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बजटः रोजगार और बाजार दोनों नज़रअंदाज 

पिछले कुछ दिनों में तमाम अर्थशास्त्री बजट से जो उम्मीदें जता रहे थे उन्हें ध्यान से सुनिये। देश को महामारी के बाद के आर्थिक संकट से उबारने के लिए वे दो चीजों पर सबसे ज्यादा ध्यान देने की बात कर रहे थे। एक तो रोजगार के अवसर बढ़ाने के और दूसरा अर्थव्यवस्था में नई मांग पैदा करने के। वित्त मंत्री ने जो बजट पेश किया उसमें दूसरी बात को तो उन्होंने पूरी तरह से ही नकार दिया, लेकिन पहले पर जितनी बात की गई इतना कुछ हुआ नहीं। 

रोजगार के अवसर पैदा करने के दो सीधे तरीके हो सकते थे एक तो पूँजीगत खर्च यानी कैपेक्स को बढ़ाना जिससे कि बहुत सारे इन्फ्रास्ट्रक्चर वगैरह की परियोजनाएं शुरू करके सरकार बड़े पैमाने पर तत्काल लोगों को रोजगार दे सके। दूसरा तरीका था सूक्ष्म, लघु व मध्यम उद्योगों को बढ़ावा देना। 

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बजट भाषण में दावा किया गया कि कैपेक्स में 35 फीसदी की भारी वृद्धि की जा रही है। यह बताया गया कि पिछले साल जो कैपेक्स 5.5 लाख करोड़ रुपये था उसे अब बढ़ाकर 7.5 लाख करोड़ रुपये कर दिया गया है। हालांकि एक लाख करोड़ रुपये की जो रकम पूंजीगत खर्चों के लिए राज्यों के हवाले की जाएगी उसे भी इसी में जोड़ लिया गया है। यह एक तरह से राज्यों को दिया गया उधार है जिसे पूंजीगत खर्च में जोड़ लिया गया है, यह जरूर है कि इसका इस्तेमाल राज्यों की परियोजनाओं में ही होगा। इसके अलावा कुलजमा कैपेक्स में वह धन भी शामिल है जो ग्रीन बांड के जरिये जुटाया जाएगा। इस सबके बावजूद यह सारा खर्च विभिन्न परियोजनाओं में किया जाएगा, लेकिन इससे रोजगार के कितने अवसर पैदा होंगे?

अर्थशास्त्री प्रोफेसर अरुण कुमार इसे लंबे समय से कहते रहे हैं कि आजकल बड़ी सरकारी परियोजनाओं पर जिस तरह से काम होता है उसमें बहुत बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर नहीं पैदा होते। ऐसी परियोजनाओं में अब मानव श्रम बल के बजाए मशीनों का इस्तेमाल लगातार बढ़ रहा है। 

इसके मुकाबले सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों में रोजगार के ज्यादा और स्थाई अवसर पैदा होते हैं। यह क्षेत्र तकरीबन उतने लोगों को ही रोजगार देता है जितने लोग कृषि क्षेत्र में काम कर रहे हैं।

इस तरह के छोटे उद्योगों को इस बार के बजट से काफी उम्मीदें भी थीं। लेकिन इस बार भी उनके हाथ निराशा ही लगी। उनके लिए जो सबसे बड़ी घोषणा की गई वह यह थी कि उनके लिए आपातकालिक कर्ज की गारंटी व्यवस्था को एक साल के लिए बढ़ा दिया गया है। यह व्यवस्था इसलिए शुरू की गई थी कि जो उद्योग महामारी के कारण बंद हो चुके हैं उन्हें फिर से शुरू किया जा सके। लेकिन इस योजना के बाद अभी तक वे सारे उद्योग फिर से पटरी पर नहीं आ सके हैं, इसीलिए यह योजना बढ़ानी भी पड़ रही है। इन उद्योगों के लिए छह हजार करोड़ रुपये की एक और योजना का जिक्र भी बजट में हुआ है जो इन उद्योगों का कामकाज सुधारने के लिए होगी। लेकिन यह कुलजमा रकम पांच साल के लिए है, यानी एक साल में औसतन 200 करोड़ रुपये ही खर्च होंगे। 

छोटे उद्योग काफी निराश हैं कि उनके लिए वास्तव में कुछ नहीं किया गया। लेकिन इससे ज्यादा निराशा उन लोगों को मिलेगी जो ऐसे उद्योगों में काम खोजने के लिए गांव से बड़े शहरों की ओर पलायन करते हैं।

इनमें से बहुत से उद्योग सिर्फ इसलिए नहीं शुरू हो सके कि उनके उत्पाद की मांग बहुत कम हो गई है और कुछ कारखानों को बंद करने के अलावा कोई चारा ही नहीं बचा है। मांग बढ़ाने का यह काम तभी हो सकता है जब लोगों की जेब में किसी तरह अतिरिक्त पैसा पंहुचे। जो गरीब हैं उनकी जेब में भी और जो मध्यवर्ग के लोग हैं उनकी जेब में भी। इन दोनों तरह की कोशिश नहीं हुई। मध्यवर्ग के मामले में तो यह बहुत आसान था। 

आयकर दरों में थोड़ा बदलाव करके, उसके स्लैब को बदल कर यह आसानी से किया जा सकता था। इससे राजस्व में भी बहुत ज्यादा कमी नहीं आती।
उदारीकरण के पिछले अनुभव यही बताते हैं कि कईं बार तो करों की दर कम होने से कुल राजस्व बढ़ा ही है। फिर जो लोग अपना अतिरिक्त धन लेकर बाजार में खरीदारी के लिए जाते हैं वे अप्रत्यक्ष कर का संग्रह ही बढ़ाते हैं। एक चीज और ध्यान में रखनी होगी कि अगर महंगाई बढ़ रही है और आप आयकर का स्लैब नहीं बढ़ा रहे तो इसका अर्थ है कि आप लोगों की क्रयशक्ति को कम कर रहे हैं। यही इस समय हो रहा है।  
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क़मर वहीद नक़वी
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