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प्रोपेगैंडा सिनेमा की राजनीति का एक और मोहरा है कंगना की "इमरजेंसी"!

बेहतर होगा कि कांग्रेस यह सवाल उठाये कि इमरजेंसी के दौरान किस कथित सांस्कृतिक संगठन के मुखिया ने इंदिरा गांधी को चिट्ठी लिख कर इमरजेंसी का समर्थन करते हुए अपने संगठन पर लगी पाबंदी हटाने का अनुरोध किया था और इस बारे में आचार्य विनोबा भावे से भी अपने प्रभाव का इस्तेमाल करने की गुजारिश की थी।
अमिताभ

एक ऐसे समय में, जब भारत की राजनीति में भारतीय संविधान सरकार और विपक्ष की खींचतान का एक केंद्रीय मुद्दा बना हुआ है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार और सत्तारूढ़ बीजेपी लंबे अरसे से संविधान और लोकतंत्र पर हमले के तीखे आरोप झेल रही हैं। हाल ही में हुए लोकसभा चुनावों में कांग्रेस नेता राहुल गांधी और समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव ने  संविधान बचाने को प्रमुख चुनावी मुद्दा बनाकर बीजेपी के चार सौ पार वाले नारे की न सिर्फ हवा निकाल दी, बल्कि सबसे ज्यादा लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में बीजेपी की सरकार रहते हुए बीजेपी को धूल चटा दी,  संविधान के प्रावधानों का सहारा लेकर लगाये गये आपातकाल और उस दौरान नागरिकों के मूल अधिकारों के क्रूरतापूर्ण दमन पर अभिनेत्री और बीजेपी सांसद कंगना रनौत की फिल्म “इमरजेंसी” विवादों की वजह से सेंसर बोर्ड में अटक गई है। फ़िल्म को 6 सितंबर को सिनेमाघरों में रिलीज़ होना था लेकिन उसे यह आलेख लिखे जाने तक सेंसर बोर्ड की मंज़ूरी नहीं मिली है। सिख संगठनों ने फिल्म में सिख समुदाय के चित्रण पर एतराज़ जताया है। कांग्रेस के नेताओं ने भी फिल्म पर आपत्ति जताई है। फिल्म की कहानी भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लगाये गये आपातकाल और उससे जुड़ी घटनाओं और बाद की परिस्थितियों पर आधारित है। कंगना रनौत इस फ़िल्म की निर्देशक होने के साथ-साथ इसमें इंदिरा गांधी का केंद्रीय किरदार भी निभा रही हैं। 

कंगना रनौत की फिल्म “इमरजेंसी” में आपातकाल से पहले की राजनीतिक परिस्थितियों, आपातकाल के दौरान हालात और उसके आगे की घटनाएँ, उस दौर में पनपे आतंकवाद की झलक है। फिल्म आजाद भारत की राजनीति के एक ऐसे अध्याय की कहानी कहती है जिसे नागरिक अधिकारों के क्रूरतापूर्ण दमन के लिए याद किया जाता है।  इमरजेंसी यानी आपातकाल आजाद भारत की राजनीति का एक बहुत काला अध्याय रहा है जिसके लिए इंदिरा गांधी की तो अपने समय में आलोचना हुई ही, कांग्रेस पार्टी को आज तक अपने दामन पर लगे उस दाग से छुटकारा पाने में पसीने छूट जाते हैं। यह बात अलग है कि इंदिरा गांधी के लगाये आपातकाल के बाद जब चुनाव हुए और कांग्रेस पार्टी बुरी तरह हार कर सत्ता से बाहर हो गई तो इंदिरा गांधी ने देश की जनता से इसके लिए माफी माँगी और जनता ने कुछ समय बाद ही दोबारा हुए चुनावों में फिर से कांग्रेस को जिताकर फिर से इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बिठा दिया था। 

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हालांकि इमरजेंसी को लेकर कांग्रेस के तमाम बड़े नेता समय-समय पर खेद जताते रहे हैं लेकिन बीजेपी ने इसे हमेशा कांग्रेस के खिलाफ एक ज़ोरदार हथियार की तरह इस्तेमाल किया है। लोकसभा चुनावों के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तीसरी पारी में आपातकाल के उनचासवें साल में लोकसभा स्पीकर ओम बिड़ला के माध्यम से बाकायदा लोकसभा में एक निंदा प्रस्ताव लाया गया। सरकार ने हर साल 25 जून को संविधान हत्या दिवस के रूप में मनाने का ऐलान भी किया है।

इस सारी पृष्ठभूमि में कंगना रनौत की फिल्म के जरिये सरकार और विपक्ष, या यूँ कहें कि कांग्रेस और बीजेपी के बीच एक नये सिरे से तनातनी का मोर्चा खुलने की पूरी-पूरी गुंजाइश है। चूंकि फिल्म अभी रिलीज़ नहीं हुई है इसलिए कहानी से लेकर प्रस्तुतिकरण के बारे में समग्रता में कुछ भी कहना सही नहीं होगा लेकिन तक़रीबन तीन मिनट के ट्रेलर में मिली झलक से यह अंदाज ज़रूर लग जाता है कि फिल्म में विषय से लेकर प्रस्तुति तक  झुकाव किस तरह का रहने वाला है। ट्रेलर में इंदिरा गांधी बनी कंगना रनौत कहती हैं- इंडिया इज़ इंदिरा एंड इंदिरा इज़ इंडिया। भारतीय राजनीति के उस दौर की जानकारी रखने वाले हर व्यक्ति को यह मालूम है कि वाक्य इंदिरा गांधी ने नहीं, बल्कि कांग्रेस पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष देव कांत बरुआ ने इंदिरा गांधी की ख़ुशामद में कहा था जिसके लिए आज तक कांग्रेस पार्टी को आलोचना झेलनी पड़ती है। यह बात दीगर है कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उनके चापलूसों की तरफ़ से उनके लिए भी इसी सूत्रवाक्य को नाम बदल कर इस्तेमाल किया गया है। 

मुद्दे की बात यह है कि कंगना रनौत को इमरजेंसी पर फिल्म बनाते समय इसकी सही जानकारी होनी चाहिए थी कि किसने क्या कहा। जो बात इंदिरा गांधी ने कही ही नहीं, उसे इंदिरा गांधी के मुँह से कहलवाना सिर्फ एक तथ्यात्मक भूल नहीं मानी जा सकती। यहाँ फिल्मकार कंगना रनौत की नीयत पर भी सवाल उठना लाज़िमी है। कंगना रनौत बीजेपी की सांसद बनने से पहले भी विपक्ष, ख़ास तौर पर कांग्रेस और राहुल गांधी पर व्यंग्य करने के लिए, उनकी मुखर आलोचना करने के लिए सुर्ख़ियाँ बटोरती रही हैं। कंगना रनौत 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बनी सरकार से लेकर मौजूदा सरकार की घनघोर प्रशंसक ही नहीं हैं बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस क़दर अंधभक्त हैं कि यह खुलेआम कह चुकी हैं कि देश को आजादी 2014 में मिली थी।
ऐसी अतिरंजित राय रखने वाले कलाकार की फिल्म को प्रोपेगैंडा सिनेमा का हिस्सा ही माना जाएगा। कई इतिहासकार और राजनीतिक विश्लेषक कंगना की इस फिल्म को इतिहास के तथ्यों का विकृतिकरण मान रहे हैं। उनका कहना है कि फिल्म में इंदिरा गांधी की छवि को खराब करने का प्रयास किया गया है, जो सत्ताधारी पार्टी के राजनीतिक एजेंडा को आगे बढ़ाता है।
पिछले दस साल में, यानी नरेंद्र मोदी के पहली बार प्रधानमंत्री बनने से लेकर अब तक के काल खंड में हिंदी सिनेमा के भीतर प्रोपेगैंडा सिनेमा का अभूतपूर्व विस्तार हुआ है। नरेंद्र मोदी के शासनकाल में, सिनेमा का इस्तेमाल बीजेपी-आरएसएस-हिंदुत्ववाद -राष्ट्रवाद की विचारधारा से जुड़े राजनीतिक एजेंडा को बढ़ावा देने और विपक्ष की विचारधारा पर हमला करने, अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने, उनकी नकारात्मक छवि पेश करने के लिए खुल कर किया गया है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर बनी फिल्म “द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर”, आपातकाल पर ही बनी एक और फिल्म “इंदु सरकार”, कश्मीरी हिंदुओं के साथ हुई हिंसा पर बनी फिल्म “कश्मीर फाइल्स”, धर्मांतरण के मुद्दे पर बनी “द केरल स्टोरी”,  ”उरी: द सर्जिकल स्ट्राइक” कुछ ऐसी फिल्में हैं जिनका मक़सद स्पष्ट रूप से मनोरंजन के बजाय एक ख़ास तरह की राजनीतिक सोच का प्रचार-प्रसार था। “उरी: द सर्जिकल स्ट्राइक” के संवाद “ हाउ इज़ द जोश” को तो खुद प्रधानमंत्री ने दोहरा कर और अधिक लोकप्रिय बनाया। “कश्मीर फाइल्स” के प्रचार में प्रधानमंत्री से लेकर बीजेपी के तमाम नेता, प्रवक्ता, उनकी राज्य सरकारों के मंत्रियों-मुख्यमंत्रियों ने सक्रिय भूमिका निभाई, लोगों को छुट्टी लेकर फिल्म देखने के लिए प्रेरित किया गया, सामूहिक शो आयोजित किये गये। फिल्म का एक असर सीधे तौर पर मुसलमानों के खिलाफ क्रोध के उभार में देखा गया। “द केरल स्टोरी” भी मुसलमानों के खिलाफ भावनाएँ भड़काने, उन पर संदेह बढ़ाने के एक उपकरण की तरह देखी गई।
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मुसलमानों के खिलाफ माहौल बनाने के लिए तो प्रोपेगैंडा सिनेमा का इस्तेमाल पिछले दस साल में बहुत तेजी से बढ़ा है। “72  हूरें “, “हमारे 12”, जेएनयू, गोधरा जैसी तमाम फिल्में बनी हैं और बन रही हैं। हालांकि इनमें से बहुत कम को कमाई के मामले में सफलता मिली है। नरेंद्र मोदी, अटल बिहारी वाजपेयी और बाल ठाकरे पर बनी फिल्में भी धराशायी हो चुकी हैं। राष्ट्रवाद के उभार के उद्देश्य से बनाई गई कंगना रनौत की फिल्म मणिकर्णिका, जिसमें उन्होंने झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की भूमिका निभाई थी, नाकाम रही। राजकुमार संतोषी ने तो महात्मा गांधी और उनके हत्यारे नाथूराम गोडसे के बीच संवाद ही करवा दिया। लेकिन यह जनता को पसंद नहीं आया। 

यानी विपक्ष के विरोध और सरकार के समर्थन में बनाया गया प्रोपेगैंडा सिनेमा किसी के निजी राजनीतिक लाभ में तो शायद कभी कुछ हद तक सहायक हो जाए लेकिन उसे व्यावसायिक सफलता मिलने और जनता के बीच सकारात्मक प्रतिक्रिया हासिल होने की कोई गारंटी नहीं हो सकती। यह बात कंगना रनौत की फिल्म इमरजेंसी पर भी लागू होती है, वह चाहे जब रिलीज़ हो। अभिव्यक्ति की आजादी और संविधान की रक्षा की बात करने वाली कांग्रेस को तो कम से कम फिल्म का विरोध नहीं करना चाहिए। 

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बेहतर होगा कि कांग्रेस यह सवाल उठाये कि इमरजेंसी के दौरान किस कथित सांस्कृतिक संगठन के मुखिया ने इंदिरा गांधी को चिट्ठी लिख कर इमरजेंसी का समर्थन करते हुए अपने संगठन पर लगी पाबंदी हटाने का अनुरोध किया था और इस बारे में आचार्य विनोबा भावे से भी अपने प्रभाव का इस्तेमाल करने की गुजारिश की थी।

यह भी पेशकश की गई थी कि जेलों में बंद उस संगठन के कार्यकर्ताओं को अगर रिहा किया जाता है तो वे सरकार विरोधी किसी भी गतिविधि में हिस्सा नहीं लेंगे और इंदिरा गांधी के 20 सूत्रीय कार्यक्रम तथा संजय गांधी के पांच सूत्रीय कार्यक्रम का सक्रिय रूप से समर्थन करेंगे। यह सवाल भी उठाना चाहिए कि बड़ी संख्या में माफी मांग कर जेल से छूटने वाले वे लोग कौन थे और किस संगठन या राजनीतिक पार्टी से जुडे़ थे?

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