उदारीकरण के नए दौर में हम पिछली सरकारों के समय के फ़ैसले अक्सर भूल जाते हैं। ताज़ा उदाहरण कृषि विधेयक का है। केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार जिन कृषि विधेयक को लेकर सांसत में फँसी है वह दरअसल विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार का विचार और ड्राफ्ट है। ठीक उसी तरह जैसे आधार से लेकर मनरेगा तक कांग्रेस सरकार का विचार और कार्यक्रम रहा। वीपी सिंह सरकार में तो समाजवादी भी थे और कुलक किसान भी। वामपंथी भी हाथ लगाए हुए थे तो दक्षिणपंथी भी। ऐसे में अगर मूल ड्राफ्ट उनकी सरकार का उठाया गया तो उनका समर्थन करने वाली सामाजिक न्याय की ताक़तों को भी तो भरोसे में लिया जा सकता था। तब इतना विवाद तो न होता।
लेकिन दिक्कत यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हर विचार का ख़ुद ही क्रेडिट लेते हैं और बताते भी नहीं कि ये विचार आया कहाँ से।
सोमपाल शास्त्री ने कृषि बिल पर कहा,
जहाँ तक मोदी जी की बात है तो हम सब कह रहे हैं कि विश्वास का संकट है और ऐसा क्यों है तो मोदी जी का अपना स्टाइल है। वह लोकतंत्र में बहुत ज़्यादा यक़ीन नहीं रखते। उनका गुजरात का कार्यकाल भी इसका प्रमाण है और यहाँ का कार्यकाल भी इसका प्रमाण है। उनकी एक आदत है कि वह छोटी से छोटी चीज को भी इवेंट में बदल देते हैं, लालकृष्ण आडवाणी जी ने भी एकबार कहा था कि हमारे मोदी जी की जो सबसे बड़ी कला है वह यह कि वह इवेंट मैनेजर बहुत अच्छे हैं। अगर अच्छी चीजें हैं और वह इतिहास में कहीं उनकी फ़ाइलों में भी लिखी हैं या पुरानी सिफ़ारिशों के भी हैं, समितियों या आयोग के या अर्थशास्त्रियों के, उनको भी वह दिखाना चाहते हैं कि यह मेरा ही मौलिक विचार है। वह दिखाना चाहते हैं कि मौलिक चिंतन मेरा है। देश में किसी और को चिंतन करने का न अधिकार है, न तमीज है, न जानकारी है। न किसान को है, न नेता को है न अर्थशास्त्रियों को है न प्रशासकों को है और न ही किसी अनुभवी व्यक्ति को है। यह उनके स्वभाव की खामी है। उन्हें अगर आंदोलन में साज़िश लगती है तो हमें उनके इस तरह के क्रियाकलाप में साज़िश लगती है। हमें साज़िश की गंध लगती है कि कार्पोरेट घरानों को सब कुछ सौंप दिया जाए।
उन्होंने आगे कहा,
मेरा यह आरोप है कि मोदी जी का यह मौलिक विचार नहीं है, तीनों विधेयक। इसका मेरे पास सबूत हैं। उच्चाधिकार प्राप्त समिति की रिपोर्ट मेरे पास है। समिति नियुक्त हुई थी 6 फ़रवरी, 1990 को वीपी सिंह के समय। समिति को छह महीने का समय दिया गया था अपनी संस्तुति प्रस्तुत करने के लिए। समिति ने 26 जुलाई, 1990 को अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी थी। चौधरी देवीलाल तब उपप्रधानमंत्री और कृषि मंत्री थे। उन सिफ़ारिशों में ये तीनों सिफ़ारिशें इन्हीं शब्दों में अंकित हैं। उनको लिखवाने में मेरा भी कुछ योगदान रहा था। हालाँकि मैं उस समिति का सदस्य नहीं था। समिति में चौधरी कुंभाराम थे, एम विराग, सरदार सहायम, हरदेव सिंह सांगा, शोभनाथ ईश्वर, जीएस सैनी, डीसी मिश्र थे। ग्यारह सदस्यीय समिति थी। समिति की रिपोर्ट को वीपी सिंह के मंत्रिमंडल ने स्वीकार किया था। जब उन्हें क़ानूनी जामा पहनाने का समय आया तो चौधरी देवीलाल की वजह से सरकार गिर गई। तीस सालों से यह प्रतीक्षा कर रही थी, यह इसका इतिहास है। मेरे पास यह सबूत है कि यह मोदी जी का मौलिक विचार नहीं है। लेकिन मैं उनको श्रेय देना चाहता हूँ कि इतने सालों के बाद फ़ाइल में से निकाल कर उन्होंने इसे क्रियान्वित किया।
उन्होंने कहा,
एक है उसमें संविदा खेती। एमएसपी उपलब्ध है केवल 23 या 24 जिंसों को लेकिन सब्जी, फल, दूध, मछली, अंडा, मुर्गी, पशुपालन इस पर एमएसपी लागू नहीं है। बाज़ार की जो अनिश्चितता है, किसान को जो सबसे बड़ा धोखा होता है वह इन्हीं चीजों पर होता है। जहाँ तक एमएसपी का सवाल है तो घोषित तो किया जाता है 24 जिंसों का, लेकिन उपलब्ध हैं केवल चावल, गेहूँ को, लेकिन बाजरा, मक्का, कपास यह सब कम पर बिकते हैं। अगर एमएसपी प्रणाली को बाहर फेंकने की उनकी मंशा है, जो हो सकती है। उनके सलाहकार जो मैक्रो अर्थशास्त्री हैं, रिज़र्व बैंक की एक रिपोर्ट में भी यह कहा गया है कि एमएसपी प्रणाली से अनावश्यक वित्तीय दबाव पड़ता है, सरकार को घाटा होता है तो इसे हटा दिया जाए, यह आशंका सही है। यह बिल लाभकारी हो सकता है बशर्ते कि एमएसपी को न सिर्फ़ बरकरार रखा जाए बल्कि उसको वैधानिक आधार दिया जाए। यानी किसान को वैधानिक आधार मिले एमएसपी पाने का।
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