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13 अप्रैल, 2021 को जलियाँवाला बाग़ में ब्रिटिश सरकार द्वारा किए गए जघन्य हत्याकांड के 102 साल पूरे हो गए। दुर्भाग्य से राष्ट्रवाद की आँच में लगभग तपते एक समय में इतिहास को पलट कर देखने का यह ऐतिहासिक अवसर जैसे अलक्षित गुज़रता जा रहा है। पूछा जा सकता है कि हम उस इतिहास को पलट कर क्यों देखें? सौ साल पुराने एक जघन्य हत्याकांड की स्मृति हमारे लिए क्या मायने रखती है? इस सवाल का जवाब खोजने निकलेंगे तो पाएँगे कि दरअसल यह एक दिन और एक जघन्य हत्याकांड का इतिहास नहीं है, लगभग एक सदी चले भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की सबसे महत्वपूर्ण कड़ियों में है और उन चंद तारीख़ों में है जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम को आगे बढ़ाया। ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन भले 1942 में शुरू हुआ हो, उसकी नींव 13 अप्रैल 1919 को ही पड़ गई थी और देश भले 15 अगस्त 1947 को आज़ाद हुआ, लेकिन ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ख़ात्मे की उल्टी गिनती शुरू हो गई थी।
फिर यह बात भी समझ में आएगी कि 13 अप्रैल 1919 को जो कुछ हुआ, वह अलग से घटा कोई अकेला वाक़या नहीं था जिसके पीछे किसी जनरल की सनक थी, बल्कि ब्रिटिश दमन के एक पूरे सिलसिले का चरम था जिसका मक़सद तत्कालीन ‘देशद्रोहियों’ के हौसले पस्त करना था।
जलियाँवाला बाग़ की कहानी दरअसल न 13 अप्रैल को शुरू होती है, न वहीं ख़त्म होती है, वह प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद भारत में अंग्रेज़ों के विरुद्ध व्यापक असंतोष के दमन की ब्रिटिश नीति-रीति के तहत लाए गए रॉलेट एक्ट से शुरू होती है। दिलचस्प है कि यह क़ानून पहले विश्वयुद्ध के दौरान बने डिफ़ेंस ऑफ़ इंडिया एक्ट 1915 के तहत लाया गया था। इस क़ानून के तहत किसी भी शख्स को आतंकी साज़िश के शक की बिना पर अचानक गिरफ़्तार किया जा सकता था, बिना केस मुक़दमे के दो साल तक जेल में रखा जा सकता था, उस पर गोपनीय ढंग से मुक़दमा चलाया जा सकता था और उसे सज़ा दी जा सकती थी। 10 मार्च 1919 को यह क़ानून पास हुआ और इसका विरोध शुरू हो गया। महात्मा गाँधी ने इस क़ानून के विरोध में देशव्यापी हड़ताल का एलान किया। मुहम्मद अली जिन्ना ने क़ानून का विरोध करते हुए इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल से इस्तीफ़ा दे दिया। पूरा देश इसका विरोध कर रहा था और अमृतसर इस विरोध में दूसरों से कहीं आगे था। जलियाँवाला बाग़ की कहानी इसी विरोध से शुरू होती है।
यह कहानी इतिहास में भी दर्ज है और लोगों की स्मृति में भी बसी हुई है। इस स्मृतिशिथिल समय में भी कुछ लोग इसे बचाए हुए हैं। इसी साल राजपाल से एक किताब ‘अमृतसर 1919’ छप कर आई है जिसके लेखक रजनीश धवन हैं। यह उपन्यास याद करता है कि गाँधी जी ने रॉलेट एक्ट के विरोध में पहले तीस मार्च को हड़ताल तय की थी जिसे किसी वजह से 6 अप्रैल कर दिया गया।लेकिन अमृतसर में कांग्रेस के नेतृत्व ने तय किया कि हड़ताल 30 मार्च को ही होगी। यह हड़ताल ऐसी हुई कि पूरा अमृतसर बंद रहा। वहाँ की मंडियाँ, वहाँ के बाज़ार, वहाँ के दफ़्तर सन्नाटे में डूबे रहे। यह हड़ताल देखकर अंग्रेज़ हुकूमत सकते में आ गई। इसकी दो वजहें थीं। पहली तो यह कि यह हड़ताल पूरी तरह अहिंसक थी। बेशक, अंग्रेज़ी राज के विरोध में नारे लगे, लेकिन उकसावे वाली ऐसी कोई हरकत नहीं हुई जिसकी वजह से अँग्रेज़ कोई कार्रवाई कर पाते। शहर का उपायुक्त माइल्स इरविंग यह नज़ारा देखकर हैरान था।
अंग्रेजों को जो दूसरी बात ज़्यादा ख़तरनाक लग रही थी वह इस मौक़े पर दिखी हिंदू-मुसलिम एकता थी। महज तीन साल पहले कांग्रेस और मुसलिम लीग ने यह बात समझी थी कि हिंदुस्तान की लड़ाई साझा तौर पर लड़नी होगी और इसके लिए आपस में समझौता किया था।
रॉलेट एक्ट का विरोध इसका पहला बड़ा प्रयोग साबित होने वाला था। बाक़ी देश से एक हफ़्ते पहले ही अमृतसर से इसकी शुरुआत हो चुकी थी।
लेकिन अमृतसर बाक़ी देश के साथ भी था। छह अप्रैल को जब कांग्रेस के आह्वान पर पूरे देश में हड़ताल हुई तो अमृतसर भी इस हड़ताल के साथ हो लिया। एक बार फिर पूरे शहर में वही नज़ारा था। सारी दुकानें बंद, सारे बाजार बंद, शहर का एक-एक नागरिक इस शांतिपूर्ण बंद में शामिल था। हिंदू- मुसलमान एक होकर यह लड़ाई लड़ रहे थे।
रजनीश धवन का उपन्यास बताता है कि 6 अप्रैल की कामयाबी से उत्साहित अमृतसर के लोगों ने तय किया कि वे रामनवमी का जुलूस भी हिंदू-मुसलिम एकता की नायाब मिसाल की तरह निकालेंगे। हालाँकि यह काम आसान नहीं था लेकिन फिर भी हुआ। पहले अमृतसर के मुसलिम समुदाय को इस बात के लिए तैयार किया गया कि वे रामनवमी के जुलूस में शामिल हों। फिर हिंदुओं के सामने यह शर्त रखी गई कि जो जुलूस निकलेगा उसमें पानी के अलग-अलग हिंदू-मुसलिम घड़े नहीं चलेंगे, एक ही घड़ा होगा जिससे हिंदू और मुसलमान दोनों पानी पिएँगे। जिस दौर में छुआछूत और शुद्धता का बोलबाला था उस समय हिंदुओं को ऐसी साझा रवायत के लिए तैयार करना आसान काम नहीं था। लेकिन वे इसके लिए भी तैयार हो गए। इस पूरी लड़ाई में अमृतसर का सिख समुदाय भी शामिल था। बल्कि उसके बिना इस लड़ाई की कल्पना नहीं की जा सकती थी। यही नहीं, अगर उपन्यास पर भरोसा करें तो इस जुलूस का नेतृत्व एक मुसलिम ने किया- वे शहर के जाने-माने डॉक्टर थे।
तो रामनवमी का जुलूस निकला और इसने अंग्रेज़ हुकूमत की बिल्कुल नींद ही उड़ा दी। पहले से अमृतसर में मार्शल लॉ लगाने का मन बना रहे पंजाब के गवर्नर ड्वायर ने तय कर लिया कि अब उदार हुकूमत से काम नहीं चलेगा।
पंजाब के गवर्नर ने शहर की कमान माइल्स इरविंग के हाथ से लेकर जनरल डायर को सौंप दी- इस हिदायत के साथ कि वह अमृतसर को रास्ते पर लाए और इस तरह लाए कि पूरा हिंदुस्तान उससे सबक ले। तो जनरल डायर आया इसी मंसूबे के साथ था कि वह अमृतसर के हौसले तोड़ देगा।
इसकी शुरुआत जलियाँवाला बाग़ से पहले ही हो गई। दरअसल, जलियाँवाला बाग़ की त्रासदी ने उससे कुछ ही दिन पहले अमृतसर में ही घटी एक और त्रासदी की ओर से सबका ध्यान हटा दिया है। रामनवमी के जुलूस के बाद अंग्रेज़ों ने शहर का नेतृत्व कर रहे डॉ. सतपाल और डॉ. सैफ़ुद्दीन किचलू को गिरफ्तार कर धर्मशाला भिजवा दिया। इसका विरोध करने जो लोग माइल्स इरविंग के दफ़्तर जा रहे थे उन पर सेना ने फ़ायरिंग की। 10 अप्रैल की इस गोलीबारी में भी 20 लोग मारे गए। यह दरअसल अंग्रेज़ों की ओर से पहला उकसावा था कि अमृतसर अहिंसा का रास्ता छोड़कर हिंसा के रास्ते पर आए और वह अपनी कार्रवाई के लिए एक तर्क खोज सकें। 20 बेगुनाह लोगों की मौत से नाराज़ अमृतसर जैसे भभक उठा। बैंक और सरकारी दफ्तरों में आग लगाने का सिलसिला शुरू हो गया। 5 अंग्रेज़ों को भीड़ ने मार डाला। एक महिला डॉक्टर डॉ. शेरवुड के साथ भी बदसलूकी हुई। अँग्रेज़ शायद अपने लिए ऐसा ही मौक़ा खोज रहे थे। उन्होंने इसे ब्रिटिश राज की अवमानना की तरह देखा। इसकी सज़ा बहुत सारे लोगों को भुगतनी पड़ी।
जिस गली में डॉक्टर शेरवुड के साथ बदसलूकी हुई थी, जनरल डायर ने वहाँ हिंदुस्तानियों के रेंग कर जाने का नियम बना दिया। जो लोग उस गली में रहते थे, उन्हें भी इस नियम से छूट नहीं थी।नतीजा यह हुआ कि उनके लिए एक अघोषित कर्फ्यू लग गया। उनका खाना-पीना, उनकी साफ-सफाई सब जैसे बंद हो गए। दरअसल डायर अमृतसर को सजा देना नहीं चाहता था, वह उसे पूरी तरह तोड़ देना चाहता था। एक अर्थ में देखें तो वह ब्रिटिश राज्य का सच्चा प्रतिनिधि था, एक पक्का देशभक्त जिसे यूनियन जैक की कोई भी अवहेलना नामंजूर थी। उसने जो कुछ किया इस विश्वास के तहत किया कि वह अपने साम्राज्य की सेवा कर रहा है, क्वीन विक्टोरिया का काम कर रहा है। 1919 के उस भारत में संभवत: किसी को यह एहसास नहीं था कि अगले 30 साल के भीतर अंग्रेज़ों को हिंदुस्तान छोड़ना होगा। बल्कि अमृतसर में जो कुछ हुआ उसने अंग्रेजों के देश छोड़ने की तारीख़ कुछ और पास ला दी।
इन सब को घेर कर हज़ारों गोलियाँ बरसाई गईं। बिल्कुल मशीनी ढंग से हज़ार से ज़्यादा लोगों को मार दिया गया। यही नहीं, वहाँ उस शाम किसी को रुकने की इजाज़त नहीं दी गई कि वे अपनों के शव तक पहचान और उठा सकें या घायलों की मरहम पट्टी कर सकें।
देखने वाले याद करते हैं कि वह रात वहां मंडराते कुत्तों और गिद्धों की रात थी। जलियांवाला बाग के बाद गांधी जी ने ब्रिटिश हुकूमत को शैतानों का शासन करार दिया और कहा कि इनके साथ किसी भी तरह का सहयोग नहीं किया जा सकता।असहयोग आंदोलन इसी अमृतसर की कोख से उपजा था। हालांकि गांधीजी बार-बार इस बात पर जोर देते रहे थे कि अंग्रेजों के खिलाफ़ जो भी आंदोलन हो पूरी तरह अहिंसक हो। उन्होंने लगभग किसी प्रतिज्ञा की तरह निभाया। चौरी चौरा कांड के बाद असहयोग आंदोलन को वापस लेने की घोषणा इसी प्रतिज्ञा की विडंबनापूर्ण पूर्णाहुति रही।
अँग्रेज़ हुकूमत इसे बग़ावत के एक बड़े सिलसिले के तौर पर देख रही थी। उसे अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति याद आ रही थी। उसे पहले विश्व युद्ध के दौरान अमेरिका में बनी गदर पार्टी याद आ रही थी। रजनीश धवन के उपन्यास में गदर पार्टी से जुड़े दो लोग वाक़ई इस बैसाखी में अमृतसर में छुपे हुए हैं और उनको लोगों का समर्थन हासिल है। फिर दुहराने की ज़रूरत है कि अमृतसर 1857 से 1947 तक चले एक लंबे सिलसिले की वह कड़ी है जिसने न सिर्फ़ आज़ादी की लड़ाई को एक नए दौर में पहुँचा दिया बल्कि साथ ही भारत के होने का एक नया मतलब खोज निकाला, एक तरह से भारतीयता को पुनर्परिभाषित किया। इस सिलसिले में वह जहाज कामागटा मारू भी आता है जो भारत से कनाडा के लिए चला लेकिन जिसे कनाडा के गोरे प्रशासन ने अपने यहाँ दाखिल होने की इजाज़त नहीं दी, इस बात के बावजूद कि तब के ब्रिटिश साम्राज्य में भारत और कनाडा एक ही झंडे के तले थे और दोनों देशों के लोगों को एक दूसरे के यहाँ आने जाने का अधिकार था। जाहिर है कनाडा का रंग भेद भारतीयों को पचाने को तैयार नहीं था। वैंकूवर में इस जहाज पर गोलियाँ चलाई गईं और वहाँ दो महीने पड़े रहने के बाद जब यह जहाज़ बहुत मुश्किल हालात में भारत पहुँचा तो भी इसका स्वागत गोलियों से किया गया। उस अभागे जहाज के बहुत सारे बदकिस्मत मुसाफिर मारे गए। अँग्रेज़ों को शक था कि इस जहाज़ में गदर पार्टी के कुछ लोग हैं। यह सब कुछ लगभग साथ-साथ उन्हीं दिनों घट रहा था जब ब्रिटिश साम्राज्य का सूरज अपनी बुलंदी पर था और अपनी न्यायप्रियता का ढिंढोरा दुनिया भर में पीटता था।
आज 100 साल बाद हम भले जलियाँवाला बाग़ को भूलते दिख रहे हों, लेकिन उस दौर के दमन और ख़ून-ख़राबे के बीच रचा गया बहुत सारा साहित्य ऐसा है जो हमारी आँख खोलता है। रजनीश धवन के उपन्यास ‘अमृतसर 1919’ के अलावा इस साल ‘सहमत’ ने जलियाँवाला बाग़ की याद में एक पुस्तिका भी छापी है जिसमें बहुत सारे लोगों के गीत, नाटक, कहानियाँ, कविताएँ, वृत्तांत आदि शामिल है। नानक सिंह की मशहूर पंजाबी कविता ‘ख़ूनी बैसाखी’ तो जैसे पंजाब की स्मृति का अभिन्न अंग हो चुकी है। लेकिन कम लोगों को अंदाज़ा होगा कि अमृतसर को लेकर मंटो ने भी कहानियाँ लिखीं और कृष्ण चंदर ने भी। यही नहीं, भीष्म साहनी के नाटक ‘रंग दे बसंती चोला’ के केंद्र में भी जलियाँवाला बाग़ है। इसके अलावा बहुत सारे अनजान लेखकों, गुमनाम शायरों और ऐसे ही कलाकारों की रचनाएँ अमृतसर को याद करती हैं और भरोसा दिलाती हैं कि दमन चाहे जितना तीखा हो उसका प्रतिरोध कहीं न कहीं चलता और पलता रहता है।
इस सिलसिले में कुछ कहानियाँ तो बेहद ख़ास हैं। ग़ुलाम अब्बास की कहानी ‘रेंगने वाले’ बताती है कि किस तरह अमृतसर का नौजवान ख़ून कभी-कभी दमन की इंतिहा को भी मुँह चिढ़ाता था। इस कहानी में दोनों जवान अचानक कहीं से आते हैं और वह पुलिस के अफ़सर से इस बात की इजाज़त माँगते हैं कि उन्हें उस गली में रेंग कर जाने दिया जाए। अफ़सर कुछ हैरान-परेशान इजाज़त दे देता है। दोनों ख़ुशमिजाज़ नौजवान अपने कपड़े उतारते हैं और गली में रेंगना शुरू करते हैं। एक चक्कर लगाते हैं, दूसरा चक्कर लगाते हैं, तीसरा चक्कर लगाते हैं कि अचानक अफ़सर फट पड़ता है- यह क्या हो रहा है। एक नौजवान कहता है, हमने आपस में बाज़ी लगाई थी कि कौन रेंग कर इस गली के दस फेरे लगा सकता है।
ऐसी कहानियाँ और भी हैं- हौसले की, सपने की, अमृतसर का इतिहास नए सिरे से लिखने की बेचैनी की।
यह सच है कि देश से विदेशी शासन का जुआ उतर चुका है लेकिन शासक और जनता के बीच की दूरी जैसे लगातार बढ़ती जा रही है। हमारे प्रजातंत्र को पहले धन-तंत्र और बल-तंत्र से अगवा किया जा रहा है और फिर देश को एक सैन्यवादी राष्ट्र में बदला जा रहा है।
बहुसंख्यकवाद की राजनीति को आधार बनाकर एक बहुत बड़ी आबादी को हाशिए पर लाने की कोशिश जारी है। जो इस प्रक्रिया के ख़िलाफ़ हैं जो इसे अनुचित बताते हैं उन्हें देशद्रोही घोषित किया जा रहा है, उन्हें जेलों में डाला जा रहा है, उन्हें डराया-धमकाया जा रहा है। सच तो यह है कि आज की तारीख़ में दो भारत बन गए हैं। एक छोटा-सा भारत, एक बड़े भारत का बिल्कुल उपनिवेश की तरह इस्तेमाल कर रहा है। जो लोग यह काम कर रहे हैं उन्हें शायद यक़ीन है कि उनका काम हमेशा चलता रहेगा। लेकिन अमृतसर बताता है इतिहास को करवट लेते समय नहीं लगता। 100 साल पहले जिन अँग्रेज़ों का सूरज नहीं डूबता था आज वह अपना झंडा और सिक्का दोनों यूरोपियन यूनियन के बाज़ार में बेच चुके हैं। अमृतसर भरोसा दिलाता है कि सत्ता का अहंकार यहाँ भी टूटेगा और देश में बराबरी और सद्भाव की लड़ाई अंततः जीती जाएगी।
अमृतसर की कहानी तब तक अधूरी रहेगी जब तक इसमें महात्मा गाँधी को नहीं जोड़ेंगे। उस साल कांग्रेस का अधिवेशन अमृतसर में ही हुआ। राजमोहन गाँधी की किताब ‘मोहनदास’ बताती है कि वहाँ जलियाँवाला बाग़ की निंदा का प्रस्ताव रखा गया। उस प्रस्ताव में 5 अँग्रेज़ों की हत्या और डॉक्टर शेरवुड के साथ हुई बदसलूकी की निंदा भी शामिल थी। इस बात पर अधिवेशन में बहुत हंगामा हुआ। कई लोगों ने कहा कि यह किसी भारतीय माँ के बेटे का प्रस्ताव नहीं हो सकता। लेकिन यह प्रस्ताव गाँधी जी ने तैयार किया था। उन्होंने कहा कि यह भारतीय माँ के बेटे का ही प्रस्ताव हो सकता है। यह गाँधी की मनुष्यता थी। उनको मालूम था कि एक बड़े साम्राज्य के विरुद्ध लड़ाई में अहिंसा सिर्फ़ एक रणनीतिक औजार नहीं है बल्कि वह मूल मानवीय मूल्य है जिससे न सिर्फ़ लड़ाई बदलनी है बल्कि राजनीति का चरित्र भी निर्धारित किया जाना है और देश की आत्मा भी गढ़नी है। आने वाले दौर के भारत ने अहिंसा के इस मूल मंत्र को अपनाकर ही एक लंबी लड़ाई लड़ी। अमृतसर याद दिलाता है और गाँधी याद दिलाते हैं कि यह वह भारत नहीं है जिसका आज़ादी की लड़ाई के दौर में सपना देखा गया था। हमें एक दूसरी तरह का भारत बनाना था। वह भारत बनाने की चुनौती अब कुछ और कड़ी हो गई है।
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