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‘मेरा नाम शिवराज है’ यानी दिल्ली सुन ले, टाइगर अभी ज़िंदा है! 

अमित शाह के हवाले से जानकारी छपी है कि शिवराज सिंह (और वसुंधरा राजे) की आगामी भूमिका चुनावों के बाद तय होगी ! शिवराज एक अनुभवी राजनेता हैं। वे जानते हैं कि इस तरह के सवाल या तो किए जाएँगे या करवाए जाएँगे ! इसीलिए लगभग उसी दौरान जब 17 नवम्बर को मतदान प्रारंभ होने ही वाला था, शिवराज ने ‘मन की बात’ उजागर कर दी कि पार्टी जो भी ज़िम्मेदारी देगी स्वीकार करने के लिए तैयार हैं। ‘निवृत्तमान’ मुख्यमंत्री को पता है कि पार्टी अगर जीत गई तो उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाया जाएगा और हार गई तो आलाकमान यानी प्रधानमंत्री उन्हें किन ज़रूरी कामों में लगा सकते हैं !

अपने भविष्य का काफ़ी कुछ अनुमान शिवराज को उस समय ही लग गया होगा जब चुनाव प्रचार की अंतिम घड़ी में 14 नवम्बर के दिन इंदौर में महानगर के एक व्यस्ततम पौने दो किलोमीटर लंबे टुकड़े पर हुए पचास मिनट के भव्य रोड शो में प्रधानमंत्री के साथ खुली जीप पर एकमात्र सवार व्यक्ति प्रदेश का मुख्यमंत्री नहीं बल्कि प्रदेशाध्यक्ष-सांसद वी डी शर्मा थे। मानकर चला जा सकता है कि रोड शो के शांतिपूर्वक संपन्न होने तक जन-समूह की संख्या और सुरक्षा इंतज़ामों को लेकर शिवराज अपने द्वारा ही शहर में नियुक्त किए गए अधिकारियों से पल-पल की जानकारी लेते रहे होंगे।

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मध्यप्रदेश की कोई नौ करोड़ जनता को संघर्षपूर्ण चुनावों के नतीजों  के साथ ही जिस एक अन्य जानकारी की प्रतीक्षा है वह यह है कि शिवराज का आगे क्या होने वाला है ? एक साल 28 दिनों का संक्षिप्त ‘कमलकाल’ छोड़ दें तो जो व्यक्ति पिछले अठारह सालों से सत्ता में बना हुआ है उसका आगे का राजनीतिक भविष्य जनता ही नहीं पार्टी और वफ़ादार नौकरशाही में भी चर्चा का विषय है। शिवराज दोनों ही चिंताओं से मुक्त हैं ! नतीजों की पूर्व जानकारी उन्हें 2018 में भी थी और इस बार भी है। मोदी जिसे पसंद करना छोड़ देते हैं उसे दी जाने वाली ज़िम्मेदारियों का भी उन्हें पूर्वानुमान है।

नरेंद्र मोदी तो 2001 में पहली बार गुजरात की विधानसभा में पहुँचे थे और सीधे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ गए। शिवराज सिंह उनसे दस साल पहले 1991 में विधायक बन चुके थे। वे उसके बाद पाँच बार लोकसभा के लिये चुने गए। मोदी पहली बार संसद में 2014 में पहुँचे और सीधे प्रधानमंत्री बन गए। विधायक बनने से पहले शिवराज वर्षों तक संगठन में महत्वपूर्ण पदों पर काम कर चुके थे।

शिवराज सिंह से एक इंटरव्यू में जब सवाल किया गया कि आलाकमान द्वारा घोषित किए बग़ैर ही वे चुनाव में मुख्यमंत्री पद का चेहरा कैसे बन गए तो उनका जवाब था :’अब जन-भावनाओं का तो हम कुछ नहीं कर सकते !’ 2018 में भी शिवराज को मुख्यमंत्री पद का चेहरा नहीं बनाया गया था और चुनाव प्रधानमंत्री के चेहरे पर ही लड़ा गया था। भाजपा चुनाव हार गई थी। पूछा जा सकता है कि कमलनाथ सरकार के गिरने के बाद 2020 में जब फिर से भाजपा की सरकार बनी तो शिवराज को ही मुख्यमंत्री क्यों बनाना पड़ा ? 

विधानसभा में हार-जीत के नतीजों से भी बड़ा सवाल यह है कि चार महीनों के बाद ही होने वाले लोकसभा चुनावों में मध्यप्रदेश में नेतृत्व कौन करेगा ? 2019 के लोकसभा चुनावों में तो देश भर में मोदी का ही चेहरा था और उनका जादू भी तब कारगर था। इसीलिए विधानसभा हारने के बावजूद पार्टी ने लोकसभा में प्रदेश की 29 में से 28 सीटें जीत लीं थीं। उन्हीं जीती गई सीटों के सात दिग्गजों और एक राष्ट्रीय महासचिव को ‘शिवराज का विकल्प तैयार करने के लिए’ विधानसभा चुनाव लड़वाया गया। पूरे प्रदेश ने देखा कि सारे ही दिग्गज अपने-अपने चुनाव क्षेत्रों में ही क़ैद रहते हुए किस तरह से हाँफने लगे जबकि शिवराज बुधनी में चुनाव प्रचार के लिए गए ही नहीं।

सवाल यह है कि आलाकमान (मोदी-शाह) शिवराज का कोई ‘चुनाव जिताऊ विकल्प’ अगर नौ सालों में नहीं खड़ा कर पाया है तो लोकसभा चुनावों के पहले चार महीनों में ऐसा क्या चमत्कार हो जाने वाला है ? शिवराज के प्रति ‘नज़र आती’ नाराज़गी का क्या एक कारण यह भी हो सकता है कि योगी की तरह ही ये मुख्यमंत्री भी सत्ता का एक केंद्र बन गए हैं। (वैसे भी दिल्ली के मुक़ाबले भोपाल से नागपुर आधी से कम दूरी पर है।) कर्नाटक में भी ऐसा ही केंद्र येदियुरप्पा बन गए हैं। इसीलिए वहाँ की हार के बाद उनके बेटे को प्रदेश की कमान सौंपी गई है। राजस्थान में भी ऐसा ही एक केंद्र वसुंधरा के नेतृत्व में खड़ा हो रहा है।

भाजपा आलाकमान ने उक्त सभी स्थानों पर विकल्प तैयार करने की कोशिशें कीं पर अपेक्षित सफलता नहीं मिली। शिवराज का नाम चौथी सूची में शामिल करने से काफ़ी पहले आठ दिग्गज नामों की घोषणा के बाद एक हिन्दी अख़बार ने हेडलाइन प्रकाशित की कि : ‘सीएम की दौड़ में रहे विजयवर्गीय-तोमर-पटेल को टिकट’। ये तीनों नाम और पाँच अन्य शिवराज के मुक़ाबले कितने दमदार हैं, कुछ तो चुनाव-प्रचार की कसरत में साबित हो गया और बाक़ी नतीजों के बाद पता चल जाएगा।

तीसरी सूची घोषित होने तक जब प्रदेश में चर्चाएँ चल निकलीं कि मुख्यमंत्री का टिकट कट रहा है तो शिवराज ने वही किया जो 2014 के लोकसभा चुनावों के पहले करने से वे डर गए थे। प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवारी में शिवराज को मोदी के मुक़ाबले सशक्त दावेदार माना जा रहा था। आडवाणी सहित वाजपेयी युग के कई नेताओं और संघ का उन्हें समर्थन प्राप्त था। (यह बात कभी अलग से कि संघ बाद में पलटी क्यों खा गया !)  इसमें यह भी शामिल है कि शिवराज के आग्रह पर 2014 में आडवाणी भोपाल से लोकसभा का चुनाव लड़ना चाहते थे पर आलाकमान द्वारा उन्हें रोक दिया गया और गांधीनगर से उम्मीदवार बनाया गया।

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शिवराज के इस कदम को बिना कोई आवाज़ किए आलाकमान के प्रति चुनौती भी माना जा सकता है कि जब तीसरी सूची तक नाम सामने नहीं आया तो वे अपने क्षेत्र की जनता के बीच पूछने पहुँच गए :’ मैं चला जाऊँगा तो बहुत याद आऊँगा ! मैं चुनाव लड़ूँ या नहीं ? यहाँ से लड़ूँ या नहीं ?’ जनता ने अपने हाथ ऊँचे करके ज़ोरदार आवाज़ में शिवराज के प्रति समर्थन ज़ाहिर कर दिया।

चुनाव प्रचार के दौरान जब एक अंग्रेज़ी अख़बार के संवाददाता ने शिवराज से सवाल पूछा कि इतने साल सत्ता में रहने के बाद भी चुनावी चेहरा नहीं बनाए जाने पर क्या आपको बुरा नहीं लगा तो मुख्यमंत्री ने जवाब दिया : “मेरा नाम शिवराज सिंह चौहान है ! छोटी-छोटी बातों का मुझ पर या मेरे काम पर असर नहीं पड़ता। कुछ तो हूँ मैं ! पोस्ट महत्वपूर्ण नहीं है !” 

शिवराज सिंह किसी और संदर्भ में पहले कभी ऐसा भी बोल चुके हैं कि ‘टाइगर अभी ज़िंदा है।’ शिवराज के कहे की गूंज दिल्ली दरबार तक भी निश्चित ही पहुँच रही होगी?

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क़मर वहीद नक़वी
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