क्या दुनिया युद्ध से मोक्ष पा सकती है? क्या दुनिया के पास युद्ध के तर्पण की कोई विधि है? जबाब मिलेगा शायद नहीं। अगर ऐसा कुछ होता तो धरती पर युद्ध होते ही नहीं। युद्ध को लेकर एक और तथ्य काबिले गौर ये है कि युद्ध के समय युद्धरत देश के राजा और प्रजा का रिश्ता भी एक जैसा होता है। यदि नेतृत्व कमजोर है तो युद्ध अवश्यम्भावी हो जाता है और यदि नेतृत्व मजबूत है तो न युद्ध होता है और न वाक्युद्ध। वाक्युद्ध को 'शीतयुद्ध' भी कहते हैं। फिलिस्तीन और इज़राइल के बीच युद्ध का कोई पहला मामला नहीं है। इज़राइल भी भारत की तरह अपनी आजादी का अमृतकाल मना रहा है किन्तु उसे यहां तक आते-आते लगातार युद्धों का सामना करना पड़ा है।
इज़राइल अपने पड़ोसी देश के साथ 10 युद्ध लड़ चुका है। ये ग्यारहवाँ युद्ध है और शायद अब तक का सबसे ज्यादा विनाशकारी भी। इस विनाशकारी युद्ध में दोनों पक्षों के हजारों नागरिक मारे जा चुके हैं। ये सिलसिला थमने में कितना वक्त और लगेगा, ये कोई नहीं जानता। इजराइल के मौजूदा प्रधानमंत्री नेतन्याहू के कार्यकाल का शायद ये चौथा युद्ध है।
इज़राइल के साथ भारत के रिश्ते नए नहीं हैं लेकिन उनमें नरमी-गर्मी होती रहती है। भारत ने वर्ष 1950 में इज़रायल को आधिकारिक रूप से मान्यता दे दी थी, लेकिन दोनों देशों द्वारा 29 जनवरी, 1992 को ही पूर्ण राजनयिक संबंध स्थापित किये गये। भारत दिसंबर 2020 तक इज़राइल के साथ राजनयिक संबंध रखने वाले 164 संयुक्त राष्ट्र सदस्य राज्यों में से एक था। भारत ने अपनी पारम्परिक विदेशनीति पर चलते हुए इजराइल के पुश्तैनी शत्रु फिलिस्तीन के साथ भी अपने रिश्ते बनाये और इजराइल से पहले बनाये। भारत फिलिस्तीन मुक्ति संगठन के अधिकार को "फिलीस्तीनी लोगों का एकमात्र वैध प्रतिनिधि" के रूप में समकालीन रूप से मान्यता देने वाला पहला गैर-अरब देश था।
मार्च 1980 में पूर्ण राजनयिक संबंधों के साथ 1975 में भारतीय राजधानी में एक पीएलओ कार्यालय स्थापित किया गया था। भारत ने 18 नवंबर 1988 को घोषणा के बाद फिलिस्तीन के राज्य को मान्यता दी थी हालाँकि भारत और पीएलओ के बीच संबंध पहली बार 1974 में स्थापित हुए थे। बात यथा राजा, तथा प्रजा की हो रही थी। भारत के इजराइल और फिलिस्तीन से रिश्तों के बावजूद भारत की जनता हमेशा फिलिस्तीन के साथ खड़ी दिखाई दी। फिलिस्तीन के तत्कालीन प्रमुख यासर अराफात और भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की दोस्ती शायद इसकी वजह थी।
मोदी के भक्त इजराइल के साथ हैं, जबकि नृशंसता में फिलिस्तीन के आतंकी हमास और इजराइली सेना में कोई किसी से कम नहीं है।
हमारे पंत प्रधान भी नेतन्याहू बनना चाहते हैं। वे भी युद्धप्रिय हैं। उनके जमाने में भारत के एक भी पड़ोसी से रिश्ते अच्छे नहीं हैं। रिश्तों में कड़वाहट का आलम ये है कि जी-20 समूह का सदस्य कनाडा अब पी-20 से आने को तैयार नहीं है। हमारे पंतप्रधान इसकी परवाह भी नहीं करते। इजराइल -हमास संघर्ष के दौरान भारत सरकार अपना काम कर रही है। भारतीयों को युद्ध की आग में झुलसे इजराइल से बाहर निकालने के लिए भारतीय विमान लगातार उड़ाने भर रहे हैं। इसकी सराहना की जाना चाहिए। खुद पंत प्रधान कैलाश दर्शन पर हैं। वे वहां डमरू बजा रहे हैं। शंख फूंक रहे हैं। ये देखकर बहुत अच्छा लगता है, क्योंकि ये सब एक बेफिक्र नेता की निशानियां हैं। हमारे पंत प्रधान की यही बेफिक्री देश -दुनिया ने तब भी देखी जब भारत का अभिन्न अंग मणिपुर जल रहा था, वहां भी मानवता तार-तार हो रही थी। जो बर्बरता हमास के आतंकियों ने इजराइली महिलाओं के साथ की वैसी ही बर्बरता मणिपुर की महिलाओं के साथ भी हुई थी। किन्तु स्थितिप्रज्ञ पंत प्रधान ने अपना मौन नहीं तोड़ा था।
भारत कभी भी हिंसा का, आतंकवाद का समर्थक नहीं रहा। भारत की विदेशनीति का आधार गुट निरपेक्षता और पंचशील के सिद्धांत रहे हैं। आज की भारत की विदेशनीति में इन तत्वों का घोर अभाव है। हाल के रूस-यूक्रेन युद्ध में भी हमने इस बात को रेखांकित किया और आज इजराइल तथा फिलिस्तीन के बीच जारी जंग में भी भारत की विदेश नीति को लेकर भ्रम की स्थिति है। हम तय नहीं कर पा रहे हैं कि हमें किस पक्ष के साथ खड़ा होना चाहिए? इस मुद्दे पर आज फिलिस्तीन के प्रति हमदर्दी दिखाने वालों को आतंकवाद का समर्थक कहकर उनकी निंदा की जा रही है। ये दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। फिलिस्तीन का समर्थन हमास का समर्थन नहीं हो सकता। बहरहाल, भारत के लिए ये समय है जब वो अपनी विदेशनीति की आंतरिक शक्ति को एक बार फिर से आँक ले। भारत का नेतन्याहू बनने के लिए हमारे पंतप्रधान को बहुत कुछ करना पड़ेगा। उन्हें अकेले शाखामृग तीसरी बार सत्ता तक नहीं पहुंचा सकते। इसके लिए पूरे देश के समर्थन की जरूरत पड़ेगी। उन्हें चाहिए कि वे देश की जनता में किसी भी मुद्दे को लेकर विभाजन की रेखा खिंचने न दें।
(राकेश अचल के फ़ेसबुक पेज से)
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