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भारत में बेरोजगारी एक महामारी बन गई है!

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री और विचारक रुडोल्फ ज्ञान डी मैलो का मानना था कि, “बेरोजगारी वह परिस्थिति है जिसमें एक व्यक्ति इच्छा के बावजूद वैतनिक व्यवसाय की स्थिति में नहीं होता है”। अपनी इसी ‘इच्छा’ की पूर्ति के लिए जब बीते सोमवार को गुजरात के 1800 युवाओं का हुजूम 10 नौकरियां भरने पहुँचा, तो शासन के लिए ‘अव्यवस्था’ और सरकार के लिए शर्म ने जन्म ले लिया। गुजरात की एक निजी इंजीनियरिंग कंपनी ने 10 नौकरियों के लिए एक विज्ञापन निकाला था। इसके लिए कंपनी ने अंकलेश्वर के लॉर्ड्स प्लाजा होटल में खुले साक्षात्कार के लिए बुलाया। इन 10 नौकरियों के लिए होटल के बाहर 1800 लोगों की भीड़ जमा हो गई। लोगों ने होटल के अंदर जाने के लिए धक्का-मुक्की शुरू कर दी। भीड़ इतनी घनी थी कि उसने स्टील की रेलिंग को इतनी जोर से धक्का दिया कि वह ढह गई और कई लोग उसके साथ नीचे गिर गए। अच्छा यह हुआ कोई हताहत नहीं हुआ। लेकिन इस बात से कि कोई मरा नहीं यह घटना छोटी नहीं हो जाती। यह घटना इस बात का प्रतीक है कि 140 करोड़ आबादी वाला भारत एक आपदा के मुहाने पर खड़ा है। लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी का कहना है कि भारत में "बेरोजगारी की बीमारी" महामारी का रूप ले चुकी है और भाजपा शासित राज्य "इस बीमारी का केंद्र" बन गए हैं। बेरोजगारी निश्चित रूप से एक महामारी ही है जिसे रोकने के लिए आवश्यक ‘वैक्सीन’ के निर्माण में मोदी सरकार अब तक असफल रही है। 

भारत में आम और मान्य परिभाषा के अनुसार, यदि कोई 16 वर्ष की आयु का व्यक्ति, जो पिछले 4 सप्ताह से फुल-टाइम काम करने के लिए उपलब्ध हो, इसके बावजूद उसे काम न मिल पाए तो वह बेरोजगार कहलाएगा। अर्थशास्त्रियों द्वारा रोजगार के लिए तीन तत्व बताए गए हैं- पहला, कार्य करने की क्षमता; दूसरा, कार्य करने की इच्छा; और तीसरा काम खोजने का प्रयत्न। इन तीनों विशेषताओं को समेटे भारत का युवा यहाँ से वहाँ भटक रहा है लेकिन रोजगार है कि मिलने का नाम ही नहीं ले रहा है।

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मानव विकास संस्थान और अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) द्वारा संयुक्त रूप से तैयार की गई भारत रोजगार रिपोर्ट 2024 कहती है कि भले ही भारत की कार्यशील आबादी 2011 में 61 प्रतिशत से बढ़कर 2022 में 64 प्रतिशत हो लेकिन एक कड़वा सच यह भी है कि इसी अवधि में आर्थिक गतिविधियों में शामिल युवाओं का प्रतिशत 2022 में घटकर 37 प्रतिशत ही रह गया है।

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) के नवीनतम आँकड़े ऐतिहासिक बेरोजगारी के आँकड़े प्रदर्शित कर रहे हैं। इसके अनुसार, भारत में बेरोजगारी दर जून 2024 में 9.2% रही, जो मई 2024 में 7% से काफी अधिक है। 2014 में जब नरेंद्र मोदी सरकार ने भारत की सत्ता संभाली तब उन्हें 5.44% बेरोजगारी वाला भारत मिला था। मोदी जी की नीतियों ने इसी भारत को जून 2024 में 9.2% बेरोजगारी वाला भारत बनाकर रख दिया। पिछले दस सालों में बेरोजगारी दर लगभग दो गुनी हो चुकी है, इसके बावजूद पीएम मोदी ऑस्ट्रिया जाकर भारत की पिछली सरकारों को कोसने में लगे हुए हैं। 

लगातार बढ़ती बेरोजगारी, लैंगिक भेदभाव नहीं देख रही है। आँकड़े बताते हैं कि जून 2024 में महिला बेरोजगारी राष्ट्रीय औसत से अधिक बढ़कर 18.5% तक पहुँच गई। यह पिछले वर्ष की समान अवधि के 15.1% से अधिक है। वहीं, पुरुष बेरोज़गारी 7.8% रही, जो जून 2023 में 7.7% से थोड़ी अधिक है।
पीएम मोदी देश से बाहर जाकर पूर्ववर्ती भारतीय सरकारों को कोसने का काम भले ही कर रहे हों, लेकिन पूरी दुनिया यह मानती है कि भारत ने लगातार पिछले 75 सालों में आर्थिक और सामाजिक ढांचे को बढ़ाया है।
बेरोजगारी को नियंत्रित करने के लिए प्रयासों की शुरुआत चौथी पंचवर्षीय योजना से शुरू हो गई थी। पहला अहम कदम था जब 1972-73 में प्रधानमंत्री नकदी कार्यक्रम लाया गया। इसके बाद 1977-78 में ग्रामीण क्षेत्रों के लिए एक और प्रयास ‘काम के बदले अनाज कार्यक्रम’ चलाया गया ताकि बेरोजगारी और भुखमरी को एक साथ साधा जा सके। 1980-81 आते-आते इसी योजना को ‘राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम’ में परिवर्तित कर दिया गया। इसके बाद एकीकृत ग्राम विकास कार्यक्रम (1978-79), ग्रामीण श्रम रोजगार गारंटी कार्यक्रम (1983), जवाहर रोजगार योजना (1989) और अंत में 2006 में पूरे देश में लागू की गई मनरेगा योजना ने ग्रामीण बेरोजगारी को हमेशा के लिए सकारात्मक रूप से बदल दिया। ये समग्र प्रयास ही थे कि भारत 2007 का वैश्विक आर्थिक संकट बिना किसी बिखराव के आसानी से सह गया, जबकि पूरा विश्व और उसकी तमाम अर्थव्यवस्थाएं इस दौरान उलटी खड़ी चुकी थीं। 
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बेरोजगारी किसी अभिशाप से कम नहीं है। यह जीवन की गुणवत्ता को कम करती है सामाजिक संबंधों में विघटन और रिश्तों में तनाव पैदा करती है। बेरोजगारी में जीने को मजबूर करना मौत की ओर धकेलने जैसा ही है। साहित्यकार से लेकर अनगिनत नीति निर्माता और कल्याणकारी अर्थशास्त्री इसके दुष्प्रभावों को अपने अपने तरीकों से व्यक्त करते रहे हैं। महान साहित्यकार शेक्सपियर तो बेरोजगारी को सीधे मौत से जोड़ देते हैं। वो लिखते हैं कि ‘जब आप मेरे जीने के साधन’ अर्थात रोजगार को छीन लेते हैं तो असल में ‘आप मेरी जान ले लेते हैं’। प्रसिद्ध अमेरिकी कॉमेडियन स्लैपी व्हाइट अपने अंदाज में कहते हैं कि ‘बेरोजगारी की समस्या यह है कि जैसे ही आप सुबह उठते हैं, आप नौकरी पर होते हैं’। हास्य में कही गई इस बात का अर्थ ही है कि बेरोजगार सुबह से शाम तक काम करता है लेकिन उसका काम है रोजगार खोजना। यह बहुत ही डार्क व्यंग्य है। लेकिन सच है। और यही बात जब बिल क्लिंटन जैसे किसी नीति निर्माता से पूछी जाती है तो उसका जवाब होता है कि “एक अच्छी नौकरी से बेहतर कोई सोशल प्रोग्राम नहीं है”। लेकिन भारत की विडंबना यह है कि करोड़ों लोगों ने मिलकर, जिसमें बेरोजगार भी हैं, एक ऐसे व्यक्ति को लगातार तीसरी बार सरकर बनाने के लिए चुना जिसके ‘विजन’ में युवा बेरोजगारी ‘पकोड़े तलने’ से बेहतर हो सकती है। 

सरकार अपनी आर्थिक नाकामी और बढ़ती असमानता के सरकारी पोषण को मानने से इंकार कर रही है लेकिन सच्चाई यही है कि भारतीय अर्थव्यवस्था तनाव के दौर से गुजर रही है जिसका परिणाम बेरोजगारी के रूप में सामने खड़ा है। जैसा कि अर्थशास्त्री लायनील एडी कहते थे कि असल में “बेरोजगारी आर्थिक ढांचे के विघटन का परिणाम होती है”। 

सरकार और नीति निर्माताओं को यह समझना चाहिए कि बेरोजगारी के परिणाम सिर्फ आर्थिक नहीं होते हैं। इसके नकारात्मक परिणामों का विस्तार सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर भी होता है। वास्तव में बेरोजगारी के कारण हुए सामाजिक विघटन को मापना बहुत कठिन है।
सामाजिक विघटन की घटना सामाजिक ढांचे के टूटने से जुड़ी हुई है। जिसके कारण सामाजिक नियंत्रण के पुराने ढंग काम नहीं आते, ऐसे और सामाजिक संबंधों का टूटना शुरू हो जाता है, रिश्ते लुप्त होने लगते हैं। समाजशास्त्रियों के अनुसार यह सब बेरोजगारों के साथ घटित होता है। 20 वीं सदी की सबसे प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता जोना कॉलकोर्ड का विचार था कि- बेरोजगारों की गतिविधियां इतनी सीमित हो जाती हैं और उनके विचार इतने कटु हो जाते हैं कि वो काम करने की अपनी इच्छा खो बैठते हैं।
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बेरोजगारी का मानसिक स्तर पर पड़ने वाला यह प्रभाव उन्हें अपनी जान लेने के लिए भी बाध्य कर सकता है। भारत में बेरोजगारी पाशविक रूप धारण कर चुकी है और बेरोजगारी के साथ कदम मिलाकर चल रही महंगाई ने एक एक करके देश के युवाओं को निगलना शुरू कर दिया है। चाहे बेरोजगारी हो या खर्च से बहुत कम आय एक ‘आर्थिक स्ट्रेस’ पैदा करती है जिससे निजात पाना आसान नहीं है। NCRB का आंकड़ा कहता है कि 2022 में हुई कुल आत्महत्याओं में से 26.4% दिहाड़ी मजदूरों के द्वारा की गई थीं। अर्थशास्त्री नाबा गोपाल दास बेरोजगारी को ‘अनैच्छिक निष्क्रियता’ कहकर संबोधित करते हैं। यह अनैच्छिक निष्क्रियता भी आत्महत्या को प्रेरित कर सकती है। 2023 में भारत के गृहमंत्रालय ने माना था कि 2020-22 के बीच देश भर में 10,259 लोगों ने बेरोजगारी की वजह से आत्महत्या की है। अकेले जम्मू एवं कश्मीर राज्य में, जहां समृद्धि का वादा देकर, स्वप्न दिखाकर धारा 370 हटाई गई वहाँ भी इसी अवधि में 78 युवाओं की आत्महत्या के पीछे का कारण बेरोजगारी ही था। 

बेरोजगारी एक आर्थिक और सामाजिक समस्या है जिसे बेहतर नीति निर्माण से हराया जा सकता है। बशर्ते देश का नेतृत्व यह स्वीकार करने को तैयार हो कि बेरोजगारी समस्या से बढ़कर एक आपदा का रूप ले चुकी है। नेतृत्व यह स्वीकार करे कि पिछले दस सालों के दौरान उसने बेरोजगारी के खिलाफ कोई निर्णायक कदम नहीं उठाए साथ ही दस सालों में दोगुनी हो चुकी बेरोजगारी दर की भी जिम्मेदारी ले। विपक्ष के साथ बैठे, संसद में खुलकर चर्चा होने दे और विविध एवं विपरीत विचारधारा वाले अर्थशास्त्रियों से खुलकर समाधान की मांग करे। मोदी सरकार को यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि मूर्खतापूर्ण विमुद्रीकरण और जीएसटी का घटिया और अपरिपक्व कार्यान्वयन देश की अर्थव्यवस्था और यहाँ के युवाओं के भविष्य को ले डूबा है। स्वीकारोक्ति के बाद ही समाधान निकलेगा, खोखले गौरव और छद्म अभिमान ने नहीं।   

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कुणाल पाठक
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