एक नन्दीग्राम उत्तर प्रदेश में है। पूरी दुनिया में प्रसिद्ध। प्रभु श्रीराम का प्रिय नन्दीग्राम। अयोध्या से कुछ किलोमीटर दूर इस नन्दीग्राम में अक्टूबर 2018 से 24 घण्टे का सीताराम नाम संकीर्त्तन हो रहा है। भगवान राम ने उसूल और सिद्धांतों को तरजीह देते हुए 14 साल वन-जंगल में गुजारे थे सो 14 साल तक यहाँ भी कीर्त्तन चलेगा ।
रघुकुल का यह नन्दीग्राम आज घोर उपेक्षित है। नन्दीग्राम जहाँ भरत अपने अग्रज के लिए इंतज़ार करते रहे।
ठीक इसके विपरीत बंगाल का वंचित नन्दीग्राम भरत नन्दीग्राम से अधिक चर्चित हो गया है। पूरे मुल्क की नज़र इस इलाके पर है। देश के बाहर भी इस उपेक्षित नन्दीग्राम की खूब चर्चा हो रही है। देश के प्रधानमंत्री के लिए भी यह इलाका प्रतिष्ठा का विषय बन गया है।
असहाय, वंचित लोग आसमान की ओर निहार रहे हैं। अभावग्रस्त लोग अवाक हैं। चमचमाती गाड़ियों से लेकर हवाई जहाज और हेलीकॉप्टर, फिल्मी चेहरे, डिस्को डांसर...सभी फिदा हैं नन्दीग्राम के लिए।
मामला फ़िल्मी लगता है!
बंगाल के इस नन्दीग्राम में एक अच्छी फ़िल्म का हर कंटेंट मौजूद हैं। धोखा, साज़िश, प्यार, नफ़रत सबकुछ। प्रतिवाद, गोली, बारूद, आंदोलन से पूर्ण एक स्टोरी...जहां हीरो है, हीरोइन भी ...खाकी , खादी भी...विलेन का अट्टहास और असहाय, अभावग्रस्त दर्शक भी।
जंगलमहल के इसी सिंगुर-नन्दीग्राम के रास्ते ममता बनर्जी की वर्ष '2011 में राइटर्स बिल्डिंग यानी राज्य सचिवालय में एंट्री हुई थी। एक दशक के बाद भी सीबीआई नन्दीग्राम का सच सामने नहीं ला पाया।
प्रायोजित था नन्दीग्राम कांड?
उस घटना के बाद अवसाद पर चले गए एक ईमानदार मुख्यमंत्री बुद्धदेव का एक बयान सोमवार को सामने आया जो चुनावी माहौल में बेहद चर्चा का विषय बन गया है। दरअसल नन्दीग्राम कांड प्रायोजित था। सिर्फ लेफ़्ट की सरकार गिराने का माध्यम था। सीबीआई की चार्जशीट में भी स्पष्ट हो गया है कि जो जानें गयी थीं उसमें बुद्धदेव की कोई भूमिका नहीं है। गोली चलाने का आदेश उन्होंने नहीं दिया था।
नन्दीग्राम में पुलिस की गोलियों से कई जानें गई थीं। ममता बनर्जी अनशन पर बैठी थीं। आज गाँव के लोग कह रहे हैं कि उस समय अगर आन्दोलन नहीं हुआ होता तो निश्चित तौर पर 'सोनार बांग्ला' बन जाता।
क्या हुआ था?
इंडोनेशिया के सलीम समूह के लिए वहाँ भूमि अधिग्रहण हो रहा था। सलीम के नाना के द्वारा उनके मुल्क में कम्युनिस्टों के कत्लेआम के कारण पहले अपने ही दल के लोग बुद्धदेव भट्टाचार्य का विरोध करने लगे। बुद्धदेव ने नहीं माना। वे कहने लगे बंगाल के बच्चों को रोज़गार चाहिए। यहाँ उद्योग चाहिए।
नैनो से लेकर दो दर्जन से अधिक बड़े उद्योग बंगाल आ गए। रघुनाथपुर में डीवीसी, बालाजी, जिंदल, शालबोनी में पावर प्लांट, सिंगुर में नैनो, बालाजी...एक के बाद एक उद्योग का ठिकाना बंगाल बनने लगा। दुर्गापुर से लेकर हल्दिया तक एजुकेशन और इंडस्ट्री का केंद्र बनने लगा। झारखण्ड-बिहार के लोग भी पढ़ने और इलाज़ के लिए दुर्गापुर पहुँचने लगे।
जिस सज्जन ने नन्दीग्राम की बेहतरी के लिए दिनरात काम किया उस सुहृद को एक कॉकस ने टार्गेट बनाया। देश के कई चर्चित घराने नहीं चाहते थे टाटा की अगुवाई में वहाँ कोई काम हो। इसलिए आज कहा जा रहा है कि नन्दीग्राम का आंदोलन प्रायोजित था।
साजिश थी?
आज मुख्यमन्त्री ममता भी कह रही कि साज़िश से इंकार नहीं है। जनता को यह बताया गया था कि पुलिस हमले के लिए आ रही है और पुलिस को बताया गया था कि पब्लिक ने गोली-बारूद का ज़खीरा जमा कर रखा है। फिर क्या था? पुलिस पर पथराव हुआ। पुलिस ने गोलियाँ चलाईं और लाशें बिछ गईं। उसी दिन बांग्ला को रोजगार से जोड़ने का मार्ग बन्द हो गया।
नन्दीग्राम के रास्ते दीदी ने लालमाटी के मुलुक से लालदुर्ग का सफाया कर दिया। फर्क यह है कि उस समय बीजेपी दीदी के साथ थी। शुभेंदु 'भरत' की भूमिका में थे। यह अजीब संयोग है कि आज इसी नन्दीग्राम में दीदी और शुभेंदु आमने-सामने हैं।
जंगलमहल के 'गॉड फॉदर'
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि शुभेंदु के परिवार के वर्चस्व के कारण जंगलमहल में जहाँ ममता का क्रेज़ बढ़ा, वहीं शुभेंदु ने भी इसका लाभ दोनों हाथों से उठाया। सांसद, विधायक, केंद्रीय मंत्री, राज्य के कई मंत्रालय, हल्दिया ऑथोरिटी के अध्यक्ष...यहां तक नगरपालिका पार्षद तक के पद अधिकारी परिवार को ही तोहफे में मिले।
जब तक चुनाव नहीं आया तब तक शुभेंदु जमे रहे। खेजुरी के लोग कह रहे हैं कि दो साल पहले अवरुद्ध विकास को लेकर शुभेंदु के परिवार के सारे लोग अगर टीएमसी से इस्तीफा दे देते तो आज उनका दबदबा कुछ और होता।
कार्यकर्ता कह रहे हैं कि नन्दीग्राम का कोई विकास नहीं हुआ है। खेत वीरान है और 2011 में ममता-शुभेंदु की जिन युवाओ ने मदद की थी, वे झंडा ढोते-ढोते अब अधेड़ हो गए हैं।
टीएमसी के बैनर तले शुभेंदु इस इलाके में गॉड फादर बन गए। तकरीबन 40 सीटों पर उनका सीधा प्रभाव है। जानबूझकर चुनौती को स्वीकार करते हुए ममता बनर्जी ने नन्दीग्राम से चुनाव लड़ना तय किया।
फर्क सिर्फ यह है कि पिछले बार जो शुभेंदु कमल की खिंचाई करते नहीं थकते थे, वह अब मोदी-शाह की प्रशंसा करते नहीं अघाते हैं। अभी कुछ दिन पहले जो शुभेंदु सीएए-एनआरसी का विरोध कर रहे थे, आज इसकी तारीफ के पुल बांध रहे हैं।
नन्दीग्राम में पहले राजनीतिक समीकरण ही देखने को मिलता था। अब नई लड़ाई में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण भी साफ दिख रहा है। दोनों प्रत्याशियों के बीच लेफ्ट प्रत्याशी मीनाक्षी भी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा रही है। कह रही है लेफ्ट को अगर यहाँ काम करने मिलता तो चेहरा कुछ और होता ।
सेनापति ही दीदी के ख़िलाफ़
पिछले चुनाव में शुभेंदु को यहाँ 66 प्रतिशत से अधिक वोट मिला था। उस समय बीजेपी को सिर्फ पाँच प्रतिशत वोट मिले थे। बीजेपी ने दीदी के सेनापति को ही दीदी के ख़िलाफ़ मैदान में उतारकर लाभ उठाने का पत्ता फेंका है। बीजेपी की जोरदार उपस्थिति वहाँ दिख भी रही है, लेकिन ममता भी कह रही कि शुभेंदु टीएमसी में रहकर सिर्फ खुद की भलाई करते रहे। नन्दीग्राम का कोई विकास नहीं हुआ। लोगों के अंदर यह भी बात पहुँचाई जा रही है कि जब सीएम खुद कैंडिडेट हैं तो निश्चित इलाके का चेहरा बदलेगा।
उनके भतीजे का चुनाव प्रचार भी ऑब्जेक्टिव है। वे पूछ रहे हैं दुआरे सरकार का लाभ मिला? स्वास्थ्य साथी कार्ड सभी को मिला? मुफ्त राशन मिला? कन्याश्री का लाभ मिला? रूपश्री का लाभ मिला? टैब मिला? किसान बन्धु का लाभ मिला? जवाब हां में मिलता है। फिर वे पूछते हैं कि मोदी की सरकार आती है तो ये योजनाएं बन्द कर देंगी।
प्रधानमंत्री किसान सम्मान, आयुष्मान भारत सभी के लिए नहीं है।
तृणमूल के लोग कहते हैं जब सोनार यूपी, छत्तीसगढ़, राजस्थान, झारखण्ड नहीं बना तो खाक 'सोनार बांग्ला' बनाएंगे? वे पूछते हैं 15 लाख मिला? काला धन आया? नीरव मोदी आया? नोटबन्दी का लाभ मिला? दो करोड़ रोजगार मिला?
एक संदेश यह भी फैल रहा है कि बाहर के लोगों को बुलाकर बंगाल की संस्कृति के साथ खिलवाड़ करने की साज़िश है। सारदा-नारदा कांड में मुकुल-शुभेंदु को माफ़ करने और चुन चुनकर ममता समर्थकों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने के सवाल भी उठाए जा रहे हैं।
'नोतून बांग्ला'
लेफ्ट की मीनाक्षी भी यहाँ से चुनाव लड़ रही है। वह कहती हैं कि बुद्धदेव को नन्दीग्राम के नाम पर साज़िश का शिकार बनाया गया था। वह 'नोतून बांग्ला' का निर्माण कर रहे थे। संयोग से नन्दीग्राम कांड के दोनों मास्टरमाइंड ममता और शुभेंदु आज आमने-सामने हैं। इन्हें खारिज़ करने का वक़्त आ गया है।
सीपीआईएम कहती हैं कि नन्दीग्राम के आंदोलन को कैश कर ममता सीएम की कुर्सी तक पहुँच गई। शुभेंदु का परिवार 'अधिकारी ब्रदर्स' बन गया, लेकिन नन्दीग्राम की जनता को मिली बेरोजगारी, भूख और गरीबी।
हालांकि बुद्धदेव के प्रति लोगों की सहानुभूति दिख रही है, लेकिन चुनाव तो बाज़र की तरह है। यहाँ फूलों के बीच ही फ़ैसला होना है। एकतरफ जोड़ा फूल से दीदी है तो दूसरी ओर कमल फूल से दादा। ममता को भरोसा है कि अल्पसंख्यक वोट उन्हें ही मिलेगा। शुभेंदु को भी यह मालूम है कि इस बार यह वोट उनके पाले नहीं आनेवाला है।
सांप्रदायिक ध्रुवीकरण
सो वे तुष्टीकरण का मामला उठा रहे हैं। नन्दीग्राम एक ब्लॉक में 35 प्रतिशत जबकि दो नम्बर में 15 प्रतिशत अल्पसंख्यक वोट हैं। कुल 2,47,000 वोट हैं। पिछले संसदीय चुनाव में जब बीजेपी का विजय अभियान चला तब भी नन्दीग्राम से टीएमसी को 1,30,000 मत मिले थे। यह शुभेंदु और टीएमसी के संयुक्त प्रयास का परिणाम था। कभी ममता-शुभेंदु ने मिलकर इसी नन्दीग्राम से बंगाल के लालदुर्ग को ध्वस्त कर दिया था। आज नन्दीग्राम में ही दोनों की अग्निपरीक्षा है।
नन्दीग्राम को अपने पाले में करने के लिए लगातार कोशिशें जारी हैं। शुभेंदु यहाँ से वोटर बने तो ममता ने भी फ़ारूक शेख के घर को अपना ठिकाना बनाया। हालांकि पैर में चोट लगने के कारण वे इस घर में ठहर नहीं पाईं। फिलहाल यह घर टीएमसी का 'वार-रूम' बना हुआ है। दोला सेन समेत अन्य कार्यकर्त्ता यहां ठहरे हुए हैं। फ़ारूक़ रिटायर आर्मी मैन हैं। वे कहते हैं जब पता चला स्वयं सीएम उनके यहां रहने आ रही तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा।
2011 में इसी नन्दीग्राम की चाबी से सत्ता की ताला खुला था। एक दशक बाद इसी नन्दीग्राम के रास्ते बंगाल की सत्ता पर काबिज़ होने का सपना देख रही टीएमसी और बीजेपी। खूब चीख रहे नेता। नए-नए नारों, झंडों और डंडों से अटा पड़ा है इलाका। नन्दीग्राम मौन है। वह सिर्फ निहार रहा है। मुस्कुरा रहा है। 2 मई को नन्दीग्राम ईवीएम को बताएगा अपनी राय।
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