आज वास्तविकता यह है कि हाल की घटनाओं के कारण हमारी जनता का हमारी न्यायपालिका में विश्वास कम होता जा रहा है। इस परिस्थिति में मैं एक न्यायाधीश, क़ाज़ी सिराजुद्दीन, बंगाल के क़ाज़ी-ए-सूबा, के बारे में बताना चाहूँगा क्योंकि इससे कई ईमानदार न्यायाधीश जो अभी भी भारतीय न्यायपालिका में मौजूद हैं, को प्रेरणा मिलेगी।
मैं 20 साल (1991 से 2011 तक) ख़ुद जज रहा हूँ और मैंने दुनिया के कई जजों के जीवन और कार्यों का अध्ययन किया है जिनमें से कई अपनी ईमानदारी के लिए मेरे आदर्श हैं। उन्होंने दबाव या प्रलोभन को नकार दिया। उदाहरण के लिए लॉर्ड कोक, इंग्लैंड के मुख्य न्यायाधीश, जिन्होंने किंग जेम्स 1 के समक्ष अपनी स्वतंत्रता का आत्मसमर्पण करने से इंकार कर दिया जिसके कारण राजा ने उनको बर्खास्त करके जेल भी भेज दिया; लॉर्ड एटकिन जिन्होंने लिवर्सीज बनाम एंडरसन (1941) (Liversidge vs Anderson (1941)) फ़ैसले में बहुमत न्यायाधीशों से अपनी असहमति व्यक्त की और यह कहकर आलोचना की कि वे 'कार्यपालिका से भी अधिक कार्यपालिका वाली मानसिकता' (‘more executive minded than the executive‘) वाले हैं; अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश - जस्टिस होम्स, ब्रांडेस और कार्डोज़ो (Justices Holmes, Brandeis and Cardozo), जिन्होंने न्यायिक उच्छृंखलता (judicial adventurism) के बजाय न्यायिक संयम (judicial restraint) की वकालत की, और भारत में, न्यायमूर्ति एचआर खन्ना, जिन्होंने स्वेच्छा से भारत के मुख्य न्यायाधीश बनने का मौक़ा खो दिया लेकिन शर्मनाक एडीएम जबलपुर फ़ैसले में बहुमत निर्णय में शामिल होने से इनकार कर दिया।
फिर भी, मेरी राय में, क़ाज़ी सिराजुद्दीन, बंगाल के क़ाज़ी-ए-सूबा, दुनिया के अन्य सभी न्यायाधीशों से श्रेष्ठ हैं।
अपने 'बंगाल का इतिहास' में प्रोफ़ेसर चार्ल्स स्टीवर्ट ने 1490 के एक दिलचस्प मुक़दमे का उल्लेख किया है जो क़ाज़ी सिराजुद्दीन के सामने आया था।
एक दिन जब बंगाल का सुल्तान तीरंदाज़ी का अभ्यास कर रहा था तब उसके एक तीर ने एक विधवा के बेटे को ग़लती से घायल कर दिया। विधवा तुरंत क़ाज़ी के सामने गयी और न्याय की माँग की।
जज (क़ाज़ी) दुविधा में था। उसने अपने आप से कहा ‘यदि मैं सुल्तान को अपनी अदालत में बुलाता हूँ तो मुझे सुल्तान द्वारा अशिष्टता के लिए दंडित किया जा सकता है लेकिन अगर मैं सुल्तान के कृत्य को अनदेखा कर दूँ तो मैं एक दिन भगवान के दरबार में अपना कर्तव्य न पूर्ण करने के लिए निश्चित रूप से तलब किया जाऊँगा और सज़ा पाऊँगा।’
बहुत सोच-विचार के बाद, भगवान का डर सुल्तान के डर से भारी हो गया और क़ाज़ी ने अपने एक अधिकारी को सुल्तान को अपने न्यायालय में हाज़िर करने का आदेश दिया।
क़ाज़ी का तलबनमा प्राप्त करने के बाद सुल्तान तुरंत उठे और अपने कपड़ों के नीचे एक छोटी तलवार छिपाकर क़ाज़ी के सामने गए। क़ाज़ी न तो अपनी कुर्सी से उठा और न ही सुल्तान को सम्मान दिया और उनसे बोला, ‘तुमने इस ग़रीब विधवा के बेटे को घायल किया है। इसलिए तुरंत इसे पर्याप्त मुआवजा देना होगा वरना तुम्हें क़ानून की सज़ा भुगतनी पड़ेगी।’
सुल्तान ने झुककर आदेश का पालन किया और विधवा की ओर मुड़कर उसे पर्याप्त धनराशि दी जिससे वह संतुष्ट हो गई। ऐसा करने के बाद उन्होंने क़ाज़ी से कहा ‘माननीय न्यायाधीश, इस शिकायतकर्ता ने मुझे माफ़ कर दिया है।’ क़ाज़ी ने तब विधवा से पूछा कि क्या वह संतुष्ट है? उसका आश्वासन मिलने पर क़ाज़ी ने मामला खारिज कर दिया।
और सुल्तान ने निकाल ली तलवार...
क़ाज़ी तब अपनी कुर्सी से नीचे आया और सुल्तान के सामने झुका। सुल्तान ने तब अपने वस्त्र के नीचे से तलवार खींचते हुए कहा, ‘हे क़ाज़ी, तुम्हारी आज्ञा का पालन करने के लिए मैं तुरंत तुम्हारी अदालत में आया लेकिन यदि तुमने अपना कर्तव्य नहीं निभाया होता तो मैं क़सम खाता हूँ कि इस तलवार के साथ मैं तुम्हारा सिर काट देता। मैं ईश्वर का धन्यवाद देता हूँ कि मेरे राज्य में एक ऐसा न्यायाधीश है जो क़ानून से ऊपर किसी को नहीं मानता।’
क़ाज़ी ने तब अपने कपड़ों के नीचे छिपे हुए कोड़े को निकाला और सुल्तान से कहा ‘मैं भी सर्वशक्तिमान ईश्वर की क़सम खाता हूँ कि अगर आपने क़ानून का पालन नहीं किया होता तो इस कोड़े से आपकी पीठ को पीट-पीट कर काला और नीला कर देता। यह मुक़दमा हम दोनों के लिए एक परीक्षा रही है।’
इस प्रकार, भगवान का डर क़ाज़ी के दिमाग़ में सुल्तान के डर से ज़्यादा भारी पड़ा।
आज के संदर्भ में, न्यायाधीशों द्वारा ‘भगवान’ को ‘संविधान’ को बनाए रखने और जनता के अधिकारों की रक्षा के लिए ली गयी उनकी शपथ का मतलब समझा जाना चाहिए, और ‘सुल्तान’ को ‘राजनीतिक और कार्यकारी अधिकारियों’ के रूप में समझा जाना चाहिए जिनके समक्ष न्यायाधीशों को कभी भी आत्मसमर्पण नहीं करना चाहिए।
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