राजनीतिक पत्रकारिता की भाषा में 'सेल्फ़ गोल' एक लोकप्रिय मुहावरा हो चुका है। लेकिन पत्रकारिता जब इस मुहावरे का इस्तेमाल करती है तो किस तरह करती है? क्या इसके पीछे उसके पूर्वग्रह नजर नहीं आते हैं? कर्नाटक के विधानसभा चुनावों में जब कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में बजरंग दल को प्रतिबंधित करने का वादा किया तो सबने इसे 'कांग्रेस का सेल्फ़ गोल' करार दिया। ख़ुद उत्तर भारत के कांग्रेसी नेता सशंक हो उठे। बीजेपी तो इतनी उल्लसित हो गई कि ख़ुद प्रधानमंत्री कर्नाटक की रैलियों में जय बजरंग बली के नारे लगाते-लगवाते नज़र आए। यह चुनाव की आचार संहिता का उल्लंघन था या नहीं- इस बहस में पड़ेंगे तो एक दूसरी समस्या की ओर मुड़ जाएंगे, इसलिए इसे छोड़ते हैं, मूल मुद्दे पर लौटते हैं। कर्नाटक चुनावों के नतीजे जब आए तब सबको समझ में आया कि यह सेल्फ़ गोल नहीं था, गोल पोस्ट बदल चुका था।
लेकिन ऐसा क्यों हुआ? मीडिया कांग्रेस के इस क़दम के वास्तविक फलितार्थ खोजने में नाकाम क्यों रहा? क्या इसलिए नहीं कि मुख्यधारा के मीडिया ने यह देखने की कोशिश नहीं की कि कांग्रेस के इस वादे ने मुसलमानों के अन्यथा ज़ख़्मी हृदय पर एक फाहे जैसा काम किया था। क्या इसलिए नहीं कि मुख्यधारा का मीडिया बहुसंख्यकवादी प्रचार से इतना ग्रस्त है कि अपने अल्पसंख्यकों का मन समझने की क्षमता खो बैठा है?
इस सवाल पर फिर लौटेंगे- पहले देखें कि
सेल्फ़ गोल शब्दावली का अचानक फिर इस्तेमाल होने लगा है। इस बार सैम पित्रोदा के
विरासत टैक्स से जुड़े बयान को मीडिया कांग्रेस का सेल्फ़ गोल बता रहा है। बीजेपी
नेता भी बहुत ज़ोर-शोर से समझाने में जुट गए हैं कि विरासत का यह क़ानून लाकर
कांग्रेस लोगों की संपत्ति छीनना चाहती है। प्रधानमंत्री सहित हर दूसरा बीजेपी
नेता बता रहा है कि अगर लोगों के दो घर हैं तो एक घर कांग्रेस छीन लेगी।
लेकिन क्या वाकई यह सेल्फ़ गोल है? क्या सैम पित्रोदा इतने बड़े नेता हैं कि उनके बयान का बहुत दूर तक ऐसा गहरा असर जाए कि लोग अपना वोट बदल डालें? ज़्यादा से ज़्यादा इसे एक ग़लत समय पर लिया गया शॉट कहा जा सकता है जिसे बीजेपी नेता एक-दूसरे को पास देते हुए गोल पोस्ट तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं। दरअसल विरासत के लगभग नामालूम से मामले के सहारे बीजेपी को गोल के लक्ष्य तक पहुंचाने में मीडिया भी लगा हुआ है।
वास्तव में विरासत के मामले को इतना बड़ा
बनाने की राजनीति के पीछे एक 'सेल्फ़ गोल' छुपाने की मंशा है। ये सेल्फ़ गोल किसी और ने नहीं प्रधानमंत्री ने
किया है। पहले दौर के मतदान के बाद अचानक उन्हें मनमोहन सिंह के बयान की याद आई और
वे बताने लगे कि मनमोहन सिंह कहा करते थे कि संसाधनों पर पहला अधिकार मुसलमानों का
होगा। प्रधानमंत्री यहीं नहीं रुके। उन्होंने इसके आगे मुसलमान होने का मतलब भी
समझा दिया- कहा कि आपके पैसे और साधन उनके पास जाएंगे जो घुसपैठिए हैं या जो
ज़्यादा बच्चे पैदा करते हैं।
दरअसल असली सेल्फ़ गोल यह बयान है। लेकिन यह सेल्फ गोल क्यों है? इसे समझने की ज़रूरत है। बीजेपी 370 सीटों की बात कर रही है। ये सीटें कहां से आएंगी? माना जा रहा है कि अधिकतम ध्रुवीकरण से। लेकिन यह ध्रुवीकरण पूरी तरह हो चुका है। जो कट्टर हिंदूवादी हैं, उनके लिए पहले ही बीजेपी से जुड़ने का तमाम सामान जुट चुका है। राम मंदिर बन चुका, कश्मीर से धारा 370 ख़त्म हो चुकी, कुछ राज्यों में समान नागरिक संहिता पर काम शुरू हो चुका, कई जगह लव जेहाद को लेकर क़ानून है, तीन तलाक़ पर क़ानून बन चुका, नागरिकता संशोधन बिल पर अमल हो रहा है। अब शायद ही ऐसा कोई कट्टर हिंदू होगा जो इन फ़ैसलों के बाद मोदी सरकार का समर्थक नहीं हो चुका होगा। और इन सबके बावजूद जो बीजेपी समर्थक नहीं हुआ होगा, वह किसी भी सूरत में किसी और झांसे में आने वाला नहीं है। ऐसे में मुसलमानों के ख़िलाफ़ नया शोशा छोड़ कर, संपत्ति उनको दे दिए जाने का भय दिखा कर बीजेपी और किसे जोड़ पाएगी? जाहिर है, किसी को नहीं।
लेकिन इसका एक बड़ा नुक़सान हो
चुका है। बीजेपी को एहसास है कि 370 सीटों के लिए उसे कट्टर
हिंदू वोटों से अलग वोट जुटाने होंगे और उत्तर भारत के बाहर दक्षिण भारत में पांव
पसारने होंगे। मुस्लिम समुदाय को जोड़ने की मुहिम इसी कोशिश के तहत चलाई जा रही
थी। इस बयान से ठीक पहले अमरोहा में प्रधानमंत्री ने मोहम्मद शमी की भूरि-भूरि
तारीफ़ की और उसे देश का मान बढ़ाने वाला बताया। साफ़ तौर पर कोशिश एक समुदाय के
भीतर अपने लिए जगह बनाने की थी।
लेकिन प्रधानमंत्री के इस एक बयान ने अचानक एक पूरे समुदाय को ज़ख़्मी कर डाला। उन्होंने पाया कि उन्हें घुसपैठिया बताया जा रहा है। उन्होंने देखा कि उन्हें ज़्यादा बच्चे पैदा करने वाला बताया जा रहा है। यह वह लाइन है जो बरसों से संघ की रही है। जबकि तथ्य यह है कि बीते दो दशकों में जनसंख्या वृद्धि के अनुपात में सबसे तेज़ी से गिरावट मुस्लिम समुदाय के बीच हुई है। मगर सवाल इस तथ्य का नहीं है। सवाल प्रधानमंत्री के नज़रिए का है। सवाल उस वैचारिकी का है जिसके मानस में मुसलमान अब भी पराया और पिछड़ा है। सवाल हिंदुस्तान में बराबरी की नागरिकता के सवाल का है। नागरिकता संशोधन क़ानून ने पहले ही बराबरी के इस एहसास पर एक खरोंच लगा रखी है। अब ये बयान उस ज़ख़्म को और हरा करने वाला है।
सवाल ये भी है कि प्रधानमंत्री ने ये बयान पहले दौर की वोटिंग के बाद क्यों दिया? इसकी एक व्याख्या यह की जा रही है कि शायद पहले दौर के कम मतदान को बीजेपी ने अपने लिए नुकसान की तरह देखा और पूरी पार्टी को अपने कंधों पर लेकर चलने वाले प्रधानमंत्री को लगा कि उन्हें हिंदू भाइयों को कुछ और जगाना होगा।
लेकिन यह वह सेल्फ़ गोल है जिसने
बीजेपी से मुस्लिम वोट हासिल करने की संभावना छीन ली है। इस नुक़सान से बचने के
लिए अब विरासत वाले क़ानून की बात की जा रही है। कहीं ऐसा न हो कि यह भी बीजेपी का
सेल्फ गोल साबित हो जाए। क्योंकि इस देश में भयावह गैरबराबरी है, यह एहसास सबको है। जिन 80 करोड़ लोगों को महीने का मुफ़्त राशन
देने की नौबत आती है, कम से कम वे बेफ़िक्र होंगे कि उनसे ऐसा टैक्स लिया ही नहीं जा सकता।
उल्टे उन्हें शायद उम्मीद पैदा हो जाए कि बाक़ी लोगों के संसाधनों में उनका हिस्सा
बढ़े तो उनकी ज़िंदगी कुछ सुधरे। तो असली सेल्फ़ गोल किसने किया है, यह अभी देखा
जाना बाक़ी है।
(प्रियदर्शन जाने-माने टिप्पणीकार और वरिष्ठ पत्रकार भी हैं)
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