आज वास्तविकता यह है कि हाल की घटनाओं के कारण हमारी जनता का हमारी न्यायपालिका में विश्वास कम होता जा रहा है। इस परिस्थिति में मैं एक न्यायाधीश, क़ाज़ी सिराजुद्दीन, बंगाल के क़ाज़ी-ए-सूबा, के बारे में बताना चाहूँगा क्योंकि इससे कई ईमानदार न्यायाधीश जो अभी भी भारतीय न्यायपालिका में मौजूद हैं, को प्रेरणा मिलेगी।
क़ाज़ी ने सुल्तान से क्यों कहा कि कोड़े से सुल्तान की पीठ काली कर देता!
- विचार
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- 12 May, 2020

आज के संदर्भ में, न्यायाधीशों द्वारा ‘भगवान’ को ‘संविधान’ को बनाए रखने और जनता के अधिकारों की रक्षा के लिए ली गयी उनकी शपथ का मतलब समझा जाना चाहिए, और ‘सुल्तान’ को ‘राजनीतिक और कार्यकारी अधिकारियों’ के रूप में समझा जाना चाहिए जिनके समक्ष न्यायाधीशों को कभी भी आत्मसमर्पण नहीं करना चाहिए।
मैं 20 साल (1991 से 2011 तक) ख़ुद जज रहा हूँ और मैंने दुनिया के कई जजों के जीवन और कार्यों का अध्ययन किया है जिनमें से कई अपनी ईमानदारी के लिए मेरे आदर्श हैं। उन्होंने दबाव या प्रलोभन को नकार दिया। उदाहरण के लिए लॉर्ड कोक, इंग्लैंड के मुख्य न्यायाधीश, जिन्होंने किंग जेम्स 1 के समक्ष अपनी स्वतंत्रता का आत्मसमर्पण करने से इंकार कर दिया जिसके कारण राजा ने उनको बर्खास्त करके जेल भी भेज दिया; लॉर्ड एटकिन जिन्होंने लिवर्सीज बनाम एंडरसन (1941) (Liversidge vs Anderson (1941)) फ़ैसले में बहुमत न्यायाधीशों से अपनी असहमति व्यक्त की और यह कहकर आलोचना की कि वे 'कार्यपालिका से भी अधिक कार्यपालिका वाली मानसिकता' (‘more executive minded than the executive‘) वाले हैं; अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश - जस्टिस होम्स, ब्रांडेस और कार्डोज़ो (Justices Holmes, Brandeis and Cardozo), जिन्होंने न्यायिक उच्छृंखलता (judicial adventurism) के बजाय न्यायिक संयम (judicial restraint) की वकालत की, और भारत में, न्यायमूर्ति एचआर खन्ना, जिन्होंने स्वेच्छा से भारत के मुख्य न्यायाधीश बनने का मौक़ा खो दिया लेकिन शर्मनाक एडीएम जबलपुर फ़ैसले में बहुमत निर्णय में शामिल होने से इनकार कर दिया।