नागरिकों को या तो भान ही नहीं है कि वे भयभीत हैं या फिर उन्होंने किसी और भी बड़े ख़ौफ़ के चलते अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी के सारे डरों को दूसरों के साथ बाँटना भी बंद कर दिया है। ऐसी स्थितियां किस तरह की व्यवस्थाओं में जन्म लेती हैं अभी घोषित होना बाक़ी है।
कब तक कहते रहेंगे कि कोई डर नहीं लग रहा?
- विचार
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- 14 Dec, 2024
चारों तरफ़ भय और आतंक का माहौल है। नई-नई सत्ताएँ आए दिन प्रकट हो रही हैं जो नागरिकों को डरा रही हैं। सत्ता प्रतिष्ठान या तो नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करने में निकम्मा साबित हो रहा है या फिर अपराधी उसके संरक्षण में ही नियंत्रण से बाहर हो गए हैं। वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग क्या कहना चाहते हैं, उनका लिखा पढ़िएः
