“आप संविधान समीक्षा की बात करते हैं अपने एजेंडा में, क्या आपने न्यायविदों से इस पर बात की है? क्या आपने दूसरी पार्टियों की सहमति ली है? क्या इस पर कोई चर्चा है? किस दिशा मे आप संविधान में रिव्यू करने जा रहे हैं? .याद रखिए जब-जब संसदीय गणतंत्र टूटा है, वहाँ के नेताओं ने कहा कि संविधान कमज़ोर है, इसको बदलने की ज़रूरत है। आपने जो एजेंडा बनाया है, वह एक भयंकर दिशा मे संकेत करता है। गुरुदेव! आप रास्ते से भटक रहे हो, आपका भटकाव देश के लिए भारी पड़ेगा। मैं आपको चेतावनी देने के लिए खड़ा हुआ है, ये एजेंडा केवल विश्वासघात का दूसरा दस्तावेज़ है, जिससे देश को बरबादी होगी। इसलिए मैं इस विश्वासमत के प्रस्ताव का विरोध करता हूँ।“
ये पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के भाषण का अंश है। यह भाषण उन्होंने 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार द्वारा पेश विश्वास मत प्रस्ताव का विरोध करते हुए लोकसभा में दिया था। भाषण का बड़ा हिस्सा उन्होंने अपने सामने बैठे प्रधानमंत्री वाजपेयी को लक्ष्य करके दिया था जिन्हें वे 1967 से ही ‘गुरुदेव’ कहते आये थे। चंद्रशेखर का स्पष्ट मानना था कि भारत अगर धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र की अवधारणा से दूर हुआ तो टूट जाएगा। वे भारत की आज़ादी और उसके निर्माण के लिए हुए संघर्ष के प्रत्यक्षदर्शी ही नहीं सहभागी भी थे और आरएसएस की ओर से पैदा होने वाले ख़तरे को अच्छी तरह समझते थे।
बहरहाल, विश्वासमत में मिली पराजय के बाद हुए संसदीय चुनाव के बाद बीजेपी फिर सत्ता तक पहुँचने में कामयाब हुई और ‘गुरुदेव’ ने चंद्रशेखर की चेतावनी को दरकिनार करते हुए फरवरी 2000 में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एम.एन.वेंकटचलाइया की अगुवाई में संविधान समीक्षा आयोग का गठन कर दिया। ये अलग बात है कि तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए सरकार आयोग की ओर से की गयी 249 सिफ़ारिशों पर क़दम बढ़ाने की हिम्मत नही जुटा पायी।
लेकिन 22 साल बाद भारत के प्रधानमंत्री पद पर बैठे नरेंद्र मोदी के लिए ऐसी हिम्मत जुटाना बच्चों का खेल है। वे कर्नाटक में चुनाव प्रचार के दौरान खुलकर बजरंगबली के नाम पर वोट देने की अपील कर रहे हैं। न उन्हें संविधान का लिहाज है न क़ानून का जो धर्म के आधार पर वोट माँगने पर प्रतिबंध लगाता है। चुनाव आयोग की ओर से प्रधानमंत्री को किसी तरह की परेशानी होगी, ये सोचना भी हास्यास्पद है। अब इस बात पर यक़ीन करना भी मुश्किल है कि इस देश में टी.एन.शेषन जैसा भी कोई चुनाव आयुक्त हुआ है जिसके ख़ौफ़ ने दिग्गज नेताओं को भी क़ानून के दायरे में रहते हुए चुनाव लड़ने को मजबूर कर दिया था।
कभी चुनाव आयोग ने धर्म के आधार पर वोट माँगने के आरोप में ही शिवसेना के संस्थापक बाला साहेब ठाकरे को छह साल के लिए वोट देने के अधिकार से वंचित कर दिया था। ये एक तरह से किसी की नागरिकता छीन लेने जैसा ही था। लेकिन अब आयोग चुप है। यही वजह है कि बाल ठाकरे के बेटे और शिवसेना के मौजूदा प्रमुख उद्धव ठाकरे पूछ रहे हैं कि क्या क़ानून बदल गये हैं? उधर, एआईएमआईएम अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी इस मुद्दे पर मीडिया की चुप्पी पर सवाल उठाते हुए कह रहे हैं कि अगर उन्होंने ‘अल्ला हू अकबर’ कहकर वोट डालने की अपील की होती तो यही मीडिया वबाल मचा देता।
उद्धव ठाकरे और ओवैसी की ओर से उठाये गये सवाल उसी ख़तरनाक संकेत की याद दिला रहे हैं जिसे पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने अपने 1999 के विश्वासमत के विरोध में दिये गये भाषण में चेताया था। उनका इशारा साफ़ थाकि बीजेपी की राजनीति भारत के मौजूदा धर्मनिरपेक्ष और संवैधानिक ढाँचे को तहस-नहस कर देने की ओर बढ़ रही है। उस समय वाजपेयी संकोच में दिख रहे थे, लेकिन मोदी जी को ऐसा कोई संकोच नहीं है।
लोगों को ‘हम’ या ‘वे’ में बाँट कर देखना शायद सबसे आदिम प्रवृत्ति है। लाखों साल तक मनुष्य और जंगली जानवरों के बीच ‘हम; और ‘वे’ के रूप में संघर्ष होता रहा। फिर खेती और सभ्यता के विकास के साथ संघर्ष के रूप बदलते गये। कबीले, धर्म, राज्य, नस्ल, क्षेत्र, भाषा और रंग के आधार पर ‘अन्य’ को चिन्हिंत किया जाता रहा जिनसे हमेशा सतर्क रहने और मौक़ा पाते ही ख़त्म कर देना आम रिवाज रहा। सभ्यता का अर्थ सहअस्तित्व है, यह बात मनुष्य को काफ़ी देर से और आते-आते ही आयी।
भारत का सौभाग्य था कि उसे स्वतंत्रता ऐसे महामानवों के नेतृत्व में मिली जो सभ्यता के मर्म के रूप में शांतिपूर्ण सहअस्तित्व को स्वीकर करते थे। उन्हें यह शक्ति किसी विदेशी विचार से नहीं, बल्कि उपनिषदों के उन मंत्रों से मिली थी जो पूरी धरती को परिवार मानने और मनुष्यों के बीच भेदभाव को नीचता समझने का निर्देश देते हैं। उन्होंने ‘पाकिस्तान मुसलमानों का और भारत हिंदुओं का‘ के नारे को कभी स्वीकार नहीं किया। 1971 में जब पाकिस्तान के दो टुकड़े हुए तो उनकी दृष्टि पूरी तरह सही साबित हुई। उन्होंने धर्म को व्यक्ति का निजी मसला मानते हुए तय किया कि राज्य लौकिक समस्याओं के हल के लिए लौकिक रास्ते खोजेगा न कि यह बोझ पारलौकिक शक्तियों पर डालेगा। भारत की इसी दूरदृष्टि का कमाल था कि उसने तेज़ी से छलाँग लगाते हुए दुनिया के चुनिंदा देशों के बीच अपनी जगह बनायी जबकि पाकिस्तान एक ‘फ़ेल्ड स्टेट’ के रूप में पहचाना गया। उसके फेल होने के पीछे बहुमत की धार्मिक भावनओं को भड़काये रखने की राजनीति बड़ा कारण बनी।
तो जब प्रधानमंत्री मोदी चुनावी रैलियों में बजरंगबली के नाम पर वोट देने की अपील करते हैं या श्मशान-कब्रिस्तान की भाषा में लोगों को संबोधित करते हैं तो वे कुछ नया नहीं कर रहे होते हैं। वे उसी रास्ते पर चलने की कोशिश कर रहे होते हैं जिस पर चलकर पाकिस्तान बरबाद हो चुका है। जिन्हें पाकिस्तान से तुलना पसंद न हो वे हिटलरकालीन जर्मनी का इतिहास भी पलट सकते हैं जिसने उस महान देश को बरबाद कर दिया था।
ये देखना वाक़ई दुखद है कि सबका साथ-सबका विकास का नारा देने वाले प्रधानमंत्री धार्मिक नारों के आधार पर वोट माँग रहे हैं या बजरंग बली की तुलना बजरंगदल से कर रहे हैं जिसके तमाम उत्पातों पर आडवाणी जैसे उनकी ही पार्टी के वरिष्ठ नेता अतीत में कई बार टिप्पणी कर चुके हैं। यह कर्नाटक मे उनके डबल इंजन की सरकार के पूरी तरह फेल हो जाने की निशानी भी है। लोग महँगाई, बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार जैसे सवालों पर गोलबंद होकर कर्नाटक की बीजेपी सरकार को सज़ा न दें, इसलिए प्रधानमंत्री बजरंगबली के नाम पर व्यापक हिंदू समाज को गोलबंद करना चाहते हैं। ये संयोग नहीं कि ‘कश्मीर फाइल्स’ के बाद उन्होंने ‘केरला स्टोरी’ जैसी फ़िल्म की चुनावी मंच से तारीफ़ की है जो सिर्फ़ दो समुदायों के बीच नफ़रत फैलाने के मक़सद से बनायी गयी हैं।
प्रधानमंत्री किसी पार्टी का नहीं, पूरे देश का नेता होता है। दुनिया उसकी वाणी में देश की इच्छा और आकांक्षा खोजती है। लेकिन मोदी जी जिस राह पर चल रहे हैं उससे तो एक पुराना फ़िल्मी नग़मा ही याद आता है- मझधार में नैय्या डोले, तो माझी पार लगाये य, माझी जो नाव डुबोए, उसे कौन बचाये हो, उसे ...
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