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मूर्खों का तिरपाल और होली का मुग़ल काल!

इस साल होली में हिंदुस्तान ने एक अलग नज़ारा देखा।

उत्तर प्रदेश के संभल में मस्जिदों को तिरपालों से ढंकने की नौबत आ गई और नेताओं व कुछ लोगों ने हिंदू-मुसलमान को बाँटने के लिए ज़हरबुझे बयान दिए और मुल्क की गंगा-जमुनी तहज़ीब को तार-तार करने की कोशिशें भी कीं। 

ये तिरपाल मस्जिदों पर नहीं, हिंदुस्तान की उस सनातन संस्कृति पर डाला गया जिसमें कहा जाता है- सर्वे भवन्तु सुखिनः। सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु। मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत्॥ यह भारत के वसुधैव कुटुम्बकम सनातन की वैश्विक अवधारणा पर डाला गया। यह तिरपाल उन जहरीले दिमागों की बौद्धिक दरिद्रता और उनके दोहरे चरित्र को दुनिया से छुपाने के लिए डाला गया, ताकि दुनिया हिंदू संस्कृति के ऋग्वेद के उस श्लोक को न पढ़ ले जिसमें ऋषि ने समाज के प्रत्येक व्यक्ति से एकजुट होकर कार्य करने की बात की है। ताकि आपको इसका वास्तविक अर्थ न समझ में आये- संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। देवा भागं यथा पुरः। जो कहता है- "संगच्छध्वं" यानी आपस में मिलकर चलिए, और "संवदध्वं" यानी – आपस में संवाद कीजिए। ताकि समाज सत्य की प्राप्ति के लिए वेदोक्त सहिष्णुता, एकता और सामूहिक विकास की महत्ता को भूल जाये। पर क्या ऐसा होगा। 

होली: मोहब्बत के रंग, नफ़रत की दीवारें नहीं

अंधभक्ति की हदें पार कर मूढ़ता की ओर बढ़ते लोग चाहे जितनी साज़िशें रच लें, चाहे सियासी चालों से मुल्क को जितना गुमराह कर लें—हक़ीक़त यही है कि उनकी असलियत दुनिया के सामने बेपर्दा होती जा रही है। और इस नफ़रत के तिरपाल से वे अपने चेहरों को ज्यादा देर तक नहीं छिपा सकते। 

ताज़ा ख़बरें

जो होली कभी प्रेम और सौहार्द्र का प्रतीक थी, हिंदू-मुसलमान की साझी खुशियों का रंग थी, वह अब पहचान की दीवारें खड़ी करने का ज़रिया बनती जा रही है। जो कभी मुग़ल दरबारों में सबको जोड़ने वाला उत्सव था, वह अब यूपी की गलियों में "शक्ति प्रदर्शन" के नाम पर एक तमाशा बन गई है।

आज जब त्योहारों को मज़हबी खाँचों में क़ैद करने की कोशिशें हो रही हैं, तब इतिहास को याद करना ज़रूरी हो जाता है—वह दौर, जब हिंदुस्तान की फ़िज़ाओं में मोहब्बत, ग़ैरत और भाईचारे के रंग उड़ते थे। जब मुग़ल सल्तनत, जो तुर्क-ईरानी तहज़ीब से आई थी, इस सरज़मीं की मिट्टी में रच-बस गई थी। होली केवल अवाम का त्योहार नहीं था, बल्कि महलों और दरबारों तक अपनी दस्तक दे चुका था।

मुग़ल बादशाहों ने हिंदुस्तान को तलवार से नहीं, तहज़ीब से जोड़ा। बाबर से लेकर बहादुर शाह ज़फ़र तक, शाहजहाँ से लेकर वाजिद अली शाह तक—मुग़ल सल्तनत ने होली को गले लगाया। ताजमहल बनाने वाले शाहजहाँ ने अपनी बेगम मुमताज़ के साथ होली खेली थी। अकबर के महल में होली के रंग बरसते थे, जहांगीर के दौर में दरबार में गुलाल उड़ता था, और वाजिद अली शाह की रंगीन महफिलों में हिंदू-मुसलमान एकसाथ झूमे थे।
सूफ़ी कवियों ने इसे "ईद-ए-गुलाबी" कहा और सूफ़ी ख़ानक़ाहों में भी इस त्योहार को सलीके से मनाया गया। होली के इस ऐतिहासिक रंग को सियासी साज़िशों से धुंधलाने की जो कोशिशें हो रही हैं, उन्हें बेनक़ाब करना हम सबका फ़र्ज़ है।
mosques covered vs ganga jamuni tehzeeb holi mughal tradition - Satya Hindi

तो आइए, इस होली पर इतिहास के उन रंगों को याद करें जो हमें बांधते हैं, न कि उन साज़िशों को जो हमें तोड़ती हैं।

जहांगीर की होली: जब नूरजहाँ ने किया गुलाल से स्वागत

मुगलिया सल्तनत का शायद ही कोई बादशाह ऐसा हो, जिसने हिंदुस्तान की रवायतों से खुद को जुदा रखा हो। जहांगीर (1605-1627) अपनी बेगम नूरजहाँ के साथ होली का भरपूर आनंद लेता था। जहाँगीर और नूरजहाँ की मोहब्बत किसी से छिपी नहीं। लेकिन कम लोग जानते हैं कि जहाँगीर ने अपनी बेगम नूरजहाँ के साथ होली खेली थी।

एक बार जब जहांगीर किसी जंगी मुहिम से लौटा, तो नूरजहाँ ने उसका इस्तक़बाल अपने ही अंदाज़ में किया—गुलाल उड़ा कर। होली का दिन था, तो नूरजहाँ ने जहाँगीर को गुलाल से सराबोर कर दिया।

जहाँगीर ने हंसते हुए पूछा— "ये क्या किया मल्लिका?" "यह कौन-सा इत्र है, जो इतनी खुशबू बिखेरता है?"

नूरजहाँ मुस्कराई और बोली— "यह हिंदुस्तान की होली का रंग है, जो हर दिल में बस जाता है!"

नूरजहाँ ने आगे कहा - "जहाँपनाह, जब मुहब्बत का रंग लग जाए, तो तख़्त भी फ़क़ीर नज़र आता है!"

उस दिन पूरा दरबार महक रहा था। जहाँगीर ने भी जवाब में गुलाल उठाकर नूरजहाँ पर फेंक दिया और पूरे महल में होली का जश्न छा गया।

दरबार के शायरों ने इस मौक़े पर क्या खूब कहा—

"गुलाल की बौछार और बादशाह की सवारी,

होली के रंग में रँगी है सजी महफ़िल हमारी!"

एक शायर ने कहा—

"मल्लिका ने फेंका गुलाल, जहाँपनाह ने मुस्कराके सँवारा,

अब हिंदुस्तान का ये रंग, रहेगा सदियों तक प्यारा!"

विचार से और

शेरशाह सूरी का फरमान: “होली कोई मजहबी नहीं, दिलों का त्योहार है”

अगर कोई सोचता है कि मुस्लिम हुक्मरानों ने हिंदू त्योहारों पर रोक-टोक लगाई, तो शायद उसने इतिहास ठीक से नहीं पढ़ा। शेरशाह सूरी (1540-1545) धार्मिक सहिष्णुता के लिए जाना जाता था। जब वह बिहार और उत्तर प्रदेश में शासन कर रहा था, तब उसने अपने प्रशासन में हिंदू-मुसलमान दोनों के त्योहारों को बराबर तवज्जो दी और होली का विशेष आयोजन करवाया। शेरशाह सूरी की सल्तनत में बिहार और यूपी में उसके ज़माने में होली का खास इंतज़ाम होता था।

एक बार उसके एक मंत्री ने कहा—"हुज़ूर, क्या मुसलमानों को भी होली खेलनी चाहिए?"

शेरशाह ने जवाब दिया—"जब तक यह त्योहार लोगों को खुश रखता है और दिलों को जोड़ता है, तब तक यह हर इंसान के लिए है।"

शेरशाह ने अपने सिपाहियों को आदेश दिया था कि किसी भी हिंदू को होली खेलने से न रोका जाए और मुसलमान भी चाहें तो इसमें शामिल हो सकते हैं।

शाहजहाँ की होली: ताजमहल के सफेद संगमरमर पर गुलाल

शाहजहाँ के शासनकाल में होली को ईद-ए-रंग और आब-ए-पाशी कहा जाता था। 'आब-ए-पाशी' का मतलब था पानी की बौछार। दरबार में रंगों और पानी के साथ-साथ संगीत और नृत्य का भी आयोजन होता था। शाहजहां भी इस उत्सव में शामिल होते थे।

शाहजहां के (1628-1658) के दौर में होली केवल हिंदू ख़ानदानों तक महदूद नहीं थी, बल्कि मुसलमान भी इस त्यौहार को भव्य उत्सव की तरह मिलकर मनाते थे।

कहा जाता है कि ताजमहल बनने के बाद पहली होली में मुगल राजकुमारों ने आगरा में रंग खेला था। राजमहल के आँगन में भी रंग उड़ते थे और लाल क़िले के अंगूरी बाग़ में भी होली का खास आयोजन होता था। गुलाल की होली खेली जाती और दरबारियों के लिए अलग-अलग रंगों की व्यवस्था की जाती थी। महलों को फूलों से सजाया जाता था, सुगंधित रंगों का इस्तेमाल किया जाता था और संगीत सभाएं आयोजित की जाती थीं। रानियां और हरम की महिलाएं महल के अंदर रंग खेलती थीं।

एक बार दरबार में एक हिंदू मंत्री ने शाहजहाँ से पूछा— "जहांपनाह, क्या आपने कभी गुलाल उड़ता देखा है?"

शाहजहाँ ने हंसते हुए जवाब दिया—"मैंने ताजमहल के संगमरमर को रंग बदलते देखा है, पर शायद गुलाल का रंग इससे भी ज्यादा सुंदर होगा!"

और तब शायरों ने कहा—"रंग ताज का फीका पड़ जाए, जब फिज़ाओं में गुलाल उड़ जाए!"

उस दौर में होली के दौरान किसी शायर ने एक और खूबसूरत शेर अर्ज़ किया —"बख़्शिश-ए-बादशाह है देखो, लाल क़िले पर गुलाल है देखो!"

 

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अकबर और जोधाबाई की होली

हिंदुस्तान की मिलीजुली तहज़ीब की बुनियाद मुग़ल सम्राट अकबर के दौर में मज़बूत हुई। अकबर (1556-1605) के दरबार में होली बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाई जाती थी। होली का रंग पूरे दरबार में नज़र आता था। कहा जाता है कि जोधाबाई ने अकबर के लिए विशेष रूप से टेसू के फूलों से रंग तैयार करवाया था। अकबर अपने दरबारियों के साथ फतेहपुर सीकरी में रंगों की बौछार करते थे।

फतेहपुर सीकरी में एक बार जोधाबाई ने होली के दिन उनके ऊपर गुलाल डाल दिया। अकबर ने पहले हैरानी से देखा, फिर खिलखिलाकर हंस पड़े।

"ये कौन-सा खेल है?" उन्होंने पूछा।

जोधाबाई बोलीं—"जहाँपनाह, ये मुहब्बत का खेल है, इसमें बादशाह-रईस, अमीर-ग़रीब सब बराबर होते हैं!"

अकबर को यह बात इतनी पसंद आई कि उन्होंने पूरे दरबार को आदेश दिया कि "आज हर कोई रंग खेलेगा!"

उस दिन अमीरों और दरबारियों के साथ आम जनता भी लाल-कैसरिया रंगों में भीग गई। और यह परंपरा आगे चलकर मुग़लिया सल्तनत का हिस्सा बन गई।

एक बार बीरबल ने अकबर से कहा—"जहांपनाह, हिंदुस्तान की होली और आपकी शानो-शौकत में कोई फर्क नहीं है।"

अकबर ने पूछा, "वह कैसे?"

बीरबल ने हंसते हुए कहा, "क्योंकि दोनों में ही हर कोई रंग में डूब जाता है और असली-नकली की पहचान मुश्किल हो जाती है।"

अकबर के नवरत्नों में से एक बीरबल ने फिर कहा—"जहाँपनाह, होली तो दिलों को जोड़ती है, और जो इसे मनाए बिना रह जाए, वो फकीर भी नहीं, बस एक पत्थरदिल इंसान रह जाता है।"

अकबर की सबसे बड़ी खासियत थी कि वह हर धर्म की रिवायतों को न केवल अपनाता था, बल्कि उन्हें अपने अंदाज़ में जीता भी था।

बहादुर शाह जफर की शायरी और होली

बहादुर शाह ज़फर (1857 के विद्रोह के समय आखिरी मुगल बादशाह) भी होली के दीवाने थे। बहादुर शाह अपने क़िले में रंग-बिरंगी होली का आयोजन करते थे। 1857 के विद्रोह से पहले अपने आखिरी दिनों में शाह ने होली पर एक सुंदर शेर लिखा जब वे मस्ती और आनंद के कुछ पल बिताना चाहते थे। —

"कुछ दिन हैं बस होली के, हँस लो, खेल लो दोस्तों,

किसको खबर कल का, गुलाल उड़ाओ धूम मचाओ!"

जब अंग्रेजों ने 1857 में विद्रोह के बाद कैद बहादुर शाह की अंतिम होली अंग्रेज़ों की गिरफ़्त में रंगों के बिना मनाई गई। तब ज़फर ने उदास होकर एक शेर कहा—

"अब ना वो रंग हैं, ना वो गुलाल की खुशबू,

अब तो वीरान है मेरा महल, और सूनी मेरी होली!"

बहादुर शाह की यह उदासी ब्रिटिश गुलामी की ओर इशारा कर रही थी, क्योंकि उस समय भारत में क्रांति और संघर्ष का माहौल था।

अवध के नवाबों की होली

अवध के नवाब  वाजिद अली शाह (1847-1856) को होली खेलने का बहुत शौक़ था। लखनऊ के इमामबाड़े में होली के मौके पर संगीत महफ़िलें सजती थीं। वे अपनी हिंदू बेगमों और मुस्लिम दरबारियों के साथ होली खेलते और संगीत का आयोजन कराते। कहा जाता है कि उन्होंने एक बार अपने फ़ारसी कवि दोस्त से पूछा—

"क्या फ़ारसी में होली का कोई शेर नहीं?"

तो उनके दरबारी ने कहा—

"अब के होली ऐसी खेले शाह-ए-अवध, रंग में भीग जाए सारा लखनऊ!"

उसी दरम्यान एक बार एक मुस्लिम दरबारी ने होली खेलने से इनकार कर दिया।

नवाब ने हंसते हुए कहा—

"अगर तुम होली नहीं खेलोगे, तो ईद की सेवइयां भी नहीं खाओगे!"

यह सुनकर दरबारी ने कहा—

"हुज़ूर, फिर तो गुलाल भी मंज़ूर है और सेवइयां भी!"

 

मुगल काल में होली केवल हिंदुओं का नहीं, बल्कि एक साझा सांस्कृतिक उत्सव था, जिसे हिंदू-मुस्लिम दोनों मिलकर मनाते थे। यह त्योहार न सिर्फ आम जनता, बल्कि मुगल दरबार और नवाबों के महलों तक अपनी पहचान बना चुका था। मुगल और नवाबी दौर में होली सिर्फ एक त्योहार नहीं, बल्कि हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक था। अकबर से लेकर शाहजहाँ और वाजिद अली शाह तक—सबने इस त्योहार को अपनाया। होली के रंगों ने कई बार बादशाहों को भी सराबोर किया, और उन्होंने इसे एक साझा सांस्कृतिक धरोहर के रूप में स्वीकार किया।

मुगल राजकुमारों की होली: दारा शिकोह बनाम औरंगज़ेब 

हलांकि औरंगज़ेब ने अपने शासनकाल में होली और अन्य हिंदू त्योहारों पर सख़्ती बढ़ा दी थी। औरंगजेब की पाबंदियों के बावजूद आम लोग होली मनाते रहे। शाहजहाँ का बेटा दारा शिकोह गंगा-जमुनी तहज़ीब का सबसे बड़ा झंडाबरदार था। वह होली के दिन अपने हिंदू दोस्तों के साथ रंग खेलता, भांग पीता और महफ़िल जमाता। लेकिन उसके भाई औरंगज़ेब को यह सब नागवार गुज़रता।

एक बार दारा ने औरंगज़ेब से कहा— "भाईजान, आओ, आज होली खेलते हैं!"

औरंगज़ेब ने कहा—"यह ग़ैर-इस्लामी रस्म है, मैं इसमें शरीक नहीं हो सकता!"

एक बार दारा ने कहा—"भाईजान, क्या खुदा ने इंसानों को रंगों से नहीं नवाज़ा? फिर होली से परहेज़ क्यों?"

औरंगज़ेब ने कहा—"इस्लाम में इसकी इजाज़त नहीं!"

दारा शिकोह ने जवाब दिया—"मजहब दिलों में बसता है, रंगों में नहीं!"

दारा ने कहा - "रंग कोई भी हो, उसे अपनाने में कोई बुराई नहीं। जब खुदा ने इंसान को अलग-अलग रंग दिए, तो हम गुलाल से क्यों डरें?"

दारा की यही सोच हिंदुस्तान की असली पहचान बनी। इसी सोच ने दारा को हिंदुस्तान के दिल के करीब रखा, और औरंगज़ेब को एक तानाशाह के तौर पर याद रखा गया। दारा शिकोह (शाहजहाँ का बड़ा बेटा) धर्मों के बीच सद्भाव का समर्थक था और वह होली को खुले दिल से मनाता था। जबकि औरंगज़ेब इसे नापसंद करता था।

 

टीपू सुल्तान और होली

मैसूर के टीपू सुल्तान (1751-1799) के शासन में भी होली बड़े पैमाने पर मनाई जाती थी।

एक बार टीपू सुल्तान ने कहा:

"रंग इंसान को जोड़ते हैं, और हर रंग में एक खुदा बसता है।"

उसने अपनी राजधानी में होली का त्योहार मनाने की खुली इजाज़त दी और खुद भी अपने हिंदू सैनिकों के साथ इसमें शामिल हुआ।

एक दिलचस्प किस्सा – जब बादशाह ने मय पर पाबंदी लगा दी

एक बार किसी मुगल बादशाह ने होली के दौरान शराब पीकर हुड़दंग मचाने वालों पर सख्ती के लिए शराब पर पाबंदी लगा दी।

लोग अपना दर्द लेकर एक शायर के पास गये, तो उन्होंने यह शेर लिखकर दे दिया और कहा कि इसे बादशाह तक पहुंचा दो—

"कुर्क मय अय्याम होली में कहो क्या कीजिए,

जी में आता है कि इस सूरत में कंठी लीजिए।"

जब बादशाह को ये शेर मिला तो उन्होंने इजाज़त देते हुए जवाबी शेर लिखा –

ग़र इजाज़त चाहते हो खौफ इतना कीजिए,

साथ ही भर भर किसी बदमस्त को मत दीजिए।

 

और इस तरह उन्हें मय की इजाज़त मिल गयी।

इतिहास सबक देता है, बँटवारे की दीवार नहीं

यह कोई पहली बार नहीं कि होली जुमा के दिन आई हो, या किसी मुस्लिम त्योहार का संयोग मंगलवार से हुआ हो। मगर अफ़सोस, आज फिर कुछ लोग मज़हब के नाम पर दीवारें खड़ी करने की कोशिश कर रहे हैं। उन्हें यह समझना चाहिए कि हिंदुस्तान की बुनियाद मज़हबी तअस्सुब (कट्टरता) पर नहीं, बल्कि मोहब्बत और मेल-जोल पर टिकी है।

होली सिर्फ़ हिंदुओं का नहीं, बल्कि हर उस इंसान का त्योहार है जो दिलों को जोड़ने और खुशियों के रंग बिखेरने में यक़ीन रखता है। जब मुग़ल बादशाहों के महलों में होली खेली जाती थी, जब अकबर, जहांगीर, शाहजहाँ और वाजिद अली शाह के दरबारों में हिंदू-मुस्लिम मिलकर त्योहार मनाते थे, तो आज ऐसा क्यों नहीं हो सकता?

मगर अफ़सोस, आज कुछ जगहों पर सख़्त पहरे में होली खेली जा रही है, जबकि दक्षिण भारत में ज़िंदगी आम दिनों की तरह चल रही है—बिना किसी तिरपाल के, बिना "शांति अपीलों" के, बिना किसी डर के। वहाँ किसी के लिए "हिन्दी" अजनबी है, तो यहाँ "उर्दू" पराएपन का शिकार।

कुछ लोग यह भी नहीं जानते कि बीजेपी और आरएसएस के कई नेताओं के अपने परिवारों में मुस्लिम रिश्तेदार हैं। नफ़रत फैलाने वालों को यह याद रखना चाहिए कि यह मुल्क कभी एक धर्म, एक रंग, एक जाति का नहीं रहा। इसकी पहचान विविधता और आपसी मोहब्बत से बनी है।

"जब होली के रंग हवाओं में घुल जाते हैं,

फिर न हिंदू दिखता है, न मुसलमान नजर आता है!"

और हाँ, इस देश की एक बड़ी आबादी आज भी गंगा-जमुनी तहज़ीब को ज़िंदा रखे हुए है—और आगे भी रखेगी।

होली मुबारक! 

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ओंकारेश्वर पांडेय
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