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यौन उत्पीड़न और एक ऐक्टिविस्ट राज्यपाल!

पिछले दस वर्षों के दौरान राज्यपाल अपनी संवैधानिक मर्यादाओं को लांघते दिखे हैं। हाल में यह प्रवृत्ति केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल में प्रमुखता से देखी गई है। तमिलनाडु और केरल के मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय को दखल देना पड़ा ताकि राज्य में प्रशासन सुचारू रूप से चल सके लेकिन पश्चिम बंगाल के राज्यपाल द्वारा उठाया गया यह कदम बेहद चौंकाने और डराने वाला है। 12 सितंबर को पश्चिम बंगाल के राजभवन से एक बयान जारी किया गया। इसमें कहा गया कि "ममता बनर्जी के खिलाफ बढ़ते जन विरोध और लोगों को न्याय देने में सरकार की निष्क्रियता और संवैधानिक मर्यादाओं के खुले उल्लंघन को देखते हुए, बंगाल के राज्यपाल डॉ. सीवी आनंद बोस ने आज ममता बनर्जी के सामाजिक बहिष्कार की घोषणा की है।"  
राज्यपाल द्वारा एक चुने हुए मुख्यमंत्री के सामाजिक बहिष्कार की घोषणा करना भारत में संवैधानिक ख़तरे को पोषण प्रदान करने जैसा है। 10 करोड़ से अधिक जनता के प्रतिनिधि के बारे में राज्यपाल का यह कहना कि वो ऐसे किसी भी समारोह में हिस्सा नहीं लेंगे जिसमें मुख्यमंत्री ममता बनर्जी शामिल हों, वो किसी भी ऐसे सार्वजनिक मंच का हिस्सा नहीं बनेंगे जहां ममता बनर्जी उपस्थित होंगी, यह दुर्भाग्यपूर्ण और ग़ैरज़िम्मेदाराना है। राज्यपाल सीवी मोहन बोस अपने इस कदम के पीछे आर जी कर मेडिकल कॉलेज में हुए दुर्भाग्यपूर्ण बलात्कार और हत्या को कारण बता रहे हैं। राज्यपाल का मानना है कि सीएम ममता बनर्जी लोगों को न्याय देने में असफल रही हैं।
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मेरा मानना है कि यह कदम उठाने से पहले राज्यपाल बोस को संविधान अच्छे से देखना चाहिए था। शायद उनसे कोई चूक हो गई है। संविधान में राज्यों के लिए राज्यपाल की व्यवस्था की गई है(अनुच्छेद-153)। राज्यपाल की नियुक्ति का काम राष्ट्रपति केंद्र सरकार की सलाह से करता है।संविधान सभा ने बहुत सोच समझकर राज्यपाल को ‘नियुक्त’ करने की व्यवस्था पर ज़ोर दिया था न कि सीधे जनता द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव के माध्यम से। यह सब इसलिए किया गया ताकि राज्यों में जनता द्वारा चुने गये मुख्यमंत्री और राज्यपाल के बीच कोई टकराव न हो। राज्यपाल को राज्य का कार्यकारी प्रमुख बनाया गया और व्यवहार में वो केंद्र सरकार के एजेंट के रूप में कार्य करने लगा। 
एक नये आज़ादी पाये देश में केंद्र का ‘उचित’ हस्तक्षेप आवश्यक था इसलिए इसकी व्यवस्था करना ज़रूरी था। लेकिन राज्यपाल और केंद्र सरकार को कभी यह नहीं भूलना चाहिए कि राज्यपाल नाममात्र का कार्यकारी प्रमुख है वास्तविक सत्ता जनता द्वारा चुने गये मुख्यमंत्री और संपूर्ण मंत्रिपरिषद के पास है। दूसरी अहम बात जो किसी भी राज्यपाल, मुख्यमंत्री और केंद्र सरकार से ज़रूरी है वह यह कि भारत में ‘संविधान की सर्वोच्चता’ का सिद्धांत लागू होता है। और भारत का संविधान बहुत सोच समझकर संघीय प्रवृत्ति का बनाया गया है।
 स्वयं भारत का सर्वोच्च न्यायालय अतियाबारी मामले, 1961, से ही भारत की संघीय प्रवृत्ति और इसके लक्षणों की पुष्टि करता रहा है। यहाँ अखण्ड भारत की शर्त पर राज्यों के अधिकार सुरक्षित रखे गये हैं। राज्यों को यह शक्ति दी गई है कि वो केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ क़ानूनी लड़ाई लड़ सकें(अनुच्छेद-131)। राज्यों को लाचार बनाकर छोड़ने की बजाय भारत की संवैधानिक स्कीम में ‘सहकारी संघवाद’ पर ज़ोर दिया गया है। सहकारी संघवाद भारतीय संविधान की मूलभूत विशेषता है जिसे किसी भी हालत में समाप्त नहीं किया जा सकता है (केशवानंद)।  
ऐसे में एक सशक्त संघीय संवैधानिक व्यवस्था के अन्तर्गत राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त करके भेजा गया राज्यपाल राज्य के चुने हुए मुख्यमंत्री के ख़िलाफ़ ‘सामाजिक बहिष्कार’ की घोषणा कैसे कर सकता है?
राजभवन राज्यपाल का स्थाई निवास नहीं है और न ही राज्यपाल राजत्त्व के सिद्धांत पर आधारित कोई पद है। राज्यपाल किसी एक्टिविस्ट की भूमिका में नहीं आ सकता है। संविधान ने स्पष्ट रूप से राज्यपाल की कार्यकारी, विधायी, वित्तीय और न्यायिक शक्तियों को परिभाषित किया है। इसके साथ ही जहां राज्यपाल स्वविवेक से कार्य कर सकता है उसकी भी संभावनाएँ स्पष्ट हैं।
राज्यपाल सीवी मोहन बोस को संवैधानिक मर्यादाओं के तहत कार्य करना चाहिए। अगर उन्हें लगता है कि ममता बनर्जी राज्य का शासन संवैधानिक तरीक़े से नहीं चला रही हैं तो उनके पास संविधान द्वारा प्रदत्त शक्ति है जिसके तहत वो राष्ट्रपति को इस संबंध में प्रतिवेदन भेज सकते हैं और राष्ट्रपति जोकि केंद्र सरकार की सलाह पर कार्य करता है, इस पर कार्यवाही कर सकता है (अनुच्छेद-356(1)a)।
यदि मोदी सरकार को ममता सरकार से कोई ‘परेशानी’ है भी, तो भी उन्हें संवैधानिक तरीक़ा अपनाना चाहिए। जिससे संविधान की मर्यादा भी बनी रहे और पश्चिम बंगाल की 10 करोड़ जनता भी जान ले कि उनके चुने हुए प्रतिनिधि पर असंवैधानिक तरीक़े से सरकार चलाने का आरोप लगाते हुए सरकार को बर्खास्त किया जा रहा है। यदि नरेंद्र मोदी सरकार को लगता है कि राज्य में जूनियर डॉक्टर के बलात्कार और हत्या के बाद से चल रहा धरना-प्रदर्शन प्रदेश व्यापी है और जनता वास्तव में ममता सरकार के ख़िलाफ़ हो गई है तो उनके पास इतना साहस तो होना ही चाहिए कि वो सरकार को बर्खास्त कर दे। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति को सामाजिक कार्यकर्ता बनाया जा रहा है ताकि राज्य सरकार को अस्थिर किया जा सके। 
स्वयं राज्यपाल सी वी मोहन बोस के पास संवैधानिक अधिकार है जिसके तहत वो ममता सरकार से प्रशासन संबंधी कोई भी रिपोर्ट माँग सकते हैं, किसी जाँच का स्टेटस जान सकते हैं, किसी सामाजिक और जनहित के मुद्दे पर सीएम से जवाब-तलब कर सकते हैं (अनुच्छेद-167)।
और यदि ममता बनर्जी उनका उत्तर नहीं देती हैं और उन्हें जानकारी नहीं देती हैं, जोकि उनका संवैधानिक दायित्व है तो राज्यपाल को संविधान के तहत कार्यवाही करने का अधिकार है न कि सामाजिक कार्यकर्ता बनकर विरोध करने का। एक सामाजिक कार्यकर्ता के लिए राजभवन में क्या जगह होगी? यदि राज्यपाल बोस को जनता का इतना अधिक ख़्याल है, फ़िक्र है तो उन्हें पद त्यागकर सड़क पर आ जाना चाहिए। तब बहिष्कार ही क्यों आमरण अनशन, रैली, प्रदर्शन सबकुछ करने का हक़ उन्हें मिल जाएगा। लेकिन राजभवन की गद्दी पर बैठकर यदि वो संवैधानिक कार्यों को असंवैधानिक तरीक़े से करेंगे तो यह स्वीकार्य नहीं होना चाहिए। 
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तो प्रेस कॉन्फ़्रेंस करके कह दिया है कि वो इस्तीफ़ा देने को तैयार हैं। अच्छा है कि केंद्र कोई संवैधानिक बहाना खोजकर लाए और ले ले मुख्यमंत्री से इस्तीफ़ा। लेकिन चोर दरवाज़े से सरकार को अस्थिर करना अनुचित और लोगों की आँख में धूल झोंकने जैसा है।
नैतिकता का एक सवाल यह भी है कि जिस बलात्कार के मामले को लेकर ‘अपर्याप्त कार्यवाही’ और ‘अन्याय’ की बात राज्यपाल बोस कर रहे हैं उस पर जब ममता जी इस्तीफ़ा देने को तैयार हैं तब जबकि यौन उत्पीड़न का आरोप स्वयं राज्यपाल बोस पर लगा है, तो वो इस्तीफ़ा देने को तैयार क्यों नहीं हैं? अपनी तथाकथित शक्तियों का इस्तेमाल करके राजभवन में यौन उत्पीड़न के साक्ष्यों को लेने पहुँची पुलिस के प्रवेश को रोकने वाले राज्यपाल महोदय को क्या डर था? क्या उन्हें तब इस्तीफ़ा नहीं दे देना चाहिए था जब सुप्रीम कोर्ट ने राजभवन में जाँच की अनुमति प्रदान कर दी? क्या मोदी सरकार की नैतिकता इतने निचले स्तर पर आ चुकी है कि राज्यपाल पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगने के बावजूद न ही केंद्र सरकार ने जाँच शुरू की और न ही बोस का इस्तीफ़ा लिया। 
स्पष्ट है कि आर जी कर मेडिकल कॉलेज का मामला भाजपा के लिए मात्र एक ‘मौक़ा’ भर है। इसका महिला अस्मिता, सुरक्षा और सशक्तिकरण से कोई संबंध नहीं है। यदि संबंध होता तो बोस की जगह कोई और राजभवन में बैठा होता।
यदि केंद्र में बैठी मोदी सरकार राज्यपाल के इस असंवैधानिक कदम से सहमत नहीं है तो उसे राज्यपाल के ख़िलाफ़ कार्यवाही करना चाहिए और यदि सहमत है तो इस बात का जवाब देना चाहिए कि क्या उत्तर प्रदेश में हो रहे बलात्कारों-अलीगढ़, हाथरस, बलिया, उन्नाव आदि; मध्य प्रदेश में हो रहे बलात्कारों- जिसमें महू, उज्जैन की घटनाओं के अतिरिक्त बीजेपी विधायक संजय पाठक व कैलाश विजयवर्गीय के मामले भी शामिल हैं; और इसी तरह उत्तराखण्ड में अंकिता भंडारी जैसे अनगिनत मामलों में राज्यपालों ने सामाजिक कार्यकर्ता बनकर मुख्यमंत्रियों का सामाजिक बहिष्कार करना शुरू क्यों नहीं किया? 
सच्चाई यह है कि यदि देश के राज्यों के राज्यपाल, मुख्यमंत्रियों के ख़िलाफ़ बहिष्कार करने लगे तो देश का संघीय ढाँचा टूटने में वक़्त नहीं लगेगा।
एक राज्य में दो शक्ति केंद्रों की स्थापना संवैधानिक योजना के सख़्त ख़िलाफ़ है, केंद्र सरकार को इस असंवैधानिक, अमर्यादित और भारत को खंडित करने वाली प्रवृत्ति को प्रश्रय नहीं देना चाहिए। देश संविधान से चलना चाहिए, सिर्फ़ इसलिए किसी सरकार को अस्थिर कर देने की कोशिश करना क्योंकि वह किसी अन्य दल से संबंधित है, भारत के लोकतंत्र को दूरगामी नुक़सान पहुँचायेगी। महिलाओं के साथ बलात्कार जैसे गंभीर अपराधों से निपटने के लिए कठोर क़ानूनी प्रावधानों और पर्याप्त सामाजिक प्रतिरोध की आवश्यकता है जिसमें राजनैतिक इच्छाशक्ति की भूमिका महत्वपूर्ण होनी चाहिए। मामला चाहे अंकिता भंडारी का हो या महिला पहलवानों का, महिलाओं को न्याय दिलाने के लिए पार्टी का झंडा रास्ते में नहीं आना चाहिए। 
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राज्यपाल जैसे पदों को बीच में लाने से जो नुक़सान हो सकता है उसे संविधान सभा में स्पष्ट किया गया था-  “जब संपूर्ण कार्यपालिका शक्ति, मंत्रिपरिषद में निहित है तब यदि एक और व्यक्ति है जो यह समझता है कि उसके पीछे पूरा प्रांत है और इसलिए वह अपने विवेकानुसार आगे बढ़कर प्रांत के शासन में हस्तक्षेप कर सकता है तो इससे लोकतंत्र नष्ट हो जाएगा”। राजनैतिक अस्तित्व से ज़्यादा अहम है भारत का अखण्ड स्वरूप और यहाँ का संविधान, इसके संरक्षण को किसी भी हालत में सुनिश्चित करना ही होगा।     
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कुणाल पाठक
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