इस साल होली में हिंदुस्तान ने एक अलग नज़ारा देखा।
मूर्खों का तिरपाल और होली का मुग़ल काल!
- विचार
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- 14 Mar, 2025

भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब में होली का विशेष स्थान था, जहाँ मुग़ल बादशाह भी रंगों में सराबोर होते थे। लेकिन आज माहौल बदल रहा है—मस्जिदों को ढंका जा रहा है। ऐसा क्यों? पढ़ें इतिहास और वर्तमान के बदलते रंग।
उत्तर प्रदेश के संभल में मस्जिदों को तिरपालों से ढंकने की नौबत आ गई और नेताओं व कुछ लोगों ने हिंदू-मुसलमान को बाँटने के लिए ज़हरबुझे बयान दिए और मुल्क की गंगा-जमुनी तहज़ीब को तार-तार करने की कोशिशें भी कीं।
ये तिरपाल मस्जिदों पर नहीं, हिंदुस्तान की उस सनातन संस्कृति पर डाला गया जिसमें कहा जाता है- सर्वे भवन्तु सुखिनः। सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु। मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत्॥ यह भारत के वसुधैव कुटुम्बकम सनातन की वैश्विक अवधारणा पर डाला गया। यह तिरपाल उन जहरीले दिमागों की बौद्धिक दरिद्रता और उनके दोहरे चरित्र को दुनिया से छुपाने के लिए डाला गया, ताकि दुनिया हिंदू संस्कृति के ऋग्वेद के उस श्लोक को न पढ़ ले जिसमें ऋषि ने समाज के प्रत्येक व्यक्ति से एकजुट होकर कार्य करने की बात की है। ताकि आपको इसका वास्तविक अर्थ न समझ में आये- संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। देवा भागं यथा पुरः। जो कहता है- "संगच्छध्वं" यानी आपस में मिलकर चलिए, और "संवदध्वं" यानी – आपस में संवाद कीजिए। ताकि समाज सत्य की प्राप्ति के लिए वेदोक्त सहिष्णुता, एकता और सामूहिक विकास की महत्ता को भूल जाये। पर क्या ऐसा होगा।
होली: मोहब्बत के रंग, नफ़रत की दीवारें नहीं
अंधभक्ति की हदें पार कर मूढ़ता की ओर बढ़ते लोग चाहे जितनी साज़िशें रच लें, चाहे सियासी चालों से मुल्क को जितना गुमराह कर लें—हक़ीक़त यही है कि उनकी असलियत दुनिया के सामने बेपर्दा होती जा रही है। और इस नफ़रत के तिरपाल से वे अपने चेहरों को ज्यादा देर तक नहीं छिपा सकते।