जाति जनगणना की माँग बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है। नीतीश इसके ज़रिए अति पिछड़ों और अति दलितों को फिर से अपनों खेमे में लाने का दाँव चल रहे हैं। नीतीश ने इस सदी की शुरुआत में अपनी राजनीति को अति पिछड़ों और अति दलितों पर केंद्रित करना शुरू कर दिया था। इसी के बूते लालू यादव को पछाड़ कर 2010 में मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुँचे लेकिन विधानसभा के पिछले चुनाव में उनका यह आधार दरकता हुआ नज़र आया। नतीजे के तौर पर उनकी पार्टी बीजेपी से भी पीछे खिसक कर तीसरे पायदान पर पहुँच गयी। नीतीश के पाला बदल कर आरजेडी के साथ जाने से डरी हुई बीजेपी ने उन्हें मुख्यमंत्री तो बना दिया लेकिन इस बार वो काफ़ी दबाव में दिखाई दे रहे हैं।
विधानसभा चुनाव में नीतीश की पार्टी जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के ख़राब प्रदर्शन का एक कारण ये भी था कि अति पिछड़ी जातियों में नया जातीय नेतृत्व उभरने लगा है। मल्लाहों के नेता मुकेश सहनी इसका एक उदाहरण हैं। लालू यादव को सत्ता में लाने और क़रीब 15 सालों तक उनका दबदबा बनाए रखने में यादव-मुस्लिम गठजोड़ के साथ अति पिछड़ी जातियों की भी भूमिका थी। ख़ुद नीतीश भी काफ़ी समय तक लालू के साथ थे। लेकिन नीतीश ने अति पिछड़ों और अति दलितों के साथ कुछ सवर्ण जातियों का समीकरण तैयार किया तो लालू यादव के हाथ से सत्ता खिसक गयी। नीतीश ने अब जीतनराम माँझी और उपेन्द्र कुशवाहा जैसे नेताओं को अपने खेमा में लाकर पुराने आधार को समेटने की कोशिश शुरू की है। लेकिन सिर्फ़ इतना ही काफ़ी नहीं है। अति पिछड़े और अति दलित अब सत्ता और साधन में ज़्यादा बड़ा हिस्सा चाहते हैं।
दलितों और पिछड़ों के आरक्षण में एक बड़ी समस्या आने लगी है। इसका ज़्यादा फ़ायदा दलितों और पिछड़ों की समृद्ध जातियाँ उठा रही हैं। बिहार में सबसे ज़्यादा फ़ायदा यादव और पासवान जैसी जातियों को मिलता है। इसका कारण यह है कि ये जातियाँ शिक्षा और आर्थिक तौर पर बाक़ी जातियों से बहुत आगे हैं।
अब एक नयी माँग उठ रही है कि आरक्षण को जातियों की आबादी के हिसाब से बाँट दिया जाये।
लेकिन बात सिर्फ़ यहीं ख़त्म नहीं होती। आबादी के हिसाब से आरक्षण की सीमा बढ़ाने और सवर्ण सहित सभी जातियों को आबादी के हिसाब से बाँट देने की माँग भी जोड़ पकड़ रही है।
बीजेपी आरक्षण में कोई छेडछाड़ नहीं चाहती है। इसके दो कारण हैं। सवर्ण आरक्षण के ख़िलाफ़ हैं और आरक्षण की सीमा बढ़ाए जाने से उनका नाराज़ होना तय है। सवर्णों का बहुमत इस समय बीजेपी के साथ है। बीजेपी सवर्णों को नाराज़ करने का जोखिम मोल नहीं ले सकती है। दूसरा कारण ये है कि आरएसएस आरक्षण के ख़िलाफ़ है। बीजेपी को नुक़सान पहुँचने के डर से आरएसएस नेताओं ने आरक्षण के ख़िलाफ़ बोलना बंद कर दिया है लेकिन उनकी विचारधारा नहीं बदली है। ऐसे में जातीय जनगणना की माँग करके नीतीश बीजेपी की मुसीबत बढ़ा रहे हैं। आख़िरी बार जातीय जनगणना 1934 में हुई थी। 2011 में कांग्रेस की सरकार ने जातीय जनगणना करायी लेकिन आँकड़ों में ग़लतियों के कारण इसे प्रकाशित नहीं किया गया।
लालू यादव के पुत्र और बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव भी जातीय जनगणना का समर्थन कर रहे हैं। नीतीश ने यह भी घोषणा कर दी है कि भारत सरकार तैयार नहीं हुई तो कर्नाटक की तर्ज़ पर जातीय जनगणना कराएँगे। कर्नाटक ने कुछ दिनों पहले आर्थिक और शैक्षिक तौर पर पिछड़ों की गिनती करायी। इसके ज़रिए उन जातियों की पहचान की गयी जो आर्थिक और शैक्षिक तौर पर पिछड़ी हैं। बीजेपी के समर्थन से सरकार चलाते हुए नीतीश कर्नाटक की तरह जातीय जनगणना कैसे करायेंगे यह भी एक बड़ा सवाल है। क्या वो बीजेपी का साथ छोड़ कर एक बार फिर आरजेडी के साथ जाएँगे?
दरअसल, मुद्दा जातीय जनगणना नहीं है। मुद्दा तो यह है कि जातीय जनगणना के बाद क्या सभी जातियों को उनकी आबादी के हिसाब से आरक्षण दिया जाएगा। यह काम आसान नहीं होगा। राजनीति, समाज और अर्थ व्यवस्था पर दबदबा रखने वाली सवर्ण जातियाँ इसे आसानी से स्वीकार नहीं करेंगी। क्योंकि इससे नौकरियों में उनकी संख्या कम हो जाएगी और समाज पर उनका असर भी ख़तरे में पड़ जाएगा।
नीतीश का ये दांव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी मुश्किल में डाल सकता है। सवर्ण आबादी के हिसाब से भले ही कम हैं लेकिन समाज में माहौल बनाने का काम वो ही करते हैं।
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