संभवत: लोकसभा का यह पहला चुनाव है जब महात्मा गाँधी का ज़िक्र नहीं हो रहा है, अगर किसी का ज़िक्र हो रहा है तो वह हैं राहुल गाँधी। राहुल गाँधी का महात्मा गाँधी से कोई पारिवारिक संबंध नहीं है। राहुल का संबंध तो इंदिरा गाँधी से है जो नेहरू परिवार से थीं। राहुल गाँधी इस चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निशाने पर हैं। इसलिए मोदी की सभाओं में अक्सर राहुल गाँधी का नाम उछलता रहता है। एक गाँधी और हुए हैं, जिनका पूरा नाम मोहनदास करमचंद गाँधी था और आज़ादी की लड़ाई में वह महात्मा गाँधी के रूप में मशहूर हुए थे।
‘पहला सत्याग्रही’ नाटक में गाँधी के जीवन और भारत की आज़ादी की लड़ाई से जुड़े कई महत्वपूर्ण पड़ावों को समेटकर लेखक रविंद्र त्रिपाठी ने आज के दौर में गाँधी की प्रासंगिकता को समझने की कोशिश की है।
मायावती या अन्य दलित नेता अब सिर्फ़ डॉक्टर अंबेडकर का नाम लेते हैं लेकिन इस एतिहासिक तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि छुआछूत के ख़िलाफ़ एक बड़ी पहल गाँधी ने की थी।
दलित अपने वोट की ताक़त समझ चुका है, इसीलिए चुनाव से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक दलित का पैर छूते हैं और राहुल गाँधी उनके घर पर भोजन करके उन्हें सम्मान देने की बात करते हैं। लेकिन यह साफ़ है कि छुआछूत अभी हिंदू समाज में मौजूद है और दलित अपनी राजनीतिक शक्ति से ही बराबरी का अधिकार प्राप्त कर सकते हैं।
रविंद्र त्रिपाठी ने अपने नाटक में चंपारण के नील सत्याग्रह को बड़े सशक्त ढंग से रखा है। यह पहला आंदोलन या सत्याग्रह है जिसने गाँधी को भारत के गाँव और किसान की समस्या को समझने में बड़ी मदद की। अंग्रेज चले गए, अब तो 70 वर्ष हो गए, नील की खेती बंद हो गई लेकिन किसान का शोषण आज भी बरक़रार है।
कर्ज के बोझ से दबा किसान आज भी आत्महत्या कर रहा है। 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी ने किसानों की आमदनी दो गुना करने का वादा किया था। 2019 के चुनाव में अब मोदी किसान का ज़िक्र नाममात्र के लिए ही करते हैं।
गाँधी का हिंद स्वराज मशीनों के ख़िलाफ़ था। इसलिए उसकी आलोचना उस समय भी की गई थी लेकिन गाँधी ने चरखे को प्रतीक बनाकर दिखा दिया कि हाथ से काम करके भी चमत्कार किया जा सकता है। चरखे के सूत से बने खादी आंदोलन ने देश के कपड़े की ज़रूरत को भी पूरा किया और इंग्लैंड के मैनचेस्टर की कपड़ा मिलों की चूलें हिला दीं, जो भारत को कपड़ा निर्यात करके मोटी कमाई कर रही थीं।
अंतत: गाँधी उग्र हिंदुत्व के शिकार हो गए। 2019 के चुनाव में जिस राष्ट्रवाद की वकालत हो रही है, वह गाँधी का राष्ट्रवाद नहीं है। संभवत: वह वही हिंदू राष्ट्रवाद है, जिसने गाँधी की जान ली।
नाटक के निर्देशक सुरेश शर्मा ने शानदार दृश्यों के निर्माण से पूरी प्रस्तुति को जानदार बना दिया। निर्देशन में कल्पना और वास्तविकता का बेजोड़ संगम दिखाई दिया। गोविंद सिंह यादव की प्रकाश परिकल्पना ने नाटक को लगातार जीवंत बनाए रखा।
गाँधी की भूमिका में शाहनवाज ख़ान और राजू राय, महादेव के रूप में दीप कुमार और प्यारे लाल के चरित्र में पराग बरूआ ने पात्रों को जीवंत बना दिया। हमारे नेताओं के लिए गाँधी अब सिर्फ़ 2 अक्टूबर और 30 जनवरी भर हैं। गाँधीवाद को फिर से जीवित करने के लिए रंगकर्मी साधुवाद के पात्र हैं।
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