शुक्रवार,
9 अगस्त को संसद के दोनो सदनों का सत्रावसान हो गया। संसद को सूचित किया गया कि यह
सत्र अपनी ‘उत्पादकता’ के लिहाज से बेहतरीन सत्र रहा। जहां लोकसभा की उत्पादकता
136% रही वहीं राज्यसभा की उत्पादकता 118% रही। संसदीय कार्य मंत्री किरण रिजिजू
ने कहा कि- ऐसा सालों बाद हुआ है जब किसी सत्र का एक भी दिन पूरी तरह खराब नहीं
गया। तथ्यात्मक रूप से भले ही मंत्री सही हों लेकिन यह सत्र संसदीय लोकतंत्र की
परंपराओं को निभाने में असफल रहा है। शुक्रवार का दिन संसदीय इतिहास में बेहतर
संवाद के लिए नहीं याद किया जाएगा। जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल ‘पीठ’ के द्वारा
किया गया है उसकी आलोचना आवश्यक है।
भारतीय जनता पार्टी के राज्यसभा सांसद घनश्याम तिवाड़ी ने बीते 31 जुलाई को राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि- मल्लिकार्जुन का अर्थ है शिव और जिस तरह शिव की पूजा होते ही उनके पूरे परिवार की पूजा मान ली जाती है, पूरा परिवार प्रतिष्ठा पा लेता है वैसे ही मल्लिकार्जुन खड़गे की वजह से उनका पूरा परिवार प्रतिष्ठित हो गया है। तिवाड़ी की इस टिप्पणी पर खड़गे ने प्रतिक्रिया दी और कहा कि वो अपने परिवार में पहले व्यक्ति हैं जो राजनीति में आए। ब्लॉक अध्यक्ष के पद से होते हुए आज कॉंग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष तक का सफर उनका सिर्फ अपना सफर है। उनके इस इस सफर से उनका परिवार प्रतिष्ठित नहीं हुआ।
एक तरह से खड़गे ने तिवाड़ी के ‘परिवारवाद’ के आरोप का खंडन कर दिया और सभापति, भारत के उपराष्ट्रपति, जगदीप धनखड़ से तिवाड़ी की इस टिप्पणी को सदन की कार्यवाही से बाहर करने की मांग की। लेकिन ताज्जुब की बात तो यह है कि एक जमीनी कार्यकर्ता, वंचित वर्ग से आने वाले मल्लिकार्जुन खड़गे पर धर्म में लपेटकर जो टिप्पणी घनश्याम तिवाड़ी ने की उसे हटाने से सभापति ने मना कर दिया। सभापति ‘मासूमियत’ से कहने से बाज नहीं आए कि तिवाड़ी ने खड़गे पर कोई गलत टिप्पणी नहीं बल्कि उन्होंने तो उनकी तुलना भगवान से की, वास्तव में देखा जाए तो तिवाड़ी ने खड़गे का सम्मान किया और आदर बढ़ाया।
यदि कोई भी 31 जुलाई की कार्यवाही सुनेगा और घनश्याम तिवाड़ी के शब्दों और लहजों पर ध्यान देगा तो उसे पता चल जाएगा कि तिवाड़ी की भाषा सम्मान की नहीं बल्कि अपमानित करने वाली और आरोप लगाने वाली भाषा थी। धर्म और राजनीति में तुलना कई बार घातक हो सकती है। आप विष्णु भगवान से तुलना करने के लिए किसी को वाराह या सुअर नहीं कह सकते। वाराह का एक घटना को लेकर महत्व है। किसी को वाराह कहकर उसे सम्मान देने की बात कैसे की जा सकती है?
लेकिन जैसा कि अपेक्षित था, सभापति धनखड़ ने विपक्ष की बात नहीं मानी और जब शुक्रवार, 9 अगस्त को यह बात फिर से चर्चा में आई तो धनखड़ अपना आपा खो बैठे। उन्होंने विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे से जिस तरह बात की उसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता चाहे उनका पद किसी भी स्वभाव का ही क्यों न हो। उन्होंने कहा कि “मैं जानता हूँ कि आप पूरे देश को अस्थिर करना चाहते हैं।…खड़गे जी इस अव्यवस्था के मूल केंद्र के रूप में…आप संविधान को दांव पर लगाकर सिर्फ अपनी मर्जी चलाना चाहते हैं”।
संविधान का अनुच्छेद-63 उपराष्ट्रपति पद की व्यवस्था करता है। इस पद से राष्ट्रपति की अनुपस्थिति में देश का मुखिया होने की आशा की जाती है। भारत का उपराष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन अध्यक्ष होता है। राज्यसभा अर्थात राज्यों का प्रतिनिधित्व। राज्यों का प्रतिनिधित्व अर्थात संघीय ढांचे की रीढ़। संघीय ढांचा अर्थात भारत की एकता का प्रतीक और संविधान के मूल ढांचे का अंग। क्या उपराष्ट्रपति धनखड़ जो स्वयं एक वकील रहे, राज्यपाल रहे अपनी संवैधानिक गरिमा, उपयोगिता और स्वरूप को समझ नहीं पा रहे हैं। विपक्ष के नेता, जो कि वंचित वर्ग से आता है उस पर देश को अस्थिर करने का आरोप लगाकर, क्या धनखड़ स्वयं देश को अस्थिरता की ओर नहीं धकेल रहे हैं?
विपक्ष को अपराधी साबित करके, उसको खलनायक बनाकर क्या देश को स्थिर बनाने में मदद मिलने वाली है? पड़ोसी बांग्लादेश इसका ताजा उदाहरण है जहां शेख हसीना अपने देश के विपक्ष को लगातार खलनायक साबित करती रहीं और आज परिणाम बांग्लादेश के सामने है। क्या धनखड़ इतना भी नहीं जानते कि विपक्ष और विरोधी आवाजें लोकतंत्र के सेफ़्टी वाल्व की तरह होते हैं यदि इन्हे बंद किया जाए तो लोकतंत्र में विस्फोट हो सकता है? जब विपक्ष के नेता और एक अनुभवी सांसद के खिलाफ ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया जा सकता है, तब कौन सी संसदीय परंपराओं का पालन हो रहा होगा, समझा जा सकता है।
9 अगस्त को सभापति धनखड़ के सामने सिर्फ खड़गे ही को अपमानित नहीं होना पड़ा बल्कि इस जद में वरिष्ठ सांसद जया बच्चन भी आ गईं। जया बच्चन ने सिर्फ पीठ द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली भाषा और इसके टोन पर सवाल उठाया तो उपसभापति बिल्कुल बिफर गए, उनके शब्द उनके काबू में नहीं रहे, न उन्होंने महिला का ख्याल किया न ही सांसद की वरिष्ठता का और न ही अपने पद का। उन्होंने कहा कि जया जी “आप होंगी सेलिब्रिटी, लेकिन आपको यहाँ का डेकोरम मानना पड़ेगा। बहुत हुआ अब!” जया बच्चन एक सांसद की हैसियत से बोल रही थीं।
संसद में तमाम क्षेत्रों के लोग आते
हैं लेकिन कभी उन्हे इस बात के लिए चिन्हित नहीं किया जाता। मसलन यह नहीं कहा था
कि “तुम होंगे कहीं के प्रोफेसर”, “तुम होगे कहीं के वकील”, तुम होगे कहीं के जज”
आदि। संसद का सदस्य, बस एक प्रतिनिधि है जिसे अपने चुनने वाले का प्रतिनिधित्व
करना है, कानून बनाने और देश की एकता और अखंडता को अक्षुण्ण रखने में मदद करनी है।
लेकिन संभवतया उपसभापति महोदय ने अपनी सीमा लांघ ली। उनकी इस गतिविधि से देश की
साख और संसदीय प्रणाली को धक्का पहुँचा है। बड़े आश्चर्य का विषय है कि सदन चलाने
की जिम्मेदारी जिस पर है वही संसदीय कार्यवाही में बाधा डालते रहे। विपक्ष के नेता
यदि घनश्याम तिवाड़ी की टिप्पणी से अपमानित महसूस कर रहे थे तो बजाय उसे हटाने के
उन्होंने विपक्ष के नेता, यानि लोकतंत्र की मजबूत इमारत, पर ही देश को अस्थिर करने
का आरोप लगा दिया।
वर्तमान उपराष्ट्रपति और सभापति जगदीप धनखड़ को यदि पश्चिम बंगाल के राज्यपाल के समय से ट्रैक किया जाए तो यह जानने में वक्त नहीं लगेगा कि कैसे चुनी हुई सरकार के कार्यों पर हस्तक्षेप करते थे। हस्तक्षेप इतना अधिक बढ़ गया था कि मामला न्यायालय तक जा पहुँचा था।
भारत की जो किताब/दस्तावेज सबसे खूबसूरत और जरूरी है, सभापति महोदय उसकी तुलना राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (RSS) से भी करने से नहीं चूकते। अभी पिछले सप्ताह की ही बात है जब राज्यसभा में समाजवादी पार्टी के सांसद रामजीलाल सुमन ने नेशनल टेस्टिंग एजेंसी के अध्यक्ष पर RSS का सदस्य होने की वजह से सवाल उठाया था; सुमन ने कहा था कि सरकार के लिए सिर्फ ये मायने रखता है कि पद पर बैठा व्यक्ति संघ से जुड़ा है या नहीं। सभापति छात्रों के साथ तो नहीं खड़े हुए लेकिन तत्काल RSS के साथ खड़े हो गए। उन्होंने कहा कि वो किसी को RSS का नाम नहीं लेने देंगे। बोले कि यह टिप्पणी रिकॉर्ड में नहीं आने दी जाएगी। इस पर नेता प्रतिपक्ष ने कहा कि इस टिप्पणी से कोई नियम नहीं टूटता है और टिप्पणी जायज है। तो धनखड़ ने कहा कि- राष्ट्रीय कार्य में लगे संगठन (RSS) की आलोचना करना संविधान के खिलाफ है। उन्होंने आगे कहा कि जो लोग ऐसा कर रहे हैं वो संविधान को रौंदने जैसा है। उन्होंने आगे बोला कि RSS देश की सेवा निःस्वार्थ भाव से करता है।
RSS कौन सा संवैधानिक या कानूनी संगठन था जिसके बचाव में भारत का उपराष्ट्रपति आ जाए? संसद की कार्यवाही में RSS का नाम क्यों नहीं आ सकता? जिस देश में भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की आलोचना हो सकती है, भारत को आजादी दिलाने वाले नेहरू और सुभास चंद्र बोस जैसे लोगों की आलोचना हो सकती है तो ये RSS क्या है?
शायद
उपराष्ट्रपति जी भूल गए हैं इसलिए मैं इसलिए उन्हे याद दिलाना चाहता हूँ कि RSS वह संगठन है जिससे जुड़े व्यक्ति के ऊपर महात्मा गाँधी की हत्या का आरोप
लगा, जिसके सदस्यों पर तमाम बमकांडों के आरोप लगे। जिसके मुखिया को नाज़ियों से
सीखने में कोई आपत्ति नहीं थी। वही नाजी जिसने 60 लोगों को जिंदा गैस चैम्बर में
झोंक दिया था। RSS के विचारक वीडी सावरकर ने भारत के
राष्ट्रीय ध्वज को मानने से इंकार कर दिया था। उन्होंने कहा कि "इसे कभी भी
राष्ट्रीय ध्वज के रूप में मान्यता नहीं दी जा सकती...हिंदुस्तान का आधिकारिक
ध्वज...भगवा के अलावा और कुछ नहीं हो सकता...और हम (संघ) किसी अन्य ध्वज को
वफ़ादारी से सलाम नहीं कर सकते"। जबकि इस ध्वज को जिसे संविधान सभा ने 29 जुलाई, 1947 को सर्वसम्मति से स्वीकार्यता प्रदान की थी। ये
वही RSS है जिसकी गतिविधियों से नाराज होकर सरदार
पटेल ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया था।
पटेल ने कहा था कि "आरएसएस...विध्वंसक गतिविधियों में लिप्त है (और इसकी)...गतिविधियाँ...सरकार और राज्य के अस्तित्व के लिए एक स्पष्ट खतरा हैं..."। क्या उपराष्ट्रपति इसी RSS के लिए भारत की संसद में चुने हुए प्रतिनिधियों की टिप्पणी को नकार रहे हैं? क्या वो उसी RSS को देश के संविधान से जोड़ रहे हैं जिसने भारत के संविधान को मानने से ही इंकार कर दिया था और कहा था कि मनुस्मृति को ही देश के कानून का आधार माना जाना चाहिए?
जगदीप धनखड़ आज उसी संविधान(अनुच्छेद-63) की बदौलत उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति(अनुच्छेद-64,89) हैं। उन्हे पद पर बैठकर संविधान की रक्षा, अपने सदस्यों को संरक्षण और देश की एकता की बात करनी चाहिए। मात्र संसद में पारित होने वाले विधेयकों की संख्या के बल पर भारत लगातार 75 सालों से लोकतंत्र नहीं बना हुआ है।
अपने तमाम अस्थिर और अलोकतांत्रिक पड़ोसियों के बीच भारत लोकतंत्र इसलिए बना हुआ है क्योंकि यहाँ की संस्थाओं ने ही दल, विचारधारा और व्यक्ति की पूजा को स्वीकार नहीं किया। लेकिन दुर्भाग्य से आज यही सब देखने को मिल रहा है। मुझे लगता है कि भारतीय लोकतंत्र इस समय अपनी अब तक की सबसे बड़ी चुनौती का सामना करने के दौर में है। इसकी लोकतंत्र की जड़ों में अंबेडकर और नेहरू जैसे लोगों की छाप है लेकिन संभवतया तने और पत्तियों में ‘वायरस’ लग चुका है। लोकतान्त्रिक शक्ति और आदर्शों के आधार पर इसका उपचार खोजना होगा।
(लेखक कुणाल पाठक स्तंभकार हैं और लखनऊ पोस्ट डॉट कॉम के सह संस्थापक हैं)
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