा को बढ़ावा देती हैं”। भुवनेश्वर, ओडिशा में स्थित भरतपुर पुलिस थाने में घटी घटना इसकी पुष्टि करती है। पिछले रविवार, 15 सितंबर, को एक महिला वकील, रेस्टोरेंट की मालिक और इंडियन आर्मी के कैप्टन की मंगेतर के साथ थाने में जो घटित हुआ वो विचलित करने वाला है। हर क्षेत्र में महिलाओं की तमाम सफलताओं के बावजूद पुरुषों में व्याप्त श्रेष्ठता की भावना और महिलाओं को हीन समझने का दृष्टिकोण व्यापक आपदा का रूप धारण कर चुका है।
हर तरह से सशक्त यह महिला अपने मंगेतर के साथ जब थाने में कुछ गुंडों की शिकायत करने जाती है तो उसे पुलिस स्टेशन में यौन हिंसा का शिकार होना पड़ता है। पीड़िता कहती हैं कि- जब उन्होंने भुवनेश्वर स्थित भरतपुर थाने में जाकर उन गुंडों की शिकायत दर्ज करवाने की कोशिश की तो थाने में मौजूद महिला कर्मियों ने उनकी बात नहीं सुनी। जब मैंने अपनी शिकायत पर जोर डाला और अपनी परेशानी को लेकर बोलना शुरू किया तो पुलिस ने मेरे मंगेतर को कस्टडी में ले लिया और जब मैंने विरोध किया तो “दो महिला अधिकारियों ने मेरे बाल खींचना शुरू कर दिया और मुझे पीटना शुरू कर दिया। जब मैंने उनसे रुकने की विनती की तो वो मुझे थाने के गलियारे से घसीटकर ले गए”।
जरा सोचकर देखिए कोई शिक्षित व्यक्ति जो अपना जीवन गरिमा के साथ जीना चाहता है उसे अगर थाने में बाल पकड़कर घसीटा जाएगा तो क्या एहसास होगा? लेकिन पीड़िता के मुताबिक़ पुलिस की क्रूरता यहीं नहीं रुकी- “महिला पुलिसकर्मियों ने मेरी जैकेट उतार दी और उससे मेरे दोनों हाथ बांध दिए। उन्होंने मेरे दोनों पैरों को दुपट्टे से बांध दिया। बाद में एक पुरुष पुलिसकर्मी आया और मेरी ब्रा उतारने के बाद लगातार मेरी छाती पर लात मारने लगा। फिर थाने का इंस्पेक्टर आया, अपनी पैंट की जिप खोली, अपने गुप्तांग दिखाए और मुझे चिढ़ाने लगा।'' घटना के चार दिन बाद, पीड़ित 19 सितंबर को जनता के सामने आई तब जाकर ये बातें सामने आईं। एक सामान्य नागरिक होने के नाते अब मुझे यह नहीं समझ आ रहा है कि ‘क़ानून का पालन’ करने वाला नागरिक होना कोई अच्छी बात है या यह मेरा डर है? क्योंकि जब क़ानून का पालन करवाने वाले दरिंदगी करने लगें, थाने के अंदर पुलिस की जगह जानवरों का हुजूम इकट्ठा हो जाए और पुलिस अधिकारी जिन्हें महिलाओं की सुरक्षा करनी चाहिए, जो हर साल ‘महिला शक्ति’ को लेकर कार्यक्रम चला रहे हैं वो अगर थानों में महिलाओं के साथ अपनी घृणित फैंटसी पूरी करने लगें तो क्या कानून के मायने ही विलुप्त नहीं हो जाएंगे?
सवाल यह है कि जब एक सफल और समृद्ध पृष्ठभूमि से आने वाली महिला जो स्वयं वकील है, प्रदेश की राजधानी में रेस्टोरेंट की मालिक है, जिसके पिता स्वयं सेना से रिटायर्ड ब्रिगेडियर हैं और मंगेतर सेना में कैप्टन है, अगर उसके साथ यह सब हो सकता है तो आम महिलाओं के साथ थाने में क्या व्यवहार होता होगा? उन महिलाओं के साथ थाने में क्या व्यवहार होता होगा जो बलात्कार की शिकायत लेकर पहुँचती होंगी? और जरा सोचिए उन महिलाओं के बारे में जो किसी पुलिसकर्मी की शिकायत लेकर पहुंची हों?
अब अगला सवाल है कि जिन पर स्वयं आरोप है वह कैसे बता सकते हैं कि असल में क्या हुआ था? अगर उन्होंने बताया भी तो इन तथाकथित ‘मजबूत’ और ‘ईमानदार’ DCP साहब ने पुलिस थाने के वर्जन पर भरोसा क्यों कर लिया?
समझदारी इसमें होती कि जब तक जांच के बाद सभी बातें सामने नहीं आतीं प्रशासन को महिला के साथ खड़ा होना चाहिए था। लेकिन वो DCP जो कहा करते थे कि ‘महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार बंद करें या फिर भुवनेश्वर छोड़ें’, बुरी तरह फेल हो गए। उनकी नाक के नीचे महिला का यौन शोषण हुआ, रेस्टोरेंट के बाहर गुंडों ने बदतमीजी की लेकिन उनकी पुलिसिंग कहीं नज़र नहीं आई। DCP साहब को जवाब देना चाहिए कि महिला के कहने पर FIR क्यों नहीं लिखी गई? अगर उनकी शिकायत है कि वो चीख-चिल्ला रही थीं तो सवाल यह है कि उन्हें इसकी ज़रूरत क्यों पड़ी? क्या एक महिला को अपनी शिकायत दर्ज करवाने के लिए अग्नि परीक्षा देनी पड़ेगी? महिला को चोट क्यों लगी? महिला के मंगेतर और सेना में कैप्टन गुरवंश सिंह गोसल की पैंट क्यों उतरवाई गई? कैप्टन को क्यों पुलिस कस्टडी में रखा गया? पुलिस को बताना चाहिए कि आखिर वो FIR क्यों नहीं लिखना चाहती थी?
सोशल मीडिया में महिला को बदनाम करने के लिए तमाम वीडियो जारी किए गए हैं। यह बताने की कोशिश जारी है कि उन्होंने शराब पी रखी थी? संभवतया यह सब इसलिए किया जा रहा है ताकि भरतपुर पुलिस स्टेशन के कुकर्मों को छिपाया जा सके। पुलिस व्यवस्था में यह कोई नई बात नहीं है। हाल में नेटफलिक्स पर आई फिल्म ‘रिबेल रिज’ (2024), देखनी चाहिए। यह फिल्म कोई सिनमैटिक मास्टरपीस तो नहीं है लेकिन यह बताने को पर्याप्त है कि पुलिस पहले ग़लती करती है, अपराध को बढ़ावा देती है और जब कोई यूएस मरीन, टेरी रिचमण्ड जैसा नागरिक उससे टकराता है तो समझौता करके अपने कुकर्मों को छिपाती है। जब टेरी जैसा मजबूत आदमी घुटने टेकने/समझौता करने से मना कर देता है तो खुद को बचाने के लिए पुलिस महकमा हत्याएं करना शुरू कर देता है। पुलिस उगाही का रैकेट चला रही है, पैसे लेकर जेल भेजना, जेल से बाहर निकालना सब चालू है, जज भी मिला हुआ है। लेकिन नायक सक्षम है, ट्रेंड है इसलिए लड़ पाता है। यह फिल्म है इसलिए इसका अंत बेहतर हुआ, पुलिस की पोल खुल गई और नायक बच गया। लेकिन दैनिक जीवन में ऐसा नहीं होता। भुवनेश्वर में यही होता दिख रहा है।
पुलिस के लिए थाने के भीतर यौन उत्पीड़न करना कोई नई बात नहीं है। 2020-21 का नवदीप कौर का मामला ही ले लीजिए। नवदीप उस समय 23 साल की थीं, मज़दूर अधिकार संगठन जुड़ी एक जुझारू दलित, महिला ऐक्टिविस्ट। एक दिन जब वो सिंघू बॉर्डर के पास स्थित एक फैक्टरी के पास धरना देने गईं तो सोनीपत पुलिस ने उन्हें अरेस्ट कर लिया। उनके खिलाफ दो FIR की गईं। मांग सिर्फ इतनी थी कि मजदूरों को उनका वेतन भत्ता दे दिया जाए लेकिन उनपर चार्ज लगाए गए- दंगा फैलाने की कोशिश और हत्या का प्रयास के। समझा जा सकता है कि नवदीप के धरने से मिल मालिकों को दिक्कत हो रही होगी। बात यहाँ तक भी ठीक थी। लेकिन पुलिस को तो बर्बरता के बिना ठंडक नहीं मिलने वाली थी। उन्हें करनाल जेल भेजे जाने से पहले तक लगातार पीटा गया, वो कहती हैं कि वहां कोई “महिला पुलिस कांस्टेबल मौजूद नहीं थी। पुरुष पुलिसकर्मी… मुझे बालों से घसीटकर पुलिस वैन में ले गए… मुझे महिला पुलिसकर्मियों ने नहीं बल्कि पुरुष पुलिसकर्मियों ने पीटा। वे मेरे ऊपर बैठ गए और मुझे पीटा…जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल करके मुझे गाली दी और मेरे निजी अंगों पर भी हमला किया”।
नवदीप ने जब जेल में अन्य महिलाओं से बात की तो पता चला मामला और भी अधिक गंभीर है। उन्हें अनगिनत महिलायें मिलीं जिन्हें हिरासत में पीटा गया, यौन उत्पीड़न किया गया, बलात्कार किया गया और हाथ-पैर तोड़ दिए गए। DCP प्रतीक को सोनी सूरी का मामला भी याद करना चाहिए- सोनी को माओवादी होने के शक में गिरफ्तार कर लिया गया था। इसके बाद उसका यौन उत्पीड़न किया गया। सोनी को भीषण यौन यातनाएँ दी गई थीं उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। उन्होंने अपने वकील को लिखे पत्र में अपना बयान देते हुए कहा था कि- उसे नग्न अवस्था में खड़े होने के लिए मजबूर किया गया था, जबकि "(पुलिस अधीक्षक) अंकित गर्ग अपनी कुर्सी पर बैठे मुझे देख रहे थे... मेरे शरीर को देखते हुए, उन्होंने मुझे गंदी भाषा में गालियाँ दीं और मुझे अपमानित किया (2011)।"; आसिफ़ा बानो- 8 साल की बच्ची- के साथ हुई वीभत्स घटना में पुलिस शामिल थी (2018); 32 साल की मणिपुरी महिला मनोरमा को आतंकवादी होने के शक में असम राइफल्स ने पकड़ा और बाद में उसकी हत्या कर दी गई, पोस्टमार्टम से पता चला कि उसके साथ गैंग रेप किया गया था (2004)। 2011 में यूपी में 14 साल की सोनम अली घर से गायब हो गई, जब खोजा गया तो वो पुलिस स्टेशन में मृत पाई गई, उसके साथ बलात्कार की कोशिश की गई थी, बाद में मार दिया गया। ऐसे मामलों की फेहरिस्त बहुत लंबी है।
इसीलिए मैं कहता हूँ कि पुलिस का वर्जन ‘न्याय’ का वर्जन नहीं है। अगर मामला पुलिस के ही ख़िलाफ़ हो तो वह एक सिस्टम की तरह लड़ती है और नागरिक को अकेले लड़ना पड़ता है। पुलिस के पास सबूत बनाने और बिगाड़ने के संसाधन उपलब्ध हैं जबकि नागरिक के पास अपना ही पक्ष रखने के लिए संसाधनों की कमी पड़ जाती है। इसीलिए अक्सर जिन नागरिकों से यह देश बना है, जिन्हें संविधान समर्पित किया गया है, जिनके लिए तमाम प्रशासन है वो फेल हो जाते हैं और कानून की आड़ में अपराध करने वाले जीत जाते हैं। आँकड़े भी इसकी तसदीक कर रहे हैं। जॉर्जटाउन इंस्टीट्यूट द्वारा जारी महिला शांति और सुरक्षा सूचकांक-2023 के अनुसार, भारत महिलाओं को समावेशी माहौल देने व न्याय और सुरक्षा के मामले में 177 देशों में 128वें स्थान पर रहा। सूचकांक में यह भी कहा गया है कि भारत 2022 में महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाली राजनीतिक हिंसा के मामले में शीर्ष 10 सबसे ख़राब देशों में से एक है। कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से महिलाओं की सुरक्षा अधिनियम, 2013 (POSH अधिनियम) जैसे क़ानून भी बेअसर है, क्योंकि महिलाओं के यौन उत्पीड़न को नकारने की प्रवृत्ति यहाँ की सांस्कृतिक विशेषता और सामाजिक सच्चाई बनती जा रही है।
इसलिए ओडिशा मामले में कोई जल्दबाजी करने से पहले DCP प्रतीक और तमाम सोशल मीडिया में उपस्थित ‘फ्लोटिंग मोरलिटी’ के मालिकों को चाहिए कि पुलिस और प्रशासन के मूल चरित्र को समझें और फिर समाज में महिलाओं की स्थिति को उसके साथ इन्टीग्रेट करके ही किसी विचार का निर्माण करें। हमारे विचार, हमारा एक सोशल मीडिया पोस्ट भर नहीं होना चाहिए। ज़रूरत है एक संवेदनशील और मज़बूत संदेश की, तमाम उहा-पोह के बावजूद महिलाओं के साथ खड़े रहने की।
पीएम मोदी क्वाड की मीटिंग में शामिल होने के लिए अमेरिका गए हैं ताकि हिन्द महासागर को सुरक्षित किया जा सके। उन्हें ओडिशा के अपने मुख्यमंत्री को बताना चाहिए कि यदि देश की सेवा में लगा कैप्टन और उसकी प्रेमिका पुलिस से ही सुरक्षित नहीं होगी तो देश को बचाने के लिए कौन आगे आएगा?
देश के भीतर सेना के अधिकारियों को अपमानित किया जाएगा तो देश के लिए कौन लड़ेगा? देश के लिए लड़ने का काम क्वाड के अन्य देश नहीं करेंगे, इसको अंजाम भारतीय सेना को ही देना पड़ेगा। लेकिन पीएम के पुराने इतिहास को देखते हुए मुझे लगता नहीं है कि वो कुछ भी बोलेंगे। शांत रहकर इस शर्मनाक वाकये को बस यूँ ही जाने दिया जाएगा, आख़िर वो यही तो करते आए हैं। चाहे महिला पहलवानों का मामला हो या मणिपुर में यौन उत्पीड़न, पीएम चुप रहने को ही उचित रणनीति मानते हैं।
अपनी राय बतायें