डोनल्ड ट्रम्प अमेरिकी विदेश और समर नीति में जो विरासत छोड़ गए हैं, उनमें मौलिक बदलाव अमेरिका के नए राष्ट्रपति जो बाइडन कर सकेंगे या नहीं, इस पर सामरिक हलकों वास्तव में राष्ट्रपति ट्रंप ने दुनिया की भू- राजनीति में मौलिक बदलाव ला दिया है, जिसे पलटना अमेरिका के किसी राष्ट्रपति के लिये अपने सामरिक हितों को त्यागने जैसा होगा।
भले ही राष्ट्रपति बाइडन विश्व स्वास्थ्य संगठन में अमेरिका को फिर शामिल कर लें, पेरिस पर्यावरण समझौता को स्वीकार कर लें या फिर ईरान परमाणु समझौता को मान्यता प्रदान कर दें, दुनिया की नजर राष्ट्रपति जो बाइडन की चीन नीति पर टिकी रहेगी। देखना होगा कि राष्ट्रपति चीन विरोध को उसी मुखरता के साथ जारी रखते हैं या इसमें कुछ नरमी लाते हैं।
भारत का साथ क्यों?
जहाँ तक भारत का सवाल है, डोनल्ड ट्रम्प की विदेश नीति के कई पहलुओं की वजह से भारत के लिये मुश्किलें ही पैदा हुईं, लेकिन इन सबको नजरअंदाज़ करते हुए भारत ने ट्रम्प प्रशासन के साथ इसलिये रिश्ते गहरे किये कि उन्होंने आतंकवाद, पाकिस्तान और चीन के मसले पर खुल कर भारत का साथ दिया।
ऐसे वक्त जब भारत और चीन के बीच लद्दाख के सीमांत इलाकों पर सैन्य तनाव युद्ध की कगार पर पहुँच गया है, अमेरिका द्वारा खुलकर भारत के पक्ष में बोलना भारतीय रक्षा कर्णधारों के लिये मनोबल बढ़ाने वाला साबित हुआ।
चाहे वह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में आतंकवादी मसूद अज़हर के ख़िलाफ़ चीन- पाकिस्तान को घेरने की बात हो या चीन के खिलाफ़ भारत सहित चार देशों के गुट हिंद प्रशांत चतुर्पक्षीय समूह खड़ा करने की बात हो, भारत के नज़रिये से काफी अनुकूल और चीन की दादागिरी रोकने के नजरिये से भारत के हित में था।
चीनी दादागिरी के ख़िलाफ़
भारतीय सामरिक हलकों में यही चिंता है कि क्या राष्ट्रपति बाइडन भारत के पक्ष में मुखर विरोध जारी रखेंगे। वास्तव में डोनल्ड ट्र्म्प ने चीन की दादागिरी के ख़िलाफ़ जिस तरह आवाज बुलंद की उतना अमेरिका का कोई भी राष्ट्रपति हिम्मत नहीं कर सका।ट्रम्प के विचारों और नीतियों से भले ही हम सहमत नहीं हों, लेकिन उनकी इन्हीं नीतियों की वजह से उन्हें 6.6 करोड़ अमेरिकी मतदाताओं ने अपना वोट दिया जो 2016 के मुकाबले 10 प्रतिशत अधिक है। इस बार रिकार्ड संख्या में डेमोक्रेट समर्थक मतदाताओं ने वोट दिया, जिससे जो बाइडन को 7 करोड़ वोट मिले और वह जीत के पूरे हक़दार बने हैं।
चीन- विरोध का झंडा लहरा कर ट्रम्प ने अपने देश में संदेश दिया कि किस तरह वह अमेरिका को चीन के चंगुल से बचाना चाहते हैं। चुनाव प्रचार के दौरान जो बाइडन भी इसका विरोध नहीं कर सके और चीन के ख़िलाफ़ ठोस नीतियाँ लाने की बात करने को मजबूर हुए।
वास्तव में चीन ने अमेरिका के कॉरपोरेट जगत को जिस तरह अपने मोहपाश में ले लिया था उससे पिछले अमेरिकी प्रशासन अछूता नहीं रह सका। चीन में अमेरिकी कॉरपोरेट जगत के हित इतने बंध गए थे कि चीन को लेकर अमेरिकी प्रशासन की नीतियों को प्रभावित करते रहे।
ट्रंप की चीन नीति को पलटना मुश्किल
इसी वजह से पिछले अमेरिकी प्रशासन दक्षिण चीन सागर में चीन की दादागिरी को नजरअंदाज करते रहे। खुद डोनाल्ड ट्रम्प की चीन में व्यावसायिक गतिविधियाँ हैं। लेकिन इनकी परवाह किये बिना उन्होंने चीन के ख़िलाफ़ आग उगलने से गुरेज नहीं किया। बराक ओबामा के प्रशासन में उपराष्ट्रपति जो बाइडन भी चीन के काफी क़रीबी माने जाते थे और चीन समर्थक रुख अपनाने के लिये वे प्रशासन को प्रेरित करते थे।लेकिनडोनल्ड ट्रम्प ने अपने चार साल के कार्यकाल में चीन का जिस तरह जम कर लोहा लिया और इस इरादे से भू-राजनीति में जो बदलाव लाए उसे पलटने की हिम्मत जो बाइडन नहीं कर सकेंगे। यदि वे ट्रम्प की नीतियों को लेकर चीन के साथ कुछ नरमी बरतने की कोशिश करेंगे। तो दुनिया में अपनी नेतृत्वकारी भूमिका की कीमत पर ही कर सकेंगे।
जो बाइडन को चीन की आक्रामक समर नीति से लोहा लेना है तो उन्हें डोनल्ड ट्रम्प की नीतियों में और परिपक्वता के साथ कुछ बदलाव लाने होंगे।
चीन को फ़ायदा
वास्तव में ट्रम्प ने एक तरफ तो चीन से सीधा लोहा लिया। लेकिन दूसरी तरफ उन्होंने चीन के लिये सामरिक जगह खाली कर सामरिक रिक्तता भरने का मौका प्रदान किया। इन इलाकों को अपनी गिरफ़्त में लेने के लिये चीन ने देरी नहीं की। जैसे ईरान के साथ 6 देशों के परमाणु समझौते को तोड़ कर उन्होंने चीन को मौका दिया कि वह ईरान को गोद ले ले। इसी तरह अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान से शर्मनाक समझौता कर ट्रम्प ने काबुल में चीन को भूमिका निभाने का मौका प्रदान किया है।इस वजह से पश्चिम एशिया से लेकर दक्षिण और मध्य एशिया में चीन को अपना असर फैलाने और वहाँ उन इलाकों में अपना स्थायी गढ़ बनाने का मौका मिलेगा। इस वजह से दीर्घकाल तक के लिये अमेरिका इन क्षेत्रों के देशों के साथ अपने रिश्ते गहरे कर सामरिक तौर पर उन्हें अपने पर निर्भर नहीं बना सकेगा।
अमेरिकी प्रशासन को यदि दुनिया में अपनी नेतृत्वकारी भूमिका निभानी है तो चीन के खिलाफ़ ट्रम्प की उग्र तेवर वाली नीति को जारी रखना होगा।
भारत के हित में
यह भारत के हित में होगा कि दुनिया पर चीन के बदले अमेरिका हावी रहे। अमेरिकी प्रशासन ने यदि अमेरिका के घरेलू आर्थिक हितों के मद्देनज़र चीन के प्रति नरमी बरती तो दीर्घकालिक नज़रिये से अमेरिका के लिये नुक़सानदेह ही साबित होगा क्योंकि एक बार दुनिया पर अपना प्रभुत्व जमाने के बाद वह अमेरिका या किसी भी प्रदिद्वंद्वी देश को नहीं बख्शेगा।
ट्र्म्प ने जिस तरह हिंद प्रशांत नीति को धार प्रदान की है, वह दक्षिण चीन सागर से लेकर हिंद महासागर तक अमेरिकी सामरिक प्रभुत्व बहाल करने के लिये ज़रूरी था। चूंकि इस इलाके में अमेरिका के हित भारत से मेल खा रहे थे, इसलिये भारत और अमेरिका दोनों इस इलाके में साथ हो गए।
अमेरिका अब इतना मजबूत नहीं रहा या यूं कहें कि चीन इतना ताक़तवर हो गया है कि अमेरिका उससे अकेले मुक़ाबला नहीं कर सकता है, इसलिये भारत और अमेरिका के साझा हित में था कि दोनों न केवल साथ आएं, बल्कि समान विचार और साझा हित वाले दो अन्य देशों ऑस्ट्रेलिया और जापान को भी साथ ले लें ।
चीन के ख़िलाफ़ गोलबंदी
चीन के ख़िलाफ़ गिरोहबंदी को देख कर दक्षिण पूर्व एशिया के दूसरे देश इंडोनेशिया, वियतनाम, दक्षिण कोरिया आदि भी साथ आने की हिम्मत कर रहे हैं।डोनल्ड ट्रम्प ने हिंद प्रशांत नीति को धारदार बनाकर चीन के लिये काफी चिंताएं पैदा कर दी हैं। हिंद प्रशांत का इलाक़ा चीन की समर नीति के केन्द्र बिंदु में रहा है. ताकि वह दुनिया पर अपना प्रभुत्व जमा सके। क्षेत्र के देशों के साथ चीन ने रिश्ते इसी नज़रिये से विकसित किये हैं।
लेकिन जिस तरह ट्रम्प ने हिंद प्रशांत के इलाके में चार देशों के अलावा चीन की नीतियों से परेशान अन्य देशों को साथ लेकर चलने की रणनीति अपनाई, उससे हिंद प्रशांत इलाक़े में अमेरिका की भूमिका बरक़रार रहेगी। बाइडन को ज़रूर इस बात की फिक्र होगी कि पिछले सालों में अमेरिका ने जो सामरिक स्थान चीन के हिस्से में जाने दिया, वह फिर अमेरिकी प्रभाव में लौट आए।
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