हालात तकरीबन सभी जगह खराब हैं। महंगाई इस समय पूरी दुनिया में ही गरीबों की परेशानी और अर्थशास्त्रियों की चिंताएं बढ़ा रही है। गरीब, विकासशील, नाकाम, विकसित और अतिविकसित किसी भी तरह के देश इससे बच नहीं पाए हैं। भारत में महंगाई का हाल बताने वाली मुद्रास्फीति की दर 6.7 फीसदी है और रिजर्व बैंक से लेकर तमाम अर्थशास्त्री चिंता जता चुके हैं। मुश्किलें बढ़ने वाली हैं इसकी भविष्यवाणियां भी शुरू हो गई हैं।
अब जरा इसकी तुलना कुछ अन्य देशों से करें। तुर्की और अर्जेंटीन इस समय दुनिया के दो ऐसे देश हैं जहां मुद्रास्फीति की दर 50 फीसदी के आंकड़ें को पार कर चुकी है। दूर न जाएं तो हमारे पड़ोसी श्रीलंका में यह आंकड़ा 15 फीसदी से भी ज्यादा हो चुका है।
पाकिस्तान में भी यह आंकड़ा 12 फीसदी को पार कर चुका है। दुनिया की सबसे विकसित अर्थव्यवस्था अमेरिका में मुद्रास्फीति कईं दशक बाद आठ फीसदी को छूती दिख रही है।
भारत, पाकिस्तान या श्रीलंका जैसे देशों के लिए इतनी मुद्रास्फीति कोई नई बात नहीं लेकिन अमेरिका के लिए है। वहां एक ऐसी पीढ़ी जवान हो चुकी है जिसने अपने जीवन में इतनी महंगाई कभी देखी ही नहीं। महंगाई के साथ ही ब्याज दरें भी तेजी से बढ़ रही हैं और अर्थशास्त्री कह रहे हैं कि कम ब्याज दरों का जमाना अब बीत चुका है। कम मुद्रास्फीति और कम ब्याज दरों से अमेरिका के गरीबों और मध्य वर्ग के लोगों ने सुविधाजनक जीवन की जो शैली हासिल की थी वह अब उनसे छिनती दिख रही है।
पश्चिम यूरोप का हाल भी तकरीबन अमेरिका जैसा ही है। जापान में मुद्रास्फीति लंबे समय से आधा फीसदी के आस-पास थी अब वह भी एक फीसदी के आंकड़ें को छूती दिख रही है। पहले कोविड महामारी और फिर रूस-यूक्रेन युद्ध ने जो आर्थिक दबाव दिया है उससे दुनिया को कोई देश नहीं बच पाया।
परेशानी सिर्फ इतनी ही नहीं है, परेशानी यह है कि ज्यादातर विशेषज्ञ इस बात पर सहमत हैं कि महंगाई की समस्या अभी और बढ़ने वाली है।
इतिहास में ऐसे कईं दौर आए हैं जब मुद्रास्फीति इससे भी अधिक रही है। यहां तक कि पिछली सदी के उत्तरार्ध में भी। लेकिन दुनिया के बहुत सारे देशों की आबादी के पास इस समस्या से निपटने के ताजा अनुभव फिलहाल नहीं हैं। समस्या यह भी है कि इस बीच दुनिया और अर्थव्यवस्था को चालने के माडल बहुत बदल गए हैं।
कल्याणकारी राज्य का वह दौर अब खत्म होता जा रहा है जब ऐसे मौकों पर सरकारें रोजगार के नए अवसर पैदा करने की कोशिश करती थीं और एक दूसरे स्तर पर यह प्रयास होता था कि चीजों की आपूर्ति बढ़ाई जाए। इन दोनों ही तरह के उपायों का असर दिखाई देने में समय लगता था लेकिन कम या ज्यादा असर होता जरूर था।
अब सरकारें इन दोनों ही तरह की कोशिशें नहीं करतीं। इसके बजाए इस काम को अब वित्तीय हस्क्षेप से किया जाता है। जिसके लिए केंद्रीय बैंक, करेंसी बोर्ड या फेडरल रिजर्व जैसी एजेंसी मुद्रा आपूर्ति को कम करने और ब्याज दरों को बढ़ाने जैसे कदमों का सहारा लेती है। सरकारों की भूमिका अब ज्यादा प्रभावित लोगों को सीधे मदद देने यानी लाभार्थी बनाने जैसे कामों तक सीमित हो चुकी है।
यह माना जाता है कि महंगाई का सबसे ज्यादा और सबसे सीधा असर गरीब वर्गों पर पड़ता है, मध्यवर्ग का नंबर उसके बाद आता है। दुनिया का सबसे बड़ा गरीब वर्ग और सबसे बड़ा मध्य वर्ग भारत में है। यानी भारत में बढ़ने वाली महंगाई या मंदी दुनिया की एक बहुत बड़ी आबादी को सीधे प्रभावित करती है। इसे हमने महामारी के दौर में देखा था जब एक बहुत बड़ी आबादी एक ही झटके में गरीबी की रेखा से नीचे पहुँच गई थी। इसमें ऐसे परिवार भी शामिल थे जो इस सदी के पहले दशक में गरीबी की रेखा से उपर आने में कामयाब रहे थे।
एक और बात को याद रखना जरूरी है। महामारी के कारण पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था डगमगाई थी लेकिन भारत उन देशों में था जिन पर सबसे गहरा असर पड़ा था। यह असर सबसे लंबे समय तक भी चला, शायद आज भी जारी है। रूस और यूक्रेन के युद्ध के बाद महंगाई का जो दौर शुरू हुआ है उसकी आशंकाएं भी महामारी से कम नहीं हैं।
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