''भड़काऊ भाषण देने वालों के ख़िलाफ़ कार्रवाई के लिए यह सही वक़्त नहीं है। इस समय पुलिस को लेकर भी ऐसी कोई टिप्पणी करना उचित नहीं होगा जिससे कि उसके मनोबल पर प्रतिकूल असर पड़े।’’
दिल्ली हिंसा के सिलसिले में सरकार के दूसरे सबसे बड़े वकील की ओर से दिल्ली हाईकोर्ट में नसीहत भरे अंदाज़ में किया गया यह अनुरोध जिस जज ने खारिज कर दिया था, उसका रातोरात तबादला कर दिया गया। बाद में सुनवाई करने वाले हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने इस अनुरोध को स्वीकार कर लिया।
इसी दौरान सुप्रीम कोर्ट ने टेलीकॉम कंपनियों से संबंधित एक बड़े मामले में अपने आदेश पर अमल न होने पर सवाल किया था कि क्या इस देश में कोई क़ानून नहीं बचा है? मामले की सुनवाई कर रही बेंच की सदारत करते हुए न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा ने आगबबूला होते हुए कहा था- 'एक सरकारी बाबू सुप्रीम कोर्ट के आदेश को दबा कर बैठ जाता है। पैसे के दम पर सब चलाया जा रहा है। ऐसे में तो सुप्रीम कोर्ट को बंद कर देना चाहिए। देश छोड़कर चले जाने की इच्छा होती है, क्योंकि यह रहने लायक नहीं रहा।’
सरकार पर बेहद कुपित हुए इन्हीं न्यायमूर्ति ने दो दिन बाद ही दिल्ली में आयोजित अंतरराष्ट्रीय न्यायिक सम्मेलन को संबोधित करते हुए विषय से हटकर बिना किसी संदर्भ के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ़ करते हुए उन्हें अत्यंत दूरदर्शी और बहुमुखी प्रतिभा का धनी बताया था। उन्होंने कहा था कि वह विश्वदृष्टि और वैश्विक सोच रखते हुए भी अपने स्थानीय हितों को नहीं भूलते हैं।
ये ख़बरें बताती हैं कि देश की अन्य संवैधानिक संस्थाओं की तरह हमारी न्यायपालिका भी इस समय संक्रमण के दौर से गुज़र रही है। बड़ी तेज़ी से उसका भी क्षरण हो रहा है। सत्ता के साथ उसके रिश्तों में बढ़ती प्रगाढ़ता के चलते न सिर्फ़ उसकी कार्यशैली और फ़ैसलों पर सवाल उठ रहे हैं, बल्कि उसकी हनक भी लगातार कम हो रही है। ऐसी ख़बरों से यह भी समझा जा सकता है कि जजों के सेवानिवृत्त होने के बाद भारी-भरकम वेतन, सरकारी बंगला, गाड़ी, नौकर-चाकर आदि तमाम सुविधाओं से युक्त उनका पुनर्वास कैसे होता है। किसी को किसी न्यायिक आयोग या ट्रिब्यूनल का अध्यक्ष बना दिया जाता है तो किसी को किसी सूबे के राजभवन में बैठा दिया जाता है।
हालाँकि न्यायपालिका का क्षरण कोई नई परिघटना नहीं है। यह सिलसिला बहुत पहले से चला आ रहा है।
बात क़रीब एक दशक पुरानी है। सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील की सुनवाई करते हुए कुछ जजों की ईमानदारी और नीयत पर बेहद मुखर अंदाज़ में काफ़ी तल्ख टिप्पणियाँ की थीं। 26 नवंबर 2010 को सुप्रीम कोर्ट ने देश के सबसे बड़े इस हाई कोर्ट से क्षुब्ध होकर कहा था-
''शेक्सपियर ने अपने मशहूर नाटक 'हेमलेट’ में कहा है कि डेनमार्क राज्य में कुछ सड़ा हुआ है। यही बात इलाहाबाद हाई कोर्ट के बारे में भी कही जा सकती है। यहाँ के कुछ जज 'अंकल जज सिंड्रोम’ से ग्रस्त हैं।’’
सुप्रीम कोर्ट के इस आक्रोश की वजह यह थी कि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर जाते हुए बहराइच के वक्फ बोर्ड के ख़िलाफ़ एक सर्कस कंपनी के मालिक के पक्ष में एक अनुचित आदेश पारित कर दिया था, जबकि यह मामला हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के अंतर्गत आता था। इस मामले के पहले से भी इलाहाबाद हाई कोर्ट के बारे में सुप्रीम कोर्ट के पास कई गंभीर शिकायतें थीं, जिनको लेकर उसने अपना आक्रोश ज़ाहिर करने में कोई कोताही नहीं की। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था-
''इस हाई कोर्ट के कई जजों के बेटे और रिश्तेदार वहीं वकालत कर रहे हैं और वकालत शुरू करने के कुछ ही वर्षों के भीतर वे करोड़पति हो गए हैं, उनके आलीशान मकान बन गए हैं, उनके पास महंगी कारें आ गई हैं और वे अपने परिवार के साथ ऐश-ओ-आराम की ज़िंदगी जी रहे हैं।’’
अपने ऊपर सुप्रीम कोर्ट की इन सख़्त टिप्पणियों से आहत इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपनी छवि और गरिमा की दुहाई देते हुए एक समीक्षा याचिका दायर कर सुप्रीम कोर्ट से इन टिप्पणियों को हटाने की गुज़ारिश की थी।
सुप्रीम कोर्ट ने 10 दिसंबर 2010 को न सिर्फ़ इलाहाबाद हाई कोर्ट की याचिका को निर्ममतापूर्वक ठुकरा दिया था, बल्कि उसने और ज़्यादा तल्ख अंदाज़ में कहा था- ''देश की जनता बुद्धिमान है, वह सब जानती है कि कौन जज भ्रष्ट है और कौन ईमानदार।’’
अपनी पूर्व में की गई टिप्पणियों को हटाने से इनकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह भी साफ़ कर दिया था कि उसकी ये टिप्पणियाँ सभी जजों पर लागू नहीं होती हैं, क्योंकि इस हाई कोर्ट के कई जज काफ़ी अच्छे हैं, जो अपनी ईमानदारी व निष्ठा के ज़रिए इलाहाबाद हाई कोर्ट का झंडा ऊँचा किए हुए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि इलाहाबाद हाई कोर्ट को उसकी टिप्पणियों पर प्रतिक्रिया जताने के बजाय आत्मचिंतन करना चाहिए।
हालाँकि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार का यह कोई नया मामला नहीं था। पिछली शताब्दी के आख़िरी दशक में न्यायमूर्ति वी, रामास्वामी से लेकर अभी हाल के वर्षों में सिक्किम हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी.डी. दिनाकरण और कलकत्ता हाई कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश सौमित्र सेन तक के कई उदाहरण हैं, जिनमें निचली अदालतों से लेकर उच्च अदालतों तक के न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं। इस सिलसिले में नवंबर 2010 में गुजरात हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एस.जे. मुखोपाध्याय ने तो अपने ही मातहत कुछ जजों के भ्रष्टाचरण पर बेहद सख़्त टिप्पणी की थी- ''गुजरात में न्यायपालिका का भविष्य संकट में है, जहाँ पैसे के बल पर कोई भी फ़ैसला ख़रीदा जा सकता है।’’
वकील शांतिभूषण के आरोप
इसी दौरान जबलपुर (मध्य प्रदेश) हाई कोर्ट की ग्वालियर बेंच के कुछ जजों के बारे में भी कुछ ऐसी ही शिकायतें ग्वालियर अभिभाषक संघ के अध्यक्ष ने सुप्रीम कोर्ट को भेजी थी। इससे पहले देश के पूर्व क़ानून मंत्री शांतिभूषण ने तो सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल कर देश के आठ पूर्व प्रधान न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए थे, लेकिन उस पर विचार करने के बजाय सुप्रीम कोर्ट ने उलटे शांति भूषण पर दबाव डाला था कि वे अपने इस हलफनामे को वापस ले लें।
जबलपुर हाई कोर्ट की इंदौर बेंच का मामला
न्यायपालिका में भ्रष्टाचार और जजों की संदिग्ध कार्यशैली के सिलसिले में जबलपुर हाई कोर्ट की इंदौर बेंच से जुड़ा 1980 के दशक का मामला तो बेहद दिलचस्प है। हाई कोर्ट ने एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए इंदौर नगर निगम के छह इंजीनियरों को भ्रष्टाचार के मामले में निलंबित कर उन्हें गिरफ़्तार करने का आदेश दिया था। सभी छह इंजीनियर जेल में थे। उनकी ज़मानत के आवेदन पर कई दिनों तक सुनवाई चली। सुनवाई के दौरान उन इंजीनियरों को अदालत लाया जाता था। सुनवाई करने वाली बेंच के दोनों जजों ने एक हफ़्ते से भी ज़्यादा समय तक चली सुनवाई के दौरान महात्मा गाँधी, रवींद्रनाथ टैगोर, कीट्स, वर्ड्सवर्थ, शेक्सपियर, मार्क ट्वेन, वॉल्टेयर आदि दुनियाभर के तमाम साहित्यकारों, दार्शनिकों, विचारकों के उद्धरण देकर भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ प्रवचन देते हुए आरोपी इंजीनियरों को ख़ूब खरी-खोटी सुनाई। स्थानीय अख़बारों में इस मामले की ख़बरों को ख़ूब जगह मिली। दोनों जजों ने भी ख़ूब वाहवाही बटोरी। दिलचस्प अंदाज़ में मामले का अंत यह हुआ कि दोनों जजों ने अपनी सेवानिवृत्ति के चंद दिनों पहले मुक़दमे का निपटारा करते हुए सभी आरोपी इंजीनियरों को 'ठोस सबूतों के अभाव में’ बरी कर दिया तथा सरकार की जाँच एजेंसी को जमकर लताड़ा।
सभी छह इंजीनियरों की सेवाएँ फिर से बहाल हो गईं और वे एक बार फिर पहले की तरह सीना तानकर 'लोकसेवा’ में जुट गए। अदालत के फ़ैसले पर कौन उठाता सवाल? उठाता तो अवमानना का मामला बन जाता।
वैसे अदालतों में होने वाली गड़बड़ियों को लेकर संबंधित मामलों की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च अदालत के भीतर से ही आवाज़ उठने और पीठासीन जजों का अपनी मातहत अदालतों को फटकार लगाने का सिलसिला भी पुराना है। दो साल पहले तो सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों ने प्रधान न्यायाधीश की ही संदेहास्पद कार्यशैली पर सार्वजनिक रूप से सवाल उठा दिए थे और देश के लोकतंत्र को ख़तरे में बताया था। मीडिया से मुखातिब चारों जजों ने यद्यपि सरकार को लेकर कोई टिप्पणी नहीं की थी, लेकिन सरकार और सत्तारूढ़ दल के प्रवक्ताओं ने उन चार जजों के बयान पर जिस आक्रामकता के साथ प्रतिक्रिया जताई थी और प्रधान न्यायाधीश का बचाव किया था, वह भी न्यायपालिका की पूरी कलंक-कथा को उजागर करने वाला था। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश पीवी सावंत ने एक टीवी इंटरव्यू में चारों जजों के बयान को देशहित में बताते हुए कहा था कि देश की जनता को यह समझ लेना चाहिए कि कोई भी न्यायाधीश भगवान नहीं होता। न्यायपालिका के रवैये पर कठोर टिप्पणी करते हुए उन्होंने दो टूक कहा था कि अदालतों में अब आमतौर पर फ़ैसले होते हैं, यह ज़रूरी नहीं कि वहाँ न्याय हो।
न्यायपालिका में लगी भ्रष्टाचार की दीमक और न्यायतंत्र पर मंडरा रहे विश्वसनीयता के संकट ने ही क़रीब एक दशक पहले देश के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश एस.एच. कपाडिया को यह कहने के लिए मजबूर कर दिया था कि जजों को आत्म-संयम बरतते हुए राजनेताओं, मंत्रियों और वकीलों के संपर्क में रहने और निचली अदालतों के प्रशासनिक कामकाज में दख़लअंदाज़ी से बचना चाहिए।
16 अप्रैल 2011 को एमसी सीतलवाड़ स्मृति व्याख्यान देते हुए न्यायमूर्ति कपाडिया ने कहा था कि जजों को सेवानिवृत्ति के बाद नियुक्ति के लोभ से भी बचना चाहिए, क्योंकि नियुक्ति देने वाला बदले में उनसे अपने फ़ायदे के लिए निश्चित ही कोई काम करवाना चाहेगा।
न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की बात को 2002 से 2004 के दौरान सर्वोच्च अदालत के मुखिया रहे जस्टिस वी एन खरे ने अपने एक इंटरव्यू मे कहा था- ''जो लोग यह दावा करते हैं कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार नहीं है, मैं उनसे सहमत नहीं। मेरा मानना है कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार का यह नासूर ऐसा है जिसे छिपाने से काम नहीं चलेगा, इसकी तुरंत सर्जरी करने की आवश्यकता है।’’
ऐसा नहीं है कि न्यायपालिका में जारी गड़बड़ियों से आम आदमी बेख़बर हो, लेकिन मुख्य रूप से दो वजहों से ये गड़बड़ियाँ कभी सार्वजनिक बहस का मुद्दा नहीं बन पातीं। एक तो लोगों को न्यायपालिका की अवमानना के डंडे का डर सताता है और दूसरे, अपनी तमाम विसंगतियों और गड़बड़ियों के बावजूद न्यायपालिका आज भी हमारे लोकतंत्र का सबसे असरदार स्तंभ है, जिसे हर तरफ़ से आहत और हताश-लाचार आदमी अपनी उम्मीदों का आख़िरी सहारा समझता है।
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