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हिजाब विवाद: ईश्वर और अल्लाह के नाम पर झगड़े क्यों?

मनुष्य जाति का इतिहास बताता है कि मजहबों, पंथों या तथाकथित धर्मों ने जहां करोड़ों मनुष्यों को नैतिकता और मर्यादा का पाठ पढ़ाया है, वहीं उन्होंने राजनीति से भी ज्यादा गंदी भूमिका अदा की है। इसीलिए जरूरी है कि हम मजहब, पंथ, संप्रदाय और धर्म के नाम पर आपस में लड़ने से बाज आएं। 
डॉ. वेद प्रताप वैदिक

हिजाब को लेकर कर्नाटक में जबर्दस्त खट-पट चल पड़ी है। यदि मुसलिम लड़कियाँ हिजाब पहनने को लेकर प्रदर्शन कर रही हैं तो हिंदू लड़के भगवा दुपट्टा लगाकर नारे जड़ रहे हैं। उन्हें देख-देखकर दलित लड़के नीले गुलूबंद डटाकर नारे लगा रहे हैं। अच्छा है कि वहाँ समाजवादी नहीं हैं। वरना वे लाल टोपियां लगाकर शोर-शराबा मचाते। समझ में नहीं आता कि शिक्षा-संस्थाओं में सांप्रदायिकता का यह जहर क्यों फैलता जा रहा है?

न हिजाब पहनना अपने आप में बुरा है, न भगवा दुपट्टा लपेटना और न ही लाल टोपी लगाना लेकिन यदि आपकी वेशभूषा, खान-पान और भाषा-बोली यदि आपस में बैर करना सिखाती है तो मेरा निवेदन है कि आप उसे तुरंत तज दीजिए।

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इक़बाल ने क्या ख़ूब लिखा था, ‘‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना, हिंदी हैं, हम वतन हैं, हिंदोंस्तां हमारा।'' अब मजहबी संकीर्णता और जिद का प्रदर्शन हिजाब, दुपट्टे और टोपी से हो रहा है। कोई इनसे पूछे कि कौनसे धर्मग्रंथ में- वेद में, बाइबिल में, कुरान में, पुराण में, जिंदावस्ता में या त्रिपिटक में— कहां लिखा है कि आप फलां चीज खाएं या न खाएं, फलां कपड़ा पहनें या न पहनें, इस करवट सोएं या उस करवट सोएं? इन सब रोजमर्रा के मुद्दों को धर्म या पंथ या संप्रदाय से जोड़कर खून बहाना कौनसी ईश्वर-भक्ति है? 

यदि यही ईश्वर भक्ति है तो ऐसा विभाजनकारी और विभेदकारी ईश्वर तो ईश्वर हो ही नहीं सकता। वह जगतपिता कैसा जगतपिता है, जो अपने बच्चों के बीच ही लड़ाई के बीज बो देता है। 

सारे मजहब मानते हैं कि ईश्वर एक ही है। कोई उसे गाॅड, कोई ईश्वर, कोई अल्लाह, कोई खुदा, कोई यहोवा, कोई अहुरमज्द कहता है। रोजमर्रा की जिंदगी हम किस शैली में गुजारते हैं, इससे उसका क्या लेना-देना है?

सारी दुनिया के लोग जो अलग-अलग ढंग के कपड़े पहनते हैं, अलग-अलग ढंग के खाने खाते हैं, अलग-अलग शैली के गाने गाते हैं, वे सब अपने देश-काल से संचालित होते हैं। जो धर्म या पंथ जब और जहां पैदा हुआ है, उस पर उस देश (स्थान) और काल (समय) का असर बना रहता है लेकिन उसे दुनिया के हर स्थान और सैकड़ों वर्षों बाद भी जस का तस अपनाने की बात करना घोर अंधविश्वास के अलावा क्या है? 

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क्या भारत के लेाग अब भी राजा दशरथ की तरह तीन पत्नियां और द्रौपदी की तरह पांच पति रख सकते हैं? क्या आप भारत में किसी ऐसे मुसलमान पुरुष को जानते हैं, जिसकी चार-चार पत्नियां हों? क्या आप किसी ऐसे घोर ईश्वरभक्त को जानते हैं, जो कोई आकाशवाणी सुनकर संत इब्राहिम की तरह अपने प्यारे बेटे इजहाक को कुर्बान करने के लिए तैयार हो जाए? 

हिंदू पुराण-ग्रंथ तो गप्पों की दुकान ही मालूम पड़ते हैं। उनकी कहानियां सुन-सुनकर हम बचपन में आश्चर्यचकित हो जाते थे कि ये भी कोई धर्मग्रंथ हो सकते हैं? 

 

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मनुष्य जाति का इतिहास बताता है कि मजहबों, पंथों या तथाकथित धर्मों ने जहां करोड़ों मनुष्यों को नैतिकता और मर्यादा का पाठ पढ़ाया है, वहीं उन्होंने राजनीति से भी ज्यादा गंदी भूमिका अदा की है। इसीलिए जरूरी है कि हम मजहब, पंथ, संप्रदाय और धर्म के नाम पर आपस में लड़ने से बाज आएं। जो लोग ईश्वर और अल्लाह के नाम पर खून बहाने को तैयार रहते हैं, वे उस परम शक्ति के अस्तित्व के प्रति अविश्वास पैदा कर देते हैं। वह ईश्वर ही क्या है, जो अपने भक्तों के बीच झगड़े करवाता है?

(डॉ. वेद प्रताप वैदिक के ब्लॉग www.drvaidik.in से साभार)
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डॉ. वेद प्रताप वैदिक
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