पानीपत के नीरज चोपड़ा की दुनिया भर में इसलिए चर्चा हो रही है कि उन्होंने कैसे अपने जीवट और उम्दा ट्रेनिंग से टोक्यो ओलम्पिक 2020 में 87.58 मीटर तक भाला फेंक कर गोल्ड मेडल हासिल किया। वहीं दूसरी ओर भारत में उनकी इस उपलब्धि पर एक कविता की ये पंक्तियाँ साझा की जा रही हैं -
तू भी है राणा का वंशज
फेंक जहां तक भाला जाए।
ऐसा लग रहा कि नीरज ने भाला फेंकने में यह बेमिसाल सफलता किसी का वंशज होने की वजह से पायी है।
यही नहीं, कुछ लोगों ने 23 साल के नीरज की इस सफलता को सैंकड़ों बरस पीछे उनके मराठा पूर्वजों से भी जोड़ दिया। यह भी बताया गया कि उनका नाम असल में नीरज चोपड़ा नहीं नीरज चोपड़े है जो हरियाणा में रहने की वजह से चोपड़ा हो गया। वैसे, महाराष्ट्र में खोपड़े उपनाम होता है।
सोशल मीडिया पर इस सफलता के बाद वंशज वाली पंक्तियाँ धड़ल्ले से साझा की गयीं। महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस ने भी इसे वंशज-पूर्वज के साथ जोड़ते हुए ट्वीट किया-
ये भाला तो वीर शिवा का और रणभेदी राणा का है,
भारत माँ का सपूत नीरज बेटा तो हरियाणा का है।
उनके इस ट्वीट को 3 हजार से अधिक बार रिट्वीट किया गया और 19 हजार लोगों ने लाइक किया। इसके जवाब में 300 से अधिक लोगों ने अपनी प्रतिक्रिया दी जिनमें ये पंक्तियां भी शामिल थीं जो वाहिद अली वाहिद की बतायी गयी हैंः
कब तक बोझ संभाला जाए...
द्वंद्व कहां तक पाला जाए...
दोनों ओर लिखा हो भारत...
सिक्का वही उछाला जाए...
तू भी है राणा का वंशज...
फेंक जहां तक भाला जाए...
इस पर कोई बहस नहीं कि नीरज का संबंध रोर-मराठा से है बल्कि बहस इस बात पर है कि क्या इस वंशीय संबंध ने उन्हें सफलता दिलायी? अगर ऐसा होता तो नीरज के पिता सतीश कुमार चोपड़ा किसानी के लिए नहीं बल्कि किसी खेल के चैम्पियन के लिए जाने जाते।
नीरज की बहनें संगीता और सरिता भी किसी खेल में मेडल ला रही होतीं। खेल वंशज-पूर्वज से नहीं चलता, मेहनत-प्रशिक्षण से चलता है। उदाहरण के लिए भारत में सबसे बड़ा धनुर्धर अर्जुन को माना जाता है तो क्या आज तीरंदाजी में भारत की जो भी कामयाबी-नाकामी है, उसे अर्जुन के पूर्वज होने से जोड़ा जा सकता है?
दूसरी तरफ़ तीरंदाजी के ओलम्पिक पदकों पर दक्षिण कोरिया का एकतरफा दबदबा रहा तो क्या इसकी वजह उनके पूर्वज हैं? यह बात भी सोचने की है कि भारत को जिन अन्य स्पर्धाओं में मेडल मिले उनके खिलाड़ियों की कामयाबी के लिए भी क्या वंश का उदाहरण दिया जा सकता है।
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यह सही वक्त है जब समाज में यह बात बतायी जाए कि खेल में कामयाबी वंश के कारण नहीं मिलती और किसी कामयाबी के बाद वंश की वाहवाही का कोई अर्थ नहीं होता।
इसी तरह भारत में अनेक ऐसे उदाहरण हैं जिनसे वंशज-पूर्वज के आधार पर खेल में कामयाबी की धारणा धराशायी होती है। सुनील गावस्कर के बेटे रोहन गावस्कर अपने वंश के कारण रन बना रहे होते तो आज गुमनामी में नहीं रहते। हममें से कितने लोगों को गावस्कर के पिता या सचिन तेंडुलकर के पिता के बारे में जानकारी है? और कितने लोग यह बात मानेंगे कि उन्हें उनके वंश की वजह से कामयाबी मिली। अगर वंश से ही महारथ हासिल होती तो पूछा जा सकता है कि हॉकी में ध्यानचंद के पोते का क्या योगदान है? ऐसी अनगिनत मिसालें दी जा सकती हैं।
खेलकूद के साथ इस तरह की पंक्तियों का धड़ल्ले से इस्तेमाल समाज की उन्हीं कुरीतियों का परिचायक है जिसमें वंश को श्रेष्ठता का आधार बताया जाता है। इससे होता यह है कि आदमी की अपनी मेहनत, उसकी लगन और उसकी ट्रेनिंग की बात पीछे छूट जाती है।
एक नजर नीरज के कोचों पर डालते हैं और फिर इस बात पर गौर करें कि वंशज-पूर्वज की बात कैसी है। उनके कोचों में ऑस्ट्रेलिया के (स्वर्गीय) गैरी कल्वर्ट, जर्मनी के क्लास बार्तोनीत्ज, वर्नर डैनियल्स व उवे हान शामिल हैं। क्या इससे नहीं समझा जा सकता कि खेल में कामयाबी अपनी मेहनत व लगन के साथ-साथ बेहतरीन ट्रेनिंग से मिलती है, वंश से नहीं।
खेल के बारे में हमारे समाज की धारणाओं को बदलने की सख्त ज़रूरत है। जैसे किसी जमाने में कहा जाता था -
खेलोग कूदोगे होगे खराब,
पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब
यह सोच तो काफी हद तक बदली है लेकिन इससे जो नुकसान हो चुका उसकी भरपायी में काफी वक़्त लगेगा।
इसी तरह यह सोच अब भी नहीं गयी कि खूब मोटा-तगड़ा होने से कोई अच्छा खिलाड़ी बनता है। उस लिहाज से देखा जाए तो लगभग छह फीट के नीरज 11 साल की उम्र में ही 80 किलोग्राम के थे मगर यह उनके लिए आसानी नहीं, परेशानी का सबब था।
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