''भड़काऊ भाषण देने वालों के ख़िलाफ़ कार्रवाई के लिए यह सही वक़्त नहीं है। इस समय पुलिस को लेकर भी ऐसी कोई टिप्पणी करना उचित नहीं होगा जिससे कि उसके मनोबल पर प्रतिकूल असर पड़े।’’

न्यायपालिका आज भी हमारे लोकतंत्र का सबसे असरदार स्तंभ है, जिसे हर तरफ़ से आहत और हताश-लाचार आदमी अपनी उम्मीदों का आख़िरी सहारा समझता है। न्यायपालिका का क्षरण क्यों?
दिल्ली हिंसा के सिलसिले में सरकार के दूसरे सबसे बड़े वकील की ओर से दिल्ली हाईकोर्ट में नसीहत भरे अंदाज़ में किया गया यह अनुरोध जिस जज ने खारिज कर दिया था, उसका रातोरात तबादला कर दिया गया। बाद में सुनवाई करने वाले हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने इस अनुरोध को स्वीकार कर लिया।
इसी दौरान सुप्रीम कोर्ट ने टेलीकॉम कंपनियों से संबंधित एक बड़े मामले में अपने आदेश पर अमल न होने पर सवाल किया था कि क्या इस देश में कोई क़ानून नहीं बचा है? मामले की सुनवाई कर रही बेंच की सदारत करते हुए न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा ने आगबबूला होते हुए कहा था- 'एक सरकारी बाबू सुप्रीम कोर्ट के आदेश को दबा कर बैठ जाता है। पैसे के दम पर सब चलाया जा रहा है। ऐसे में तो सुप्रीम कोर्ट को बंद कर देना चाहिए। देश छोड़कर चले जाने की इच्छा होती है, क्योंकि यह रहने लायक नहीं रहा।’