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क्या राष्ट्रविरोधी नारे लगाने से ही हो जाएगी जेल?

गृह मंत्री अमित शाह ने यह कह कर एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है कि राष्ट्रविरोधी नारे लगाने वालों को सीधे जेल भेज दिया जाएगा। प्रश्न यह है कि क्या नारा लगाने मात्र से ही किसी को जेल की सज़ा हो सकती है? वरिष्ठ पत्रकार नीरेंद्र नागर ने इसकी पड़ताल की है। 

नीरेंद्र नागर
गृह मंत्री अमित शाह ने जबलपुर में एक रैली में कहा कि जो भारत के ख़िलाफ़ नारे लगाते हैं, उनको जेल भेजा जाएगा। उन्होंने कहा, 'कुछ छात्रों ने जेएनयू में भारत विरोधी नारे लगाए - भारत तेरे टुकड़े होंगे एक हज़ार, इंशाअल्लाह-इंशाअल्लाह। क्या इनको जेल में नहीं भेजा जाना चाहिए? जो भी राष्ट्रविरोधी नारे लगाएगा, उसको जेल में डाल दिया जाएगा।’

अमित शाह फ़रवरी 2016 की एक घटना को जनवरी 2020 में क्यों याद कर रहे हैं जबकि पिछले चार सालों में कहीं भी किसी ने किसी को भी यह नारा लगाते नहीं सुना है - जेएनयू में तो बिल्कुल नहीं? 

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अमित शाह के कहने का मतलब?

दो कारणों से। एक, जेएनयू में फ़ीस वृद्धि और नागरिकता क़ानून के विरोध में लंबे समय से भारी प्रतिरोध चल रहा है जिसको ख़त्म करने के लिए एबीवीपी से जुड़े नक़ाबपोशों ने हाल में छात्र यूनियन के नेताओं, छात्रों और शिक्षकों पर जानलेवा हमले किए थे।
अमित शाह जेएनयू में हुई गुंडागर्दी को खुलेआम समर्थन तो नहीं कर सकते थे। सो उन्होंने समर्थन करने का दूसरा तरीक़ा अपनाया। उन्होंने ऐसा चित्र खींचा जिससे लगे कि एबीवीपी के लोगों ने जो किया, वह अच्छा किया।
इसी उद्देश्य से अमित शाह ने 9 फ़रवरी 2016 को कुछेक कश्मीरियों द्वारा लगाए गए इन नारों को पूरे जेएनयू से जोड़ दिया और यह जताने की कोशिश की कि अभी वहाँ जो हो रहा है, उसके पीछे ऐसे ही तत्व हैं जो देश को तोड़ना चाहते हैं। इस तरह वे जेएनयू के सारे आंदोलनकारियों को राष्ट्रविरोधी और भारत का विखंडन चाहने वाली जमात के रूप में स्थापित कर दिया।

शाह का इरादा क्या था?

इरादा यह था कि सभा में बैठे लोग (और उनकी ख़बर को पढ़ने वाले पाठक) यही संदेश लेकर घर जाएँ कि जेएनयू के आंदोलनकारी देश को तोड़ना चाहते हैं। दूसरे शब्दों, में देश के दुश्मन हैं और उनके साथ जो हिंसक व्यवहार हुआ, वह सही हुआ।

इसी के साथ नारे में आए ‘इंशाअल्लाह-इंशाअल्लाह’ का ज़िक्र करके अमित शाह यह भी उजागर करना चाहते हैं कि भारत के टुकड़े करने की इच्छा रखने वाले मुसलमान हैं, क्योंकि वही अल्लाह का नाम लेते हैं।
इस तरह चार साल पुराने एक नारे का रैली में उल्लेख करके भारत के गृह मंत्री ने एक तीर से दो समूहों - वामपंथियों-उदारवादियों के गठजोड़ और मुसलमानों - को निशाने पर लिया और उनको देशद्रोही साबित कर दिया। नागरिकता संशोधन क़ानून का विरोध करने में यही सबसे आगे हैं।

क़ानून क्या कहता है?

गृह मंत्री के बयान का अभिप्राय समझने के बाद हम उनके वक्तव्य के दूसरे पक्ष पर आते हैं। हम सब जानते हैं कि ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ के नारे लगाने वाले बहुत ही कम लोग हैं। इनमें अधिकतर वे कश्मीरी हैं जो भारत के साथ नहीं रहना चाहते। लेकिन असली सवाल यह है कि ऐसा नारा लगाने वाला एक भी बंदा हो तो क्या उसे देशविरोधी नारा लगाने के कारण जेल भेजा जा सकता है? अगर हाँ तो किस क़ानून के तहत?

आम तौर पर ऐसी नारेबाज़ी के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 124(क) लगाई जाती है जो राजद्रोह से संबंधित है, न कि देशद्रोह से। देशद्रोह के बारे में भारत में कोई क़ानून नहीं है। राजद्रोह (यानी सरकार के प्रति विद्रोह) से जुड़ी इस धारा में लिखा हुआ है कि जो कोई भी व्यक्ति अपनी वाणी, लेखन आदि किसी भी हरकत से भारत में क़ानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति नफ़रत या बेवफ़ाई का भाव प्रदर्शित करेगा, उसे उम्रक़ैद तक की सज़ा हो सकती है।

अब ऐसे क़ानून की ज़द में तो वह हर व्यक्ति आ जाएगा जो वर्तमान में मोदी सरकार के ख़िलाफ़ लिखता-बोलता है या यूपीए के राज में तत्कालीन मनमोहन सरकार के ख़िलाफ़ कुछ भी लिखता-बोलता था क्योंकि मोदी/मनमोहन की सरकार ही क़ानून के द्वारा स्थापित सरकार आज है या तब थी।
क़ानून की इसी कमी का लाभ उठाते हुए देश के कई राज्यों में केंद्र सरकार की आलोचना करने वालों के ख़िलाफ़ राजद्रोह का मुक़दमा चलाया गया है और अदालतों ने हर बार उसको रद्द किया है।

क्या कहना है सुप्रीम कोर्ट का?

आइए, जानते हैं कि इस क़ानून के बारे में अदालतों, ख़ासकर सुप्रीम कोर्ट का क्या कहना है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई फ़ैसलों में कहा है कि सरकार की आलोचना करने का हक़ अभिव्यक्ति के अधिकार के तहत आता है इसलिए ऐसी किसी भी आलोचना को राजद्रोह नहीं कहा जा सकता
कोर्ट ने यह अच्छी तरह स्पष्ट कर दिया है कि नारे लगाना - चाहे वह नारा भारत विरोधी ही क्यों न हो राजद्रोह की श्रेणी में तब तक नहीं आता जब तक कि उन नारों के द्वारा किसी को क़ानून द्वारा स्थापित सरकार के ख़िलाफ़ हिंसा के लिए उकसाया न गया हो या उसके कारण हिंसा न फैली हो।
इस सिलसिले में केदारनाथ सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय बहुत महत्वपूर्ण है जो 1995 में आया था। कोर्ट ने 31 अक्टूबर 1984 के दिन दो सिखों द्वारा 'हिंदुस्तान मुर्दाबाद’ और ‘खालिस्तान ज़िंदाबाद’ के नारे लगाने पर स्पष्ट किया था कि केवल नारे लगाने से राजद्रोह का मामला नहीं बनता क्योंकि इन नारों से सरकार के लिए कोई ख़तरा पैदा नहीं होता। फ़ैसला पढ़ें
सर्वोच्च अदालत के अनुसार 124 (क) के तहत किसी के ख़िलाफ़ राजद्रोह का मामला तभी बनता है जबकि किसी ने सरकार के ख़िलाफ़ हिंसा की हो या हिंसा के लिए उकसाया हो।

आख़िर हुआ क्या?

अब फिर से आते हैं ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे…’ के नारे पर। क्या किसी के ऐसा कहने से उस समय जेएनयू के प्रांगण में कोई हिंसा फैली? क्या उनके नारे लगाने से कोई जत्था हथियार लेकर भारतीय संसद या राष्ट्रपति भवन या प्रधानमंत्री आवास की तरफ़ निकल पड़ा? क्या उनके इन नारों से सरकार के अस्तित्व पर ख़तरा मँडराने लगा?
हम सब जानते हैं कि ऐसा कुछ नहीं हुआ। इसलिए सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की रोशनी में हम उन नारों को जाँचें तो उनसे राजद्रोह का कोई मामला क़तई नहीं बनता। जब मामला ही नहीं बनता तो आप किसी को किस आधार पर जेल भेजेंगे?
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