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राहुल गांधी को घेरने के लिए अब इमरजेंसी का मुद्दा?

इमरजेंसी संविधान के प्रावधानों के अनुसार, समय पर कायदे से लगाई गई थी। इसलिए इमरजेंसी लगाना संविधान विरोधी नहीं हो सकता है। उस समय आरएसएस पर पाबंदी लगी थी, उसे वापस ले लिया गया। पाबंदी लगाना या वापस लेना - संविधान विरोधी ज़रूर हो सकता है। इमरजेंसी पहले भी लगी थी, आरएसएस पर प्रतिबंध भी। इसलिए दोनों ग़लत नहीं हो सकते हैं। हटाने के बारे में मैं अभी बात नहीं कर रहा। वह मुद्दा नहीं है। इमरजेंसी में मनमानी गिरफ्तारियां संविधान विरोधी हो सकती हैं। लेकिन वह मुख्यमंत्री को किसी भी तरह जेल में रखने के लिए किये जा रहे उपायों से ज्यादा संविधान विरोधी नहीं है।

वैसे भी निर्वाचित जन प्रतिनिधि को जेल रखने के लिए सरकारी वकील की सेवाएं लेना या लगाना – जबकि उसके खिलाफ सबूत नहीं है और सरकारी कर्मचारी को भी सरकारी काम करने के लिए छूट व संरक्षण मिलता है ताकि उसके खिलाफ जांच में सरकारी संसाधन व्यर्थ न जाये। यहां यह सब हो रहा है इसलिए हो न हो, मुद्दा तो है। इमरजेंसी में या उस दौरान क़ायदे क़ानूनों का पालन अघोषित इमरजेंसी के मुकाबले बेहतर था। अगर आपको लगता है कि हाईकोर्ट से चुनाव हार जाने के बाद इंदिरा गांधी को इस्तीफा दे देना चाहिये था तो सच यह है कि सुप्रीम कोर्ट में अपील का मौका था और उसका फैसला आने से पहले ही इंदिरा गांधी पर कई तरह के दबाव थे। अगर आपको यह सब जायज और उचित लगता है तो सच यह भी है कि इमरजेंसी के बाद जो सरकार बनी वह पांच साल नहीं चल पाई।

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ऐसे में यह मानने के कारण हैं कि उनके पास सूचना रही होगी कि इस्तीफा देने पर विपक्ष चला (संभाल) नहीं पायेगा और यह देश हित में नहीं होता। यह ऐसे ही है कि अयोग्य और अक्षम प्रधानमंत्री होने के कारण नोटबंदी और जीएसटी जैसे फैसले हुए, 370 हटाने से कोई फायदा नहीं हुआ और हटाने के पांच साल बाद भी स्थानीय चुनाव नहीं कराये जा सके हैं। इसलिए, इमरजेंसी किसी तरह से ग़लत नहीं थी, ना अधिकारों का दुरुपयोग था। अधिकारों का दुरुपयोग तानाशाही मानसिकता है। अगर ऐसा कुछ है तो वह सब अब पहले से बहुत ज्यादा है। अघोषित इमरजेंसी सिर्फ कहा नहीं जाता है, इसपर किताब भी है। वैसे ही जैसे इमरजेंसी को बदनाम करने के लिए 2019 और 2020 में 44-45 साल बाद आई हैं। अब तो फिल्म भी बन रही है। अमर उजाला ने आज पहले पन्ने पर बताया है कि इमरजेंसी के जरिये विपक्ष की घेराबंदी की जा रही है।

मोदी सरकार की मनमानी और तानाशाही मानसिकता का उदाहरण जीएसटी में छूट है। लोकसभा में चुनाव हारते तो, ये छूट दी गई हैं। इनमें एक, छात्रों के लिए हॉस्टल या पीजी की फीस को जीएसटी मुक्त करना है। अगर इसे छात्रों की सुविधा के लिए अब ज़रूरी समझा गया है तो लगाने की ज़रूरत ही क्या थी? या लगाना ग़लत नहीं था? अगर ग़लत नहीं भी था तो क्या छात्र हित में इसकी मांग नहीं की जानी चाहिये थी? अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद या एनएसयूआई ने क्या इसकी या ऐसी कोई मांग की थी? मुझे मालूम नहीं है। अगर की हो तो सामान्य बात है नहीं की हो तो चूक। दोनों बहुत बड़ी बात नहीं हैं। पर आज एक नामालूम से संगठन ने इसके लिए प्रधानमंत्री को बधाई दी है।

मुझे लगता है कि यह प्रधानमंत्री को खुश करने और उन्हें महान बनाने के प्रयास का हिस्सा (या उसमें योगदान) है। हॉस्टल की सुविधा पर टैक्स और जहां हॉस्टल नहीं है वहां पीजी पर टैक्स पहले ही मनमाना और क्रूर है। अब जब उसे वापस ले लिया गया है तो यह कई जरूरी काम में एक है। जो दस साल नहीं हुआ। उसकी मांग नहीं की गई। हिम्मत नहीं हुई कि कहीं नाराज ना हो जायें (जो करते हैं वह परमात्मा करवाता है, इसलिये स्वाभाविक है)। ऐसे में मौका मिलते ही पूरे पन्ने की फोटो छपवाकर प्रचार करना स्वार्थ और समर्थन (चंदा दो धंधा लो) का दूसरा रूप हो सकता है। इसका विरोध भी नहीं होगा। धंधा मिल ही जायेगा जैसे पे टीएम का चलता रहा। रिजर्व बैंक की नजर अब पड़ी। ऐसे कितने ही घपले, घोटाले और अनैतिकता के बावजूद लोग नरेन्द्र मोदी की छवि बनाने में लगे हैं। 
दूसरी ओर, राहुल गांधी की छवि खराब करने के लिये जो सब किया जाता रहा है वह तो अपनी जगह है ही। उसका मुकाबला नहीं है या नहीं के बराबर है।
इस बार चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री का एकमात्र लक्ष्य कांग्रेस और उसके सहयोगियों को बदनाम करना और नीचा दिखाना रहा। लेवल प्लेइंग फील्ड जैसी कोई बात नहीं हुई। मुद्दा भी नहीं रहा। अब इमरजेंसी को खींच लाया गया है और यह काम खुद प्रधानमंत्री करते तो हम उनकी राजनीति या नीचता मानते। यह काम लोकसभा अध्यक्ष और राष्ट्रपति से करवाया जा रहा है। फिल्म भी आ रही है और पूर्व में हम फिल्मों के राजनीतिक उपयोग और उससे लाभ उठाने के तरीक़े देख चुके हैं।
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 ऐसे में कोई कारण नहीं है कि अमर उजाला ने आज जो लिखा है उसे नहीं माना जाये। यह तीनों स्थितियों में हो सकता है। तीन स्थितियां हैं, 1) अखबार वास्तिकता नहीं समझ रहा है 2) इसे ही सही मान रहा है और 3) उससे ऐसा छपवाया गया है। जो भी हो, पूरा प्रयास राहुल गांधी को इमरजेंसी के सहारे बदनाम करने या न्याय यात्रा और संविधान की रक्षा की बात करने से मिले फायदे को खत्म करना लग रहा है। यह अलग बात है कि राहुल गांधी के संपादित वीडियो से उन्हें बदनाम किया गया और नरेन्द्र मोदी की योग्यता बताने वाले कई वास्तविक वीडियो को भी अभी तक वैसे प्रचारित नहीं किया गया है जैसे राहुल गांधी के खिलाफ किया गया है।

(ये लेखक के निजी विचार हैं।)
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संजय कुमार सिंह
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