दस अक्टूबर को ताइवान के राष्ट्रीय दिवस के मौके पर नई दिल्ली में ताइवान के प्रतिनिधि कार्यालय ने जब स्थानीय अखबारों में विशेष सप्लीमेंट निकाले तो चीन चिढ़ गया और एक बयान जारी कर भारतीय मीडिया से कहा कि ताइवान चीन का अभिन्न हिस्सा है और चीन का ही एक प्रांत है जिसे वह चीन से अलग कर पेश नहीं करे।
चीन ने कहा कि भारत हमेशा से ही ताइवान को चीन का हिस्सा मानते हुए वन चाइना नीति की पुष्टि करता रहा है इसलिये भारतीय मीडिया ताइवान को एक स्वतंत्र राष्ट्र और इसके नेता को राष्ट्रपति के तौर पर नहीं बताए।
भारत क्यों करे परवाह
चीन ने भारतीय मीडिया से ताइवान को लेकर संवेदनशीलता दिखाने का आग्रह किया है। लेकिन भारतीय सामरिक हलकों में यह सवाल पूछा जाने लगा है कि जब चीन को भारत की वन इंडिया नीति की कोई परवाह नहीं है और हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर वह भारत की प्रादेशिक एकता के ख़िलाफ़ बयान देता और हरकतें करता रहा है तो भारत भी चीन की प्रादेशिक एकता और सम्प्रभुता का सम्मान क्यों करे।
भारत ने हाल में ताइवान के साथ रिश्तों का दर्जा बढ़ाने के संकेत दिये हैं। चूंकि आधिकारिक तौर पर भारत ताइवान को चीन का हिस्सा मानता है इसलिये भारत और ताइवान के बीच राजनयिक रिश्ते नहीं हैं लेकिन हाल के सालों में जिस तरह चीन ने भारत के हितों के ख़िलाफ़ काम किया है और भारत की प्रादेशिक एकता और सम्प्रभुता को चोट पहुंचाई है, उसके मद्देनजर भारत ने भी ताइवान के साथ रिश्ते मजबूत करने शुरू कर दिये हैं।
ताइवान के सरकारी समारोहों में भारतीय सत्तारुढ़ दल के प्रतिनिधि भी मौजूद रहे हैं। इस तरह भारत ने चीन को भी एक संदेश दिया है कि जिस तरह वह भारत की सम्प्रभुता का सम्मान नहीं करता है उसी तरह भारत भी चीन की प्रादेशिक एकता का सम्मान करने के लिये प्रतिबद्ध नहीं है।
नजदीकी बढ़ा रहा भारत
इसी रुख के अनुरुप, गत 26 मई को ताइवान के संसदीय चुनावों के बाद जब विजयी नेता त्साई इंग वन के दोबारा राष्ट्रपति चुने जाने के बाद शपथ ग्रहण समारोह आयोजित हुआ तो भारत में सत्तारुढ़ दल ने अपने प्रतिनिधि के तौर पर अपने दो सांसदों मीनाक्षी लेखी और राहुल केसवान को वर्चुअली मौजूद रहने को कहा। इससे पहले भारत ने विदेश मंत्रालय में अपने सीनियर राजनयिक मनीष चौहान को नियुक्त किया था।
भारत ने वहां अपना प्रतिनिधि कार्यालय 1995 से ही इंडिया-ताइपेइ एसोसिएशन के नाम से खोला हुआ है और उसके प्रमुख के तौर पर विदेश मंत्रालय के महानिदेशक रैंक के एक सीनियर राजनयिक को नियुक्त करता रहा है।
इस कार्यालय के जरिये भारत ताइवान से अपने व्यापारिक और आर्थिक रिश्ते बढ़ाता है। ताइवान में सैकड़ों की संख्या में भारतीय सूचना तकनीक के विशेषज्ञ काम करते हैं और इसके अलावा ताइवान के शिक्षण संस्थानों में हजारों भारतीय छात्र पढ़ाई करने लगे हैं। इस तरह जनता स्तर पर यानी पीपुल टू पीपुल रिश्तों को भारत ने हाल में प्रोत्साहित करना शुरू किया है।
ताइवान सरकार ने नई दिल्ली में ताइपेई इकनॉमिक एंड कल्चरल सेंटर खोला है जिसके जरिये वह भारत के साथ आर्थिक और जनता स्तर के रिश्तों को मजबूती दे रहा है।
ताइवान भी इस सेंटर में अपने एक आला राजनयिक को प्रतिनिधि के तौर पर नियुक्त करता है। हालांकि 1949 में चीन में कम्युनिस्ट शासन स्थापित होने के बाद चेयरमैन माओ की अगुवाई में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना की स्थापना हुई तो चीन के तत्कालीन सत्तारुढ़ क्वोमिनतांग पार्टी के नेता च्यांग काई शेक भागकर ताइवान द्वीप पर चले गए थे और वहां से रिपब्लिक ऑफ़ चाइना की सरकार चलाते रहे।
रिपब्लिक ऑफ़ चाइना क्यों?
आज जब ताइवान चीन से हर मायने में अपने को स्वतंत्र देश कहता है तब उसे रिपब्लिक ऑफ़ चाइना कहने का कोई तुक नहीं बनता है। पेइचिंग में माओ त्से तुंग की कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार स्थापित करने के बाद भी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्य और चीन के प्रतिनिधि के तौर पर ताइवान स्थित सरकार को ही मान्यता जारी रही।
1971 में जब अमेरिका ने चीन के साथ रिश्ते बनाए तब सुरक्षा परिषद की सदस्यता रिपब्लिक ऑफ़ चाइना से छीन कर कम्युनिस्ट चीन को दे दी गई और तब भारत ने भी इसे जोरदार समर्थन दिया और ताइवान को चीन का हिस्सा माना।क्या भारत को चीन के ख़िलाफ़ अमेरिका की जरूरत है?, देखिए वीडियो
चीन की दादागिरी
लेकिन हाल में अंतरराष्ट्रीय जगत में चीन की बढ़ती दादागिरी और विस्तारवादी नीतियों के मद्देनजर ताइवान को लेकर विश्व समुदाय का नजरिया बदला है। भारत से काफी पहले ही दुनिया के कई देशों ने ताइवान के साथ अनौपचारिक रिश्ते मजबूत करने शुरू किये थे। इसी के मद्देनजर चीन ताइवान को लेकर काफी संवेदनशील हो गया है और वह ताइवान से रिश्ते रखने वाले देशों को धमकाता रहता है।
नई दिल्ली में चीनी दूतावास द्वारा इसी के अनुरुप भारतीय मीडिया को सलाह दी गई है जिस पर भारतीय विदेश मंत्रालय ने सटीक टिप्पणी की है कि भारतीय मीडिया स्वतंत्र है और मुद्दों को अपने नजरिये से देखता है।
चीन से जुड़ाव ख़त्म करे ताइवान
वास्तव में ताइवान आज भी अपने को रिपब्लिक ऑफ़ चाइना के नाम से बताता है लेकिन चीन से इस जुड़ाव को जब तक ताइवान खत्म नहीं करेगा और अपने देश की पहचान चीन के तौर पर करना बंद नहीं करेगा तब तक भारत या अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिये ताइवान को अलग कर देखना मुश्किल होगा।
वक्त आ गया है कि ताइवानी जनता अपने देश की पहचान चीन के तौर पर नहीं करे। हालांकि ताइवान में इस मुद्दे पर बहस भी चल रही है कि ताइवान को रिपब्लिक ऑफ़ चाइना कहना चाहिये या नहीं। ताइवानी पासपोर्ट पर रिपब्लिक ऑफ़ चाइना ही लिखा होता है जिससे भी अंतरराष्ट्रीय समुदाय में भ्रम पैदा होता है कि असली चीन कौन है।
इस भ्रम को कैसे दूर किया जाए, इसे लेकर ताइवान में बहस भी चल रही है और पासपोर्ट पर ताइवान लिखने का प्रस्ताव भी विचाराधीन है। शायद ताइवान इसलिये अपने नाम के आगे चीनी गणतंत्र हटाकर ताइवानी गणतंत्र करने से हिचक रहा है क्योंकि चीन ने ताइवान को सख्त चेतावनी दी है कि ताइवान यदि अपने को स्वतंत्र देश के तौर पर निरुपित करेगा तो चीन तुरंत ताइवान पर हमला बोल देगा।
ताइवान ने चीन के इस तरह के धमकी भरे बयानों के मद्देनजर अपनी रक्षा तैयारी हाल के सालों में तेज कर दी है। ताइवान की सैन्य ताकत मजबूत करने में अमेरिका भी काफी मदद कर रहा है।
ताइवान के साथ है अमेरिका
अमेरिका ने उसे अपने ताकतवर एफ-16 लड़ाकू विमानों के अलावा कई अन्य हमलावर और रक्षात्मक शस्त्र प्रणालियां सप्लाई की हैं और हाल में अपने आला राजनयिकों को ताइवान भेजकर चीन का गुस्सा मोल लिया है। लेकिन अमेरिका ने जिस तरह अपना राजनयिक और सैनिक समर्थन दे कर ताइवान की जनता का मनोबल बढ़ाया है, उससे चीन और चिढ़ा है और उसने इसे लेकर अमेरिका को तो चेतावनी दी ही है और ताइवान को डराने के लिये ताइवान के तटीय इलाकों तक अपने लड़ाकू विमान भी भेजे हैं।
ताइवान इतना ताकतवर नहीं है कि वह चीनी सैन्य हमले को झेल सके। सच्चाई यही है कि जब तक ताइवान के सिर पर अमेरिका का हाथ है तब तक ताइवान के मौजूदा अस्तित्व पर कोई आंच नहीं आ सकती।
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