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आपातकाल यानी भारतीय लोकतंत्र का एक स्याह और शर्मनाक अध्याय...एक दु:स्वप्न...एक मनहूस और त्रासद कालखंड! पांच साल पहले आपातकाल (इमर्जेंसी) के चार दशक पूरे होने के मौके पर उस पूरे कालखंड को शिद्दत से याद करते हुए बीजेपी के वरिष्ठ नेता और देश के पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने देश में फिर से आपातकाल जैसे हालात पैदा होने का अंदेशा जताया था।
हालांकि आडवाणी इससे पहले भी कई अवसर पर आपातकाल को लेकर अपने विचार व्यक्त करते रहे थे, मगर यह पहला मौका था जब उनके विचारों से आपातकाल की अपराधी कांग्रेस नहीं, बल्कि उनकी अपनी पार्टी बीजेपी अपने को हैरान-परेशान महसूस करते हुए बगलें झांक रही थी। वह बीजेपी जो कि आपातकाल को याद करने और उसकी याद दिलाने में हमेशा आगे रहती है।
आडवाणी ने एक अंग्रेजी अख़बार को दिए साक्षात्कार में देश को आगाह किया था कि लोकतंत्र को कुचलने में सक्षम ताकतें आज पहले से अधिक ताकतवर हैं और पूरे विश्वास के साथ यह नहीं कहा जा सकता कि आपातकाल जैसी घटना फिर दोहराई नहीं जा सकती।
बकौल आडवाणी, ''भारत का राजनीतिक तंत्र अभी भी आपातकाल की घटना के मायने पूरी तरह से समझ नहीं सका है और मैं इस बात की संभावना से इनकार नहीं करता कि भविष्य में भी इसी तरह से आपातकालीन परिस्थितियां पैदा कर नागरिक अधिकारों का हनन किया जा सकता है। आज मीडिया पहले से अधिक सतर्क है, लेकिन क्या वह लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्ध भी है? कहा नहीं जा सकता। सिविल सोसायटी ने भी जो उम्मीदें जगाई थीं, उन्हें वह पूरी नहीं कर सकी है। लोकतंत्र के सुचारु संचालन में जिन संस्थाओं की भूमिका होती है, आज उनमें से केवल न्यायपालिका को ही अधिक जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।''
आडवाणी का यह बयान यद्यपि पांच वर्ष पुराना है लेकिन इसकी प्रासंगिकता पांच वर्ष पहले से कहीं ज्यादा आज महसूस हो रही है। आधुनिक भारत के राजनीतिक विकास के सफर में लंबी और सक्रिय भूमिका निभा चुके एक तजुर्बेकार राजनेता के तौर पर आडवाणी की इस आशंका को अगर हम अपनी राजनीतिक और संवैधानिक संस्थाओं के मौजूदा स्वरूप और संचालन संबंधी व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो हम पाते हैं कि आज देश आपातकाल से भी कहीं ज्यादा बुरे दौर से गुजर रहा है।
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने तो संवैधानिक प्रावधानों का सहारा लेकर देश पर आपातकाल थोपा था, लेकिन आज तो औपचारिक तौर पर आपातकाल लागू किए बगैर ही वह सब कुछ बल्कि उससे भी कहीं ज्यादा हो रहा है जो आपातकाल के दौरान हुआ था। फर्क सिर्फ इतना है कि आपातकाल के दौरान सब कुछ अनुशासन के नाम पर हुआ था और आज जो कुछ हो रहा है वह विकास और राष्ट्रवाद के नाम पर।
जहां तक राजनीतिक दलों का सवाल है, देश में इस समय सही मायनों में दो ही अखिल भारतीय पार्टियां हैं- कांग्रेस और बीजेपी। कांग्रेस के खाते में तो आपातकाल लागू करने का पाप पहले से ही दर्ज है, जिसका उसे आज भी कोई मलाल नहीं है। यही नहीं, उसकी अंदरुनी राजनीति में आज भी लोकतंत्र के प्रति कोई आग्रह दिखाई नहीं देता। पूरी पार्टी आज भी एक ही परिवार की परिक्रमा करती नजर आती है।
आजादी के बाद लंबे समय तक देश पर एकछत्र राज करने वाली इस पार्टी की आज हालत यह है कि उसके पास लोकसभा में आधिकारिक विपक्षी दल के दर्जे की शर्त पूरी करने जितने भी सदस्य नहीं हैं। ज्यादातर राज्यों में भी वह न सिर्फ सत्ता से बेदखल हो चुकी है बल्कि मुख्य विपक्षी दल की हैसियत भी खो चुकी है।
दूसरी तरफ केंद्र सहित देश के लगभग आधे राज्यों में सत्तारूढ़ या सत्ता में भागीदारी कर रही बीजेपी के भीतर भी हाल के वर्षों मे ऐसी प्रवृत्तियां मजबूत हुई हैं, जिनका लोकतांत्रिक मूल्यों और कसौटियों से कोई सरोकार नहीं है। सरकार और पार्टी में सारी शक्तियां एक समूह के भी नहीं बल्कि एक ही व्यक्ति के इर्द-गिर्द सिमटी हुई हैं।
आपातकाल के दौर में उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने चाटुकारिता और राजनीतिक बेहयाई की सारी सीमाएं लांघते हुए 'इंदिरा इज इंडिया-इंडिया इज इंदिरा’ का नारा पेश किया था। आज बीजेपी में तो अमित शाह, रविशंकर प्रसाद, शिवराज सिंह चौहान, देवेंद्र फडनवीस आदि से लेकर नीचे के स्तर तक ऐसे कई नेता हैं जो नरेंद्र मोदी को जब-तब दैवीय शक्ति का अवतार बताने में कोई संकोच नहीं करते। वैसे, इसकी शुरुआत बतौर केंद्रीय मंत्री वैंकेया नायडू ने की थी, जो अब उपराष्ट्रपति बनाए जा चुके हैं। मौजूदा पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने तो हाल ही में इन सबसे कई कदम आगे बढ़कर मोदी को देवताओं का भी नेता करार दे दिया है।
मोदी देश-विदेश में जहां भी जाते हैं, उनके उत्साही समर्थकों का प्रायोजित समूह किसी रॉक स्टार की तर्ज पर मोदी-मोदी का शोर मचाता है और मोदी इस पर मुदित नजर आते हैं।
लेकिन बात नरेंद्र मोदी या उनकी सरकार की ही नहीं है, बल्कि आजादी के बाद भारतीय राजनीति की ही यह बुनियादी समस्या रही है कि वह हमेशा से व्यक्ति केंद्रित रही है। हमारे यहां संस्थाओं, उनकी निष्ठा और स्वायत्तता को उतना महत्व नहीं दिया जाता, जितना महत्व करिश्माई नेताओं को दिया जाता है। नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक की यही कहानी है। इससे न सिर्फ राज्यतंत्र के विभिन्न उपकरणों, दलीय प्रणालियों, संसद, प्रशासन, पुलिस और न्यायिक संस्थाओं की प्रभावशीलता का तेजी से पतन हुआ है, बल्कि राजनीतिक स्वेच्छाचारिता और ग़ैर-ज़रूरी दखलंदाजी में भी बढ़ोतरी हुई है।
यह स्थिति सिर्फ राजनीतिक दलों की ही नहीं है। आज देश में लोकतंत्र के पहरूए कहे जा सकने वाले ऐसे संस्थान भी नजर नहीं आते, जिनकी लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर प्रतिबद्धता संदेह से परे हो। आपातकाल के दौरान जिस तरह प्रतिबद्ध न्यायपालिका की वकालत की जा रही थी, आज वैसी ही आवाजें सत्तारूढ़ दल से नहीं बल्कि न्यायपालिका की ओर से भी सुनाई दे रही हैं। यही नहीं, कई महत्वपूर्ण मामलों में तो अदालतों के फैसले भी सरकार की मंशा के मुताबिक ही रहे हैं।
सूचना के अधिकार को निष्प्रभावी बनाने की कोशिशें जोरों से जारी हैं। हाल ही में चुनावों के दौरान इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन में गड़बड़ियों की गंभीर शिकायतें जिस तरह सामने आई हैं, उससे हमारे चुनाव आयोग और हमारी चुनाव प्रणाली की साख पर सवालिया निशान लगे हैं, जो कि हमारे लोकतंत्र के भविष्य के लिए अशुभ संकेत है।
नौकरशाही की जनता और संविधान के प्रति कोई जवाबदेही नहीं रह गई है। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो समूची नौकरशाही सत्ताधारी दल की मशीनरी की तरह काम करती दिखाई पड़ती है।
चुनाव में मिले जनादेश को दल-बदल और राज्यपालों की मदद से कैसे तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है, उसकी मिसाल पिछले दिनों हम गोवा, मणिपुर, मध्य प्रदेश, कर्नाटक आदि राज्यों में देख चुके हैं। राज्यसभा चुनाव में ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने के लिए विधायकों की ख़रीद-फरोख़्त का नजारा भी पिछले दिनों देश ने देखा है।
जिस मीडिया को हमारे यहां लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की मान्यता दी गई है, उसकी स्थिति भी बेहद चिंताजनक है। आज की पत्रकारिता आपातकाल के बाद जैसी नहीं रह गई है। इसकी अहम वजहें हैं- बड़े कॉरपोरेट घरानों का मीडिया क्षेत्र में प्रवेश और मीडिया समूहों में ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की होड़। इस मुनाफाखोरी की प्रवृत्ति ने ही मीडिया संस्थानों को लगभग जनविरोधी और सरकार का पिछलग्गू बना दिया है।
सरकार की ओर से मीडिया को दो तरह से साधा जा रहा है - उसके मुंह में विज्ञापन ठूंस कर या फिर सरकारी एजेंसियों के जरिये उसकी गर्दन मरोड़ने का डर दिखाकर। इस सबके चलते सरकारी और ग़ैर-सरकारी मीडिया का भेद लगभग ख़त्म सा हो गया है।
व्यावसायिक वजहों से से तो मीडिया की आक्रामकता और निष्पक्षता बाधित हुई ही है, पेशागत नैतिक और लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिक अधिकारों के प्रति उसकी प्रतिबद्धता का भी कमोबेश लोप हो चुका है। मुख्यधारा के मीडिया से इतर जो पत्रकार सरकार की आलोचना करने का साहस दिखा रहे हैं, उन्हें बिना किसी आधार के राजद्रोह के मुकदमे लगाकर प्रताड़ित किया जा रहा है।
पिछले तीन वर्षों के दौरान एक नई और ख़तरनाक प्रवृत्ति विकसित हुई है। वह है - सरकार, सत्तारूढ़ दल और मीडिया द्वारा सेना का अत्यधिक महिमामंडन। यह सही है कि हमारे सैन्य बलों को अक्सर तरह-तरह की मुश्किल भरी चुनौतियों से जूझना पड़ता है, इस नाते उनका सम्मान होना चाहिए लेकिन उनको किसी भी तरह के सवालों से परे मान लेना और उसके पराक्रम का खुलेआम चुनावी इस्तेमाल करना तो एक तरह से सैन्यवादी राष्ट्रवाद की दिशा में कदम बढ़ाने जैसा है।
आपातकाल कोई आकस्मिक घटना नहीं बल्कि सत्ता के अतिकेंद्रीकरण, निरंकुशता, व्यक्ति-पूजा और चाटुकारिता की निरंतर बढ़ती गई प्रवृत्ति का ही परिणाम थी। आज फिर वैसा ही नजारा दिख रहा है।
आपातकाल के दौरान संजय गांधी और उनकी चौकड़ी की भूमिका सत्ता-संचालन में ग़ैर-संवैधानिक हस्तक्षेप की मिसाल थी, तो आज वही भूमिका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ निभा रहा है। संसद को अप्रासंगिक बना देने की कोशिशें जारी हैं। न्यायपालिका के आदेशों की सरकारों की ओर से खुलेआम अवहेलना हो रही है। असहमति की आवाजों को चुप करा देने या शोर में डुबो देने की कोशिशें साफ नजर आ रही हैं।
आपातकाल के दौरान और उससे पहले सरकार के विरोध में बोलने वाले को अमेरिका या सीआईए का एजेंट करार दे दिया जाता था तो अब स्थिति यह है कि सरकार से असहमत हर व्यक्ति को पाकिस्तान परस्त या देश विरोधी करार दे दिया जाता है।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि आपातकाल के बाद से अब तक लोकतांत्रिक व्यवस्था तो चली आ रही है, लेकिन लोकतांत्रिक संस्थाओं, रवायतों और मान्यताओं का क्षरण जारी है। लोगों के नागरिक अधिकार गुपचुप तरीके से कुतरे जा रहे हैं। सत्तर के दशक तक में केंद्र के साथ ही ज्यादातर राज्यों में भी कांग्रेस का शासन था, इसलिए देश पर आपातकाल आसानी से थोपा जा सका।
इस समय बीजेपी भी केंद्र के साथ ही देश के आधे से ज्यादा राज्यों में अकेले या सहयोगियों के साथ सत्ता पर काबिज है। उसकी इस स्थिति के बरक्स देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस की ताकत का लगातार क्षरण होता जा रहा है। वह कमजोर इच्छा शक्ति की शिकार है। लंबे समय तक सत्ता में रहने के कारण उसमें संघर्ष के संस्कार कभी पनप ही नहीं पाए, लिहाजा सड़क से तो उसका नाता टूटा हुआ ही है, संसद में भी वह प्रभावी विपक्ष की भूमिका नहीं निभा पा रही है।
बाकी विपक्षी दलों की हालत भी कांग्रेस से बेहतर नहीं है। क्षेत्रीय दल भी लगातार कमजोर हो रहे हैं। विपक्ष की इस स्थिति का लाभ उठाकर सरकार लगातार मनमाने और जनविरोधी फैसले ले रही है।
आपातकाल के बाद बनी जनता पार्टी की सरकार ने और कुछ उल्लेखनीय काम किया हो या न किया हो लेकिन संवैधानिक प्रावधानों का सहारा लेकर देश पर फिर तानाशाही थोपे जाने की राह को उसने बहुत दुष्कर बना दिया था। यह उस सरकार का प्राथमिक कर्तव्य था जिसे उसने ईमानदारी से निभाया था।
लेकिन यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिक अधिकारों का अपहरण हर बार बाकायदा घोषित करके ही किया जाए, यह ज़रूरी नहीं। वह लोकतांत्रिक आवरण और कायदे-कानूनों की आड़ में भी हो सकता है। मौजूदा शासक वर्ग इसी दिशा में तेजी से आगे बढ़ता दिख रहा है।
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