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अनुच्छेद 370 हटाने से क्या ख़त्म हो जाएगा आतंकवाद?

अब्दुल्ला और मुफ़्ती परिवार भारत और कश्मीर के बीच पुल का काम करते थे। लेकिन अनुच्छेद 370 पर सरकार के फ़ैसले ने उस पुल को ख़त्म कर दिया। सरकार की तरफ़ से इन लोगों को अलगाववादियों के खेमों में ठेल दिया गया। राजनीतिक स्तर पर एक शून्य पैदा हो गया है। अब भारत की बात कश्मीर में कौन करेगा?
आशुतोष

अनुच्छेद 370 को ख़त्म करने और जम्मू-कश्मीर के दो टुकड़े करने पर कुछ लोग ख़ुश हैं। वे विजयी भाव में हैं। उन्हें लगता है कि कश्मीर भारत के माथे पर एक कलंक था जिसे देश 72 साल से ढो रहा था। उनका ग़ुस्सा जायज़ हो सकता है। उनकी दलीलें सही हो सकती हैं। लेकिन जो रास्ता चुना गया है क्या वह रास्ता देशहित में है? बीजेपी सरकार ने जो क़दम उठाये हैं क्या उसके दूरगामी परिणाम नहीं होंगे? कश्मीर का सवाल देश की अस्मिता से जुड़ा है। उसकी राष्ट्रीय पहचान का सवाल है। यह सवाल है देश के लोकतांत्रिक ढाँचे का। सवाल है कि देश में संघीय ढाँचा कैसे चलेगा; विरोध की आवाज़ को कैसे और किस तरह से मैनेज किया जायेगा? क्या विरोध को ज़बर्दस्ती दबाना एकमात्र विकल्प है? और क्या जम्मू-कश्मीर के दो हिस्से करने से कश्मीर समस्या का समाधान हो जायेगा? क्या कश्मीर में आतंकवाद ख़त्म हो जायेगा? क्या आतंकवादी हिंसा पूरी तरह से दब जायेगी?

वीडियो: अनुच्छेद 370 पर विशेष

हक़ीक़त तो यह है कि जो आज ख़ुश हैं वे इस बात को समझना नहीं चाहते कि ज़बर्दस्ती किसी भी समस्या का हल नहीं हो सकती। ख़ौफ़ और सेना का डर विरोध को कुछ समय के लिये दबा तो सकता है, वह नाराज़गी को हमेशा के लिये ख़त्म नहीं कर सकता। इससे विरोध पर पर्दा तो पड़ सकता है पर विरोध, हार कर हथियार डाल देगा, जो यह सोचते हैं वे ग़लतफ़हमी का शिकार हैं।

इतिहास गवाह है कि साम्यवादी मुल्क़ों ने अपनी छोटी-छोटी राष्ट्रीयताओं को बंदूक़ के ज़ोर पर ख़ामोश तो कर दिया पर जैसे ही राजसत्ता कमज़ोर हुई आग फिर भभक उठी और मौक़ा मिलते ही उसने अपनी आज़ादी का एलान कर दिया। सोवियत संघ ने ज़बर्दस्ती लैटविया, एस्टोनिया ओर लिथुआनिया को अपने में मिलाया था। उन दिनों लेनिन और स्टालिन की अगुवाई में साम्यवाद का परचम लहरा रहा था। उसकी असीम ताक़त के सामने तमाम देश और राष्ट्रीयताओं ने सरेंडर कर दिया था। 1980 के दशक में साम्यवाद कमज़ोर पड़ने लगा। मिखाइल गोर्बाचेव ने संभालने की कोशिश की। ग्लासनोस्त और पेरेस्त्रोइका के ज़रिये सुधारने का प्रयास किया। साम्यवाद के डर से जो राष्ट्रीयतायें चुप पड़ी थीं उन्होंने अंगड़ाई लेनी शुरू कर दी। फिर एक दिन उन्होंने अपनी आज़ादी का एलान कर दिया। गिरिजाघरों में घंटियाँ बज़ने लगीं और लैटविया, एस्टोनिया और लिथुआनिया स्वतंत्र देश हो गये। वे अकेले नहीं दर्जन भर से ज़्यादा देश बन गये। सोवियत संघ नाम का देश दुनिया के नक़्शे से ही ग़ायब हो गया। क्या हम इतिहास से सबक़ लेने को तैयार नहीं हैं?

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क्या ताक़त हर समस्या का समाधान है?

यहाँ सवाल कश्मीर का अकेले नहीं है। सवाल उस विचार का है जिसे लगता है कि अभी उसके पास ताक़त है। शक्ति है। वह सबको ठीक कर सकती है। विरोध की आवाज़ को कुचल सकती है और जिसे रहना है उसे उसकी ही भाषा बोलनी होगी। जो नहीं बोलेगा उसके लिए मुश्किल होगी। कश्मीर में क्या किया गया? पिछले बीस दिनों से रहस्य और अनिश्चितता का माहौल बनाया गया। सुरक्षा बलों की ज़बर्दस्त खेप वहाँ भेजी गयी। जब सवाल पूछा गया तो कोई जवाब नहीं दिया गया। अमरनाथ यात्रा को कैंसिल कर दिया गया। विदेशी और बाहरी पर्यटकों को फ़ौरन कश्मीर छोड़ने का आदेश दिया गया। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने ख़ुद जाकर सुरक्षा-व्यवस्था का जायजा लिया। पूरी घाटी में पैनिक फैल गया। अफ़वाहों का बाज़ार गर्म हो गया। ये अटकलें लगायी गयीं कि अनुच्छेद 370 को हटाया जा रहा है या फिर 35ए को ख़त्म किया जा रहा है तब राज्यपाल मलिक ने इसे अफ़वाह बता कर ख़ारिज करने की कोशिश की। मीडिया में ख़बर छपवायी गयी कि कोई बड़ा आतंकवादी हमला हो सकता है।

अंत में हुआ क्या? अनुच्छेद 370 को ख़त्म करने का एलान हुआ और कश्मीर को दो हिस्सों में बाँट दिया गया। राज्य का दर्जा ख़त्म कर केंद्र शासित प्रदेश कर दिया गया। क्या लोकतंत्र में बिना जनता को सच बताये इतना बड़ा फ़ैसला किया जाना चाहिए?

क्या यह करने के पहले देश को नहीं बताना चाहिये? क्या कश्मीर की जनता से राय-मशविरा नहीं किया जाना चाहिये? क्या यह तमाम लोकतांत्रिक मूल्यों का उल्लंघन नहीं है? यहाँ यह भी सवाल है कि कश्मीर की समस्या क्या सिर्फ़ क़ानून और व्यवस्था की समस्या है? क्या सेना के बल पर मोदी सरकार कश्मीर के ग़ुस्से को शांत कर पाएगी? टीवी चैनलों पर आजकल ढेरों सेना के रिटायर्ड अफ़सर बैठते हैं जो बातें कम करते हैं, चीख़ते ज़्यादा हैं। जो यह मानते हैं कि सैनिक समाधान कश्मीर समस्या का अकेला समाधान है। ऐसा लगता है कि भारत सरकार उनकी राय से सहमत है? और उसने तय कर लिया है कि फ़ौजी रास्ता ही सबसे उचित रास्ता है। अगर ऐसा है तो यह देश के लिये ज़्यादा बड़ा संकट है।

भारत के लोकतंत्र के मायने

भारत ने लोकतंत्र होना इसलिए चुना कि क्योंकि वह सबको साथ लेकर चलने में यक़ीन करती थी। हर समस्या को आपसी बातचीत से सुलझाना चाहती थी। विरोध की आवाज़ को सम्मान देना चाहती थी। जहाँ बहुमत और अल्पमत, दोनों बिना डरे और बिना संकोच अपनी बात रख सके। गाँधी और नेहरू यह जानते थे कि लोकतंत्र में बहुमत का पलड़ा हमेशा भारी रहेगा। ऐसे में अल्पमत को सुरक्षा देने की ज़िम्मेदारी बहुमत पर डाली गयी। भारत के साथ ही पाकिस्तान भी एक मुल्क़ बना। एक देश के तौर पर उसने धर्म को अपना मार्गदर्शक चुना। फ़ौजी अफ़सरों के हाथ देश की बागडोर सौंप दी। लिहाज़ा पाकिस्तान में कभी भी लोकतंत्र पनप नहीं सका। चंद मुट्ठी भर लोगों की सोच ने पूरे मुल्क़ को तबाह कर दिया। जहाँ विरोध की आवाज़ को फ़ौजी जूतों तले कुचलने का चलन बन गया। प्रधानमंत्री के पद से हटने के बाद नेता या तो जेल की सलाखों के पीछे पाये जाते हैं या फिर उसे मुल्क़ छोड़ना पड़ता है। एक प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो को तो फाँसी तक पर लटका दिया गया। क्या देश उस दिशा में बढ़ रहा है?

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विश्वास जीतने की ज़रूरत

कश्मीर की समस्या एक राजनीतिक समस्या है। वह डंडे और बंदूक़ से नहीं सुलझेगी। कश्मीर के लोगों में भारत के प्रति गहरा अविश्वास है, उसे समझने की ज़रूरत थी। उसका निदान खोजने की ज़रूरत थी। वह रास्ता निकालने की ज़रूरत थी जिससे उनका भरोसा फिर भारत सरकार में लौटे। किया गया इसके उलट। पिछले दिनों बड़े ही योजनाबद्ध तरीक़े से भारत के प्रति आस्था रखने वाली राजनीतिक शक्तियों को कमज़ोर किया गया, उन्हें डिसक्रेडिट किया गया। फारुक अब्दुल्ला की नेशनल कांफ़्रेंस हो या फिर महबूबा मुफ़्ती की पीडीपी, इन पार्टियों ने हमेशा भारत सरकार और भारतीय संविधान में आस्था जताई है। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इन्हें ‘शोपीस’ कि तरह पेश किया गया है। यह कहा गया कि ये कश्मीर के लोगों के असली नुमाइंदें हैं जो हिंसा कर रहे हैं, वे पाकिस्तान के इशारे पर कर रहे हैं। ऐसे लोगों की संख्या मुट्ठी भर है।

भारत-कश्मीर के बीच का पुल ख़त्म

अब्दुल्ला और मुफ़्ती परिवार भारत और कश्मीर के बीच पुल का काम करते थे। लेकिन सरकार के इस फ़ैसले ने उस पुल को ख़त्म कर दिया। सरकार की तरफ़ से इन लोगों को अलगाववादियों के खेमों में ठेल दिया गया। अब उनमें, हुर्रियत और आतंकवादियों में कोई फ़र्क़ नहीं रह गया है। राजनीतिक स्तर पर एक शून्य पैदा हो गया है। अब भारत की बात कश्मीर में कौन करेगा? बीजेपी वहाँ है नहीं। कांग्रेस ख़त्म हो चुकी है। इस शून्य को कौन भरेगा? यह ख़ालीपन कश्मीर के लोगों को भारत की मुख्यधारा से और दूर करेगा। नये क़िस्म के आंतकवाद को जन्म देगा।

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